Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

प्रवासी मज़दूरों की सुरक्षा के बिना कोरोना से लड़ाई में जीत नामुमकिन

इन प्रवासी मज़दूरों की समस्याओं का समाधान बहुत ज्यादा कठिन नहीं है, असंभव तो बिल्कुल नहीं है। किंतु सबसे पहले हमें इन्हें एक मनुष्य मानना होगा- एक ऐसा मनुष्य जिसकी हम जैसी ही  आशाएं और आकांक्षाएं हैं, भय एवं आशंकाएं हैं।
प्रवासी मज़दूर
Image courtesy: India Today

लॉकडाउन के दूसरे चरण की घोषणा के बाद स्थान स्थान पर घर लौटने के लिए व्याकुल प्रवासी मज़दूरों के विशाल समूहों को सड़कों पर देखा जा रहा है। अब तक विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग यह मान रहा था कि सरकार द्वारा लॉकडाउन के प्रथम चरण में भारत के लाखों प्रवासी श्रमिकों  का  ध्यान नहीं रखा जाना निर्णय लेने की जल्दबाजी का नतीजा था।  यह सरकार की एक भूल थी  – एक ऐसी भूल जिसे स्वीकारा और तत्काल सुधार लिया जाना चाहिए था। किंतु दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं। सरकार इन प्रवासी मज़दूरों की समस्याओं के प्रति असंवेदनशील बनी रही।

लॉकडाउन के प्रथम चरण के इक्कीस दिन बीत गए। सरकार की कागजी घोषणाओं के खोखलेपन से भली भांति परिचित यह प्रवासी श्रमिक असुविधाजनक और अस्वास्थ्यप्रद परिस्थितियों में कभी भूखे पेट और कभी खैरात में बांटे जाने वाले भोजन की तिरस्कारपूर्ण और अपर्याप्त व्यवस्था के बीच समय काटते रहे। फिजिकल डिस्टेन्सिंग की धज्जियां उड़ाते हुए इन्हें ऐसे स्थानों में रखा गया है जहां मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। भोजन और दीगर दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन्हें कतारों में जूझना पड़ता है।

संभवतः सरकार यह मानती है कि ये श्रमिक कोरोना प्रूफ हैं। हो सकता है कि हममें से बहुत से लोग यह भी सोचते होंगे कि इन्हें इन असुविधाजनक स्थानों पर कैद रखकर सरकार कम से कम तथाकथित सभ्य समाज में संक्रमण को फैलने से तो रोक रही है, इन मूढ़ लोगों का क्या है, ये भेड़ बकरियों की तरह जीने और मरने के लायक हैं। अब जब लॉकडाउन बढ़ा दिया गया है तो इन श्रमिकों का धैर्य जवाब दे रहा है और इनका असंतोष इन्हें सड़कों पर ले आया है।

चिंताजनक बात यह है कि यदि सरकार का इन श्रमिकों के प्रति यह रूखा व्यवहार जारी रहा तो आने वाले दिनों में जो भयानक स्थिति पैदा होगी उसके दुष्परिणाम आर्थिक जगत तक सीमित नहीं रहेंगे। असंतोष और अफरातफरी का संभावित वातावरण कोविड-19 के साथ देश के संघर्ष को असफल करने की सीमा तक कमजोर करेगा। कानून व्यवस्था का संकट उत्पन्न होगा। देश का सामाजिक ढांचा चरमराने लगेगा। यह अप्रिय घटनाक्रम हमारे इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी का रूप लेने के सारे अशुभ संकेत स्वयं में समेटे है।

इन प्रवासी मज़दूरों की समस्याओं का समाधान बहुत ज्यादा कठिन नहीं है, असंभव तो बिल्कुल नहीं है। किंतु सबसे पहले हमें इन्हें एक मनुष्य मानना होगा- एक ऐसा मनुष्य जिसकी हम जैसी ही  आशाएं और आकांक्षाएं हैं, भय एवं आशंकाएं हैं। जिसका हम जैसा ही घर परिवार है, जिसके कुछ सपने भी हैं जो हमें भले ही तुच्छ लगते हैं लेकिन इन्हीं के सहारे उसका जीवन कटता है। 

यह मज़दूर बहुत ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं है। कोरोना के बारे में उसकी समझ जहां तक पहुंच रही है वह उसे यही बतला रही है कि यह चंद दिनों में लाखों जानें ले लेने वाली उस तरह की कोई भयानक महामारी है जिसके विषय में वह अपने बड़े बूढ़ों से सुनता रहा था। यह मज़दूर अपने परिवार से दूर है। उसकी कमाई बन्द है। उसके रहने का आसरा छिन गया है। वह अपने परिवार के आर्थिक भविष्य को लेकर फिक्रमंद है। वह आशंकित है कि जाने कब इस रोग का उस पर आक्रमण हो जाए और इस अनजान जगह में अपनों से दूर वह एक गुमनाम मौत मर जाए। उसे न अपनों का कंधा नसीब होगा न अपने गांव की मिट्टी। वह भयभीत है कि यदि उसके परिजनों में से कोई इस रोग से ग्रस्त हो गया तो उसकी मदद कौन करेगा। वह भ्रमित और चिंतित है। वह अफवाहों का आसान शिकार है। 

लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूरों की जो समस्या हो रही है उसे अभी तक एक आर्थिक समस्या की तरह देखा गया है और आधे अधूरे मन से इस आर्थिक परेशानी को हल करने के प्रयास किए गए हैं। जब तक इस समस्या के सोशल और एंथ्रोपोलॉजिकल पहलुओं पर गौर नहीं किया जाएगा हम किसी सही निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पाएंगे। इन मज़दूरों की निर्धनता एवं अशिक्षा अर्थ यह कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि ये भावनाओं से रहित हैं, इनकी कोई सामाजिक- सांस्कृतिक पृष्ठभूमि नहीं है और खेतों में कार्य करने वाले पालतू पशुओं की भांति केवल इन्हें भोजन देकर जीवित रखा जा सकता है। सरकार की मंशा यह रही है कि इन्हें खाना, रहने की जगह आदि देकर अपने घर लौटने से रोका जाए ताकि संक्रमण न फैले। जो प्रवासी श्रमिक येन केन प्रकारेण अपने घर लौटने में कामयाब रहे हैं उन्हें भी उत्तरप्रदेश और बिहार में उनके ग्रामों में प्रवेश से सरकार द्वारा रोका गया है।

.सरकार को इनसे संक्रमण फैलने का इतना भय है कि इन्हें बरेली में क्लोरीन सॉल्यूशन से नहलाने जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटित हुई। भारत में कोरोना संक्रमण के एक प्रमुख कारण के रूप में चिह्नित किए गए अंतरराष्ट्रीय प्रवासी भारतीयों के प्रति सरकार अतिशय उदार रही है। न केवल इन्हें विशेष उड़ानों के द्वारा भारत लाया गया बल्कि इन्हें बेहतरीन चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराते हुए अपने परिवारों तक पहुंचाने की भी व्यवस्था की गई। हाल ही में दैनिक जागरण के वाराणसी संस्करण में 14 अप्रैल को “तीर्थ यात्रियों को लेकर रवाना हुईं बसें” शीर्षक समाचार प्रकाशित हुआ है जिसके अनुसार आंध्र प्रदेश के राज्य सभा सांसद जीवीएल नरसिम्हाराव की पहल और केंद्र सरकार के आदेश पर काशी से सोमवार 13 अप्रैल को तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और उड़ीसा के एक हजार से अधिक यात्री 25 बसों और 4 क्रूजर से सुरक्षा कर्मियों संग अपने राज्य भेजे गए।

अमर उजाला में भी यह समाचार प्रकाशित हुआ है जिसके अनुसार इन तीर्थ यात्रियों की न तो थर्मल स्क्रीनिंग की गई न ही सोशल डिस्टेन्सिंग के नॉर्म्स का पालन किया गया। यदि यह समाचार सही हैं तो इनके आधार पर हम सरकार की धार्मिक प्राथमिकताओं को भी समझ सकते हैं और संपन्न वर्ग के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का भी अनुभव कर सकते हैं। किन्तु अंतर राज्यीय प्रवासी मज़दूरों के लिए सरकार की कार्यप्रणाली एकदम विपरीत रही है।

 सरकारी तंत्र को यह समझना होगा कि नौकरी और काम का छिनना, घर से बेघर होना तथा मृत्यु का भय इन प्रवासी श्रमिकों के लिए एक भयानक मानसिक आघात का कारण बने हैं। बिना अपने सामाजिक-पारिवारिक परिवेश की सुरक्षा और सहायता के इस मानसिक आघात से उबरना इन श्रमिकों लिए कठिन है। सुप्रीम कोर्ट ने  सरकार को इन प्रवासी श्रमिकों की काउन्सलिंग करने को कहा। जैसी नारकीय दशाओं में यह रहने को बाध्य किए गए हैं उसमें मनोवैज्ञानिकों के द्वारा काउन्सलिंग का तो स्वप्न ही देखा जा सकता है और अगर यह दी भी जाती है तो एक विद्रूप नजारा ही उत्पन्न होगा जब लगभग अपना सर्वस्व गंवा चुके लोगों को सकारात्मकता का पाठ पढ़ाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए था कि वह राजनेताओं और अफसरशाहों की काउन्सलिंग का आदेश करता जिससे उनमें आधारभूत मानवीय गुणों का प्रस्फुटन होता।

 सरकार यदि चाहे तो लॉकडाउन 2 की इस अवधि का उपयोग इच्छुक प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षित घर वापसी के लिए कर सकती है। अभी ट्रेनों और बसों का परिचालन बन्द है। प्लेटफार्म और बस अड्डे सूने पड़े हैं। इसलिए चरणबद्ध रूप से इन प्रवासी मज़दूरों को उनके घरों तक पहुंचाने वाली ट्रेन और बसें चलाना आसान भी है और सुरक्षित भी। एक बार जब लॉकडाउन खत्म हो जाएगा और नियमित रेल तथा बस परिवहन प्रारंभ हो जाएगा तो फिर यात्रियों की जो भीड़ उमड़ेगी उसमें इनकी सुरक्षित घर वापसी असंभव होगी। रही बात इनके द्वारा कोरोना के संक्रमण के प्रसार की- इसके लिए तो एक ही उपाय है वह है टेस्टिंग जिसके लिए सरकार इच्छुक नहीं दिखती।

अब जब विभिन्न देशों से टेस्टिंग किट्स की आपूर्ति प्रारंभ हो गई है तो सरकार को इन किट्स कुछ हिस्सा इन गरीबों की जांच के लिए भी उपलब्ध कराना चाहिए और कम से कम रैंडम आधार पर इनकी जांच करके स्वस्थ श्रमिकों को उनके घर भेजने का प्रयास करना चाहिए। इस तरह अफरातफरी भी नहीं मचेगी और इनकी शांतिपूर्ण और सुरक्षित घर वापसी हो पाएगी। इन मज़दूरों के अपने ग्राम पहुंचने पर अन्य ग्रामीणों में व्याप्त इस भय को भी मिटाना होगा कि इनसे कोरोना फैल सकता है। अन्यथा इन प्रवासी मज़दूरों के साथ हिंसा भी हो सकती है और इन्हें सामाजिक बहिष्कार का भी सामना करना पड़ सकता है। यदि सरकार प्रथम लॉकडाउन के दौरान ही यह कार्य प्रारंभ कर देती तो हालात संभवतः इतने खराब नहीं होते।

यद्यपि इस रिवर्स माइग्रेशन के दूरगामी परिणाम होंगे। इन मज़दूरों का वेतन और आवास छीनने वाले इनके हृदयहीन शहरी मालिकों को आने वाले समय में कामगारों की भीषण कमी से जूझना पड़ेगा। इस अप्रिय अनुभव के बाद बहुत से प्रवासी मज़दूर शहरों में रहने का हौसला नहीं जुटा पाएंगे। जब यह अपने गांव पहुंचेंगे तो श्रमिकों की अधिकता के कारण वहां इन्हें काम मिलने में दिक्कत होगी और इनके ग्रामीण मालिक इस स्थिति का फायदा उठाकर इन्हें सस्ते में श्रम करने को विवश करेंगे। 

यह भी संभव है कि सरकार इन मज़दूरों को तब तक लॉकडाउन में रहने के लिए बाध्य करे जब तक उसकी दृष्टि में हालात लॉकडाउन हटाने लायक सामान्य नहीं हो जाते। उसके बाद इन मज़दूरों के पास वापस शहरी जीवन में लौटने का विकल्प होगा। यद्यपि हाल के बुरे अनुभव के बाद अधिकांश प्रवासी श्रमिक शहरों में रहने का हौसला कम से कम तत्काल तो नहीं दिखा पाएंगे। जो शहरों में काम के लिए रुकने के पक्षधर भी होंगे वे भी कम से कम एक बार अपने परिवार से मिलना अवश्य चाहेंगे। इस परिस्थिति में भी इन मज़दूरों की टेस्टिंग अनिवार्य होगी। सरकार यदि कोरोना से लड़ाई में गंभीर है तो उसे इन आर्थिक रूप से कमजोर मज़दूरों को भी सघन टेस्टिंग के दायरे में लाना होगा। अभी तक तो सरकार एक खास धार्मिक समुदाय के लोगों की टेस्टिंग में ही व्यस्त नजर आती है। 

इन मज़दूरों को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराने का जो प्रयास  सरकार को  पहले लॉकडाउन के दौरान करना चाहिए था वह अब भी किया जा सकता है। इन मज़दूरों को साफ सुथरी जगहों में रखा जा सकता है। इनके स्वास्थ्य की नियमित जांच की जा सकती है। गांवों में जो इनके परिजन मौजूद हैं उनसे इनकी नियमित चर्चा के इंतजाम किए जा सकते हैं। इनके परिवार जनों की जो समस्याएं हैं उन्हें उस जिले के स्थानीय प्रशासन के सहयोग से दूर किया जा सकता है। कोरोना के बारे में फैल रही अफवाहों से इन्हें सावधान किया जा सकता है। इन्हें यह बताया जा सकता है कि समुचित सावधानी रखकर कोरोना से बचा जा सकता है। इन मज़दूरों को  किसी धर्म और संप्रदाय के लोगों को कोरोना के लिए जिम्मेदार बताने वाली झूठी खबरों से सतर्क किया जा सकता है।

इन्हें पुलिस, प्रशासन और डॉक्टरों पर विश्वास करने और उन्हें सहयोग देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इनका डाटा ऑनलाइन उपलब्ध कराया जा सकता है जिससे यह पता चल सके कि किस राज्य में किस राज्य के कौन कौन से श्रमिक किस स्थान पर फंसे हुए हैं। जब यह डाटा ऑनलाइन होगा तो न केवल गृह राज्य इनसे संपर्क कर इनकी समस्याओं को जान सकेगा बल्कि इनकी सहायता करने के इच्छुक समाज सेवी भी इनकी और इनके परिजनों की मदद कर सकेंगे। इन श्रमिकों के लिए सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठे अपने परिजनों की कुशलक्षेम जानना और अपनी कुशलता की खबर उन तक पहुंचाना ही किसी भी काउन्सलिंग से ज्यादा कारगर सिद्ध होगा। 

कुछ मीडिया रिपोर्टों में यह बताया गया है कि इन प्रवासी मज़दूरों के पास प्रायः राशन कार्ड नहीं होते। हमारे पास खाद्यान्न का प्रचुर भंडार है। इस वर्ष मार्च तक एफसीआई के पास 77 मिलियन टन खाद्यान्न का भंडार एकत्रित हो गया था। जब रबी की फसल एफसीआई के भंडारों तक पहुंचेगी तो इस स्टॉक में 20 मिलियन टन का इजाफा और होगा। यह स्टॉक हमारे बफर नॉर्म्स 21 मिलियन टन से कई गुना अधिक है।

कई अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि जिन लाखों लोगों के पास राशन कार्ड नहीं हैं उन्हें 6 माह अथवा एक वर्ष के लिए इमरजेंसी राशन कार्ड दिए जा सकते हैं। यदि ऐसे लोगों की सूची बनाने में कोई दिक्कत है तब एक विकल्प यह भी हो सकता है कि ग्रामीण इलाकों और शहरों में स्थित स्लम एरियाज में पीडीएस सिस्टम को एक वर्ष के लिए यूनिवर्सलाइज कर दिया जाए। ज्यां द्रेज के अनुसार यदि ऐसा किया जाता है तो केवल 20 मिलियन टन अतिरिक्त स्टॉक का आबंटन करना होगा जो बिल्कुल संभव है। ज्यां द्रेज के अनुसार गरीब राज्यों में तो वैसे ही पीडीएस सिस्टम शत प्रतिशत कवरेज के करीब है इसलिए यहां तो कोई अतिरिक्त बोझ भी नहीं पड़ेगा। 

लॉकडाउन कोरोना के प्रसार को रोकने की एक बेहतरीन युक्ति है किंतु इसे सरकार की नाकामियों को छिपाने की रणनीति में नहीं बदला जाना चाहिए। सरकार समर्थक मीडिया तो दिन भर यह सिद्ध करने में लगा ही हुआ है कि यदि कोरोना फैलता है तो यह लॉकडाउन तोड़ने वाले लोगों की लापरवाही का परिणाम होगा और यदि कोरोना नियंत्रित हो जाता है तो यह सरकार की कोशिशों का नतीजा होगा। अचानक लॉकडाउन का निर्णय उच्चतर आय वर्ग के लोगों के लिए जितना प्राणरक्षक सिद्ध हुआ है निश्चित ही इन प्रवासी श्रमिकों के लिए भी यह उतना ही उपयोगी सिद्ध होता अगर इनकी समस्याओं पर सरकार ने पहले से विचार किया होता। लेकिन सरकार तो इनके कष्टों को इनकी नियति बनाना चाह रही है। इन मज़दूरों की दुर्दशा को त्याग के रूप में प्रचारित कर इन्हें भ्रम में डालने की कोशिश भी हो रही है। इन मज़दूरों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार कोरोना के खिलाफ लड़ाई के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का सबसे बड़ा प्रमाण होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest