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ख़बरों के आगे-पीछे : सोनिया और राहुल पर भी कस सकता है शिकंजा

लोकसभा चुनाव से पहले सोनिया और राहुल गांधी के ख़िलाफ़ भी प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की कार्रवाई फिर शुरू हो सकती है।
Rahul Gandhi
फाइल फ़ोटो। PTI

विभिन्न राज्यों में विपक्षी नेताओं के खिलाफ जिस तरह केंद्रीय एजेंसियों का अभियान जारी है, उसे देखते हुए लगता है कि लोकसभा चुनाव से पहले सोनिया और राहुल गांधी के खिलाफ भी प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की कार्रवाई फिर शुरू हो सकती है। हालांकि ऐसा होना या न होना काफी कुछ पांच राज्यों के चुनाव नतीजों पर निर्भर करेगा। अगर पांचों राज्यों में कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती है और राहुल गांधी के नेतृत्व का डंका बजता है तो संभव है कि एजेंसी फिर से सक्रिय हो। पिछले साल कई दिनों तक ईडी ने राहुल और सोनिया गांधी से पूछताछ की थी। इस मामले में भी सबूत हो या नहीं हो लेकिन आम लोगों के बीच यह धारणा बना दी गई है कि नेशनल हेराल्ड मामले में गड़बड़ी हुई है। वैसे किसी भी एजेंसी को इन दिनों विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई करने के लिए किसी सबूत की जरूरत नहीं पड़ रही है। हेराल्ड मामले में ईडी ने पिछले दिनों कांग्रेस के पूर्व कोषाध्यक्ष पवन बंसल से लगातार दो दिन तक उनसे पूछताछ की है। इसके बाद जानकार सूत्रों के हवाले से बताया जा रहा है कि सोनिया और राहुल गांधी को फिर से पूछताछ के लिए बुलाया जा सकता है। क्या यह संभव है कि पूछताछ के बाद राहुल गांधी को गिरफ्तार कर लिया जाए? वैसे केंद्र में नौ साल से ज्यादा समय से चल रही पूर्ण बहुमत की सरकार ने अभी तक सोनिया गांधी के परिवार के किसी व्यक्ति पर कार्रवाई नहीं की है। रॉबर्ट वाड्रा तक को हाथ नहीं लगाया गया है। लेकिन अगर राहुल गांधी की सक्रियता बनी रहती है और वे विपक्ष के साथ तालमेल बनवाते हैं या दूसरी भारत जोड़ो यात्रा पर निकलते हैं तो उन्हें रोकने के लिए कुछ न कुछ तो किया ही जा सकता है।

कांग्रेस का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर है। राहुल गांधी बार-बार कह रहे हैं कि कांग्रेस पांचों राज्यों में जीतेगी। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों ने भी हर जगह कांग्रेस की स्थिति मजबूत बताई है। राजस्थान के नतीजों को लेकर जरूर कहा जा रहा कि भाजपा जीतेगी लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस का प्रदर्शन भी खराब नहीं रहेगा। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की बढ़त बताई जा रही है और तेलंगाना व मिजोरम में त्रिशंकु विधानसभा बनने का अनुमान जाहिर किया गया है। पिछले चुनाव में कांग्रेस तेलंगाना में सिर्फ 19 सीटें जीत पाई थी, जबकि मिजोरम में उसे पांच सीटें मिली थीं। इस बार चुनावी सर्वेक्षणों के मुताबिक मिजोरम में कांग्रेस दो अंकों में पहुंचेगी और तेलंगाना में 50 सीट जीत सकती है। वहां बहुमत का आंकड़ा 59 सीट का है। इसीलिए कांग्रेस के नेता अतिआत्मविश्वास में हैं। इसी वजह से कांग्रेस ने सभी सहयोगी पार्टियों को ठेंगा दिखाया है। राजस्थान में राष्ट्रीय लोकदल के लिए एक सीट छोड़ी तो तेलंगाना में सिर्फ सीपीआई के साथ तालमेल किया। जाति गणना और मुफ्त की चीजों की गारंटी से भी कांग्रेस का भरोसा बहुत बढ़ा है। इसी वजह से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा का बहुत सघन प्रचार नहीं दिख रहा है। राहुल, प्रियंका के अलावा राष्ट्रीय नेताओं में सिर्फ मल्लिकार्जुन खरगे प्रचार करते दिख रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा सारे दांव आजमा रही है। छत्तीसगढ़ में पहले चरण के मतदान से पहले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को जिस तरह घेरा, वह इसका संकेत है।

पहले फैसला फिर उस पर जनमत संग्रह

यह कमाल सिर्फ अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ही कर सकती है। वे पहले किसी मसले पर फैसला कर उसकी घोषणा कर देते है और उसके बाद पार्टी कहती है कि इस पर जनमत संग्रह कराया जाएगा। पिछले दिनों जब ईडी के समन पर अरविंद केजरीवाल उसके सामने हाजिर नहीं हुए और चुनाव प्रचार से लौटे तो उन्होंने अपनी पार्टी के विधायकों की बैठक बुलाई। बैठक में तय हुआ कि अगर ईडी केजरीवाल को गिरफ्तार कर लेती है तब भी वे मुख्यमंत्री बने रहेंगे। उनकी पार्टी के प्रवक्ताओं और सरकार के मंत्रियों ने सार्वजनिक रूप से कहा कि गिरफ्तारी के बाद केजरीवाल तिहाड़ जेल से सरकार चलाएंगे और वहीं कैबिनेट की बैठक होगी। यह फैसला करने के बाद पार्टी ने ऐलान किया है कि वह इस बात पर जनमत संग्रह कराएगी कि केजरीवाल को इस्तीफा देना चाहिए या नहीं देना चाहिए। सवाल है कि जब पार्टी पहले ही तय कर चुकी है कि इस्तीफा नहीं देना है और केजरीवाल मुख्यमंत्री बने रहेंगे, तब इस पर जनमत संग्रह कराने का क्या मतलब है? सबको पता है कि आम आदमी पार्टी की ओर से कराए जाने वाले हर जनमत संग्रह में वही नतीजा आता है, जो पार्टी पहले से तय करती है। दूसरा ड्रामा यह है कि केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने रहे या नहीं इस पर पार्टी पूरे देश में जनमत संग्रह कराएगी।

कांग्रेस की तर्ज पर भाजपा की गारंटी

भाजपा के नेताओं को गारंटी शब्द बहुत लुभा रहा है। कांग्रेस ने सबसे पहले कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में इसका इस्तेमाल किया था। उसने पांच गारंटी की घोषणा की थी और वह बड़े अंतर से चुनाव जीती थी। उसके बाद वह पांच राज्यों के चुनाव में गारंटी शब्द का इस्तेमाल कर रही है। कहीं सात तो कहीं छह गारंटी की घोषणा हो रही है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा से लेकर कांग्रेस के मुख्यमंत्री और प्रदेश के नेता तक इस शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। भाजपा के नेता पहले तो कांग्रेस की गारंटी का मजाक उड़ाते हुए इसे मुफ्त की रेवड़ी कहते थे। लेकिन अब उन्होंने ऐसा कहना बंद कर दिया है। अब भाजपा ने भी गारंटी शब्द का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। छत्तीसगढ़ में उसने संकल्प पत्र के नाम से जो घोषणापत्र जारी किया उसमें उसने राज्य की जनता को कई गारंटी दी है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि राज्य में हो रहे चुनाव में गारंटी प्रधानमंत्री मोदी के नाम से दी गई है। इसे मोदी की गारंटी कहा गया है। यानी भाजपा जीती तो गारंटियों को मोदी पूरा करेंगे। इसमें लोगों को कई चीजें मुफ्त में देने की घोषणा की गई है। हैरानी की बात है कि जिन चीजों को लेकर प्रधानमंत्री मोदी खुद मुफ्त की रेवड़ी का जुमला बोलते थे वही चीजे देने की गारंटी वे खुद कर रहे है! उनकी पार्टी विवाहित महिलाओं को 12 हजार रुपए हर साल देगी और रसोई गैस का सिलेंडर पांच सौ रुपए में देगी। इस तरह की कई योजनाएं मोदी की गारंटी में शामिल हैं। कांग्रेस ने इस पर सवाल उठाते हुए कहा है कि अगर भाजपा चाहती है कि लोग उसकी गारंटी पर यकीन करे तो अभी जिन 10 राज्यों में उसकी सरकार है वहां इन योजनाओं को तत्काल लागू करे, तभी उसकी गारंटी का कोई मतलब रह जाएगा।

तेलंगाना में कांग्रेस की संभावनाएं और बढ़ीं

तेलंगाना में कांग्रेस को बड़ी राहत मिली है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी की बहन वाईएस शर्मिला की पार्टी वाईएसआर तेलंगाना पार्टी ने चुनाव मैदान से हटने और कांग्रेस को समर्थन देने का फैसला किया है। शर्मिला ने पिछले एक साल के दौरान पूरे प्रदेश में पदयात्रा की थी और संगठन खड़ा किया था। पहले कहा जा रहा था कि वे कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ेंगी। इस सिलसिले में वे दिल्ली में सोनिया गांधी से मिली थीं। दोनों की मुलाकात बेहद आत्मीय रही थी। कांग्रेस की ओर से उन्हें अपनी पार्टी के विलय का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन वे इसके लिए राजी नहीं हुईं, क्योंकि कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के लिए तैयार नहीं थी। तेलंगाना में रेड्डी समुदाय कांग्रेस का सबसे मजबूत वोट बैंक है। पार्टी के तीन सांसद हैं और तीनों रेड्डी समुदाय के हैं। प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी मुख्यमंत्री पद के अघोषित उम्मीदवार हैं। ऐसे में अगर शर्मिला की पार्टी चुनाव लड़ती तो रेड्डी वोटों में विभाजन होता, क्योंकि उनकी पार्टी का आधार भी रेड्डी वोट है। इसे टालने का रास्ता यह निकला है कि उनकी पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी और कांग्रेस का समर्थन करेगी। चुनाव के बाद फैसला होगा कि उनकी क्या भूमिका होगी। कांग्रेस के नेता लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी की बड़ी भूमिका देख रहे हैं। अगर तेलंगाना में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो शर्मिला के जरिए पार्टी जगन मोहन रेड्डी से भी संपर्क करेगी।

महिला आरक्षण और दो बड़ी पार्टियों का पाखंड

पिछले दिनों संसद में पारित हुए महिला आरक्षण कानून में कई शर्तें हैं, जिनके चलते इस कानून को लागू होने में अभी कई साल लग जाएंगे। फिर भी उम्मीद की जा रही थी कि जब तक यह कानून लागू नहीं होता तब तक दोनों पार्टियां चुनाव में उसी अनुपात में महिलाओं को टिकट देगी, जिस अनुपात में आरक्षण लागू होने के बाद देना है, यानी 33 फीसदी। अभी पांच राज्यों में 679 विधानसभा सीटों पर चुनाव हो रहा है, जिनमें से राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की 520 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है। बाकी दोनों राज्यों तेलंगाना और मिजोरम में भी दोनों पार्टियां लड़ रही हैं। पांचों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस ने महिलाओं को उनकी आबादी या आरक्षण के प्रावधान के अनुपात में बहुत कम टिकट दिए हैं। छत्तीसगढ़ की 90 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने 14 यानी करीब 15 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए हैं जबकि कांग्रेस ने महज तीन टिकट। यानी 33 फीसदी की जगह 3.3 फीसदी। इसी तरह मध्य प्रदेश की 230 सीटों में से भाजपा ने 28 और कांग्रेस ने 30 यानी 12-13 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए हैं। राजस्थान की 200 सीटों में से भाजपा ने 20 यानी 10 फीसदी और कांग्रेस ने 28 यानी 14 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए हैं। तेलंगाना की 119 सीटों में भाजपा ने 14 और कांग्रेस 11 टिकट महिलाओं को दिए हैं, जबकि मिजोरम की 40 विधानसभा सीटों में भाजपा ने चार और कांग्रेस ने दो सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारे हैं। महिलाओं की हिस्सेदारी की इस आंकड़े से दोनों बड़ी पार्टियों की पोल खुलती है और पता चलता है कि देश के नेताओं की कथनी और करनी में कितना ज्यादा अंतर होता है।

बिहार में भाजपा का यादवों से मोहभंग

भाजपा ने बिहार में यादव राजनीति पर यू टर्न लिया है। पिछले 10 साल से भाजपा बिहार में किसी तरह से लालू प्रसाद के यादव वोट बैंक में सेंध लगाने की राजनीति कर रही थी। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने पर इसी राजनीति के तहत रामकृपाल यादव को केंद्र में मंत्री बनाया गया। फिर यादव समाज के नित्यानंद राय प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष हुए। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव भूपेंद्र यादव को बिहार का प्रभारी बनाया गया। बाद में नित्यानंद राय केंद्र में गृह राज्यमंत्री बने और झारखंड की अन्नपूर्णा देवी को भी केंद्र में राज्यमंत्री बनाया गया। भाजपा 2015 में जब जनता दल (यू) से अलग होकर विधानसभा का चुनाव लड़ी तो बड़ी संख्या में यादवों को टिकट भी दिए। लेकिन उसके सारे जतन नाकाम रहे। इसीलिए अब पार्टी ने यादव वोट की उम्मीद छोड़ दी है और इसीलिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मुजफ्फरपुर में पार्टी की रैली में बिहार की जाति गणना पर सवाल उठाते हुए कहा कि यादव और मुसलमान की आबादी बढ़ा-चढ़ा कर बताई गई है। गौरतलब है कि बिहार की जाति गणना के मुताबिक यादव आबादी 14.2 फीसदी है, जबकि मुस्लिम आबादी 17.8 फीसदी है। वैसे भी आजादी के बाद से माना जाता रहा है कि बिहार में यादव आबादी 14 फीसदी है। जाति गणना में भी इतनी ही आबादी बताई गई है। फिर भी अमित शाह ने मुसलमानों के साथ जोड़ कर यादव आबादी की संख्या पर सवाल उठाया है। एक साथ मुस्लिम और यादव यानी राजद के 'माई' (MY) समीकरण पर सवाल उठाना इस बात का संकेत है कि भाजपा मान रही है कि उसे यादव वोट नहीं मिलेगा। इसलिए वह मुस्लिम के साथ साथ यादव को भी निशाने पर ले रही है ताकि गैर यादव वोटों को अपनी तरफ लुभाया जा सके। बिहार से लोकसभा में अभी भाजपा के तीन यादव सांसद हैं- नित्यानंद राय, रामकृपाल यादव और अशोक यादव। अमित शाह के भाषण के बाद इन नेताओं के लिए अपने समुदाय का वोट लेना मुश्किल होगा, जिससे इन तीनों नेताओं की राजनीति भी कमजोर होगी।

राजस्थान में आलाकमान के शिकार हुए नेता

वैसे तो कांग्रेस और भाजपा की चुनावी रणनीति में बहुत बड़ा फर्क है। राजस्थान में कांग्रेस की टिकटों से लेकर चुनाव प्रचार तक का अधिकतर फैसला पार्टी के प्रदेश नेतृत्व ने किया। इसके उलट भाजपा में ज्यादातर फैसले आलाकमान ने किए। जहां जरुरत हुई वहां प्रदेश के नेताओं को शामिल किया गया लेकिन किसी मामले में उनको वीटो का अधिकार नहीं था। हालांकि उम्मीदवारों की पहली सूची जारी होने के बाद भाजपा ने प्रदेश के नेताओं खासकर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को थोड़ी तरजीह दी। फिर भी पार्टी आलाकमान ने उनके कई करीबी नेताओं का टिकट काट दिया। दूसरी ओर कांग्रेस में सब कुछ प्रदेश नेतृत्व ने तय किया फिर भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करीबियों का टिकट आलाकमान ने काट दिया। भाजपा आलाकमान के शिकार बने नेताओं में तो कई बहुत बड़े नेता हैं। दो तो प्रदेश अध्यक्ष रहे नेता हैं- अशोक परनामी और अरुण चतुर्वेदी। दोनों वसुंधरा राजे के करीबी हैं। दोनों को इस बार टिकट नहीं मिला। इसी तरह कैलाश मेघवाल, यूनुस खान, राजपाल सिंह शेखावत जैसे वसुंधरा के करीबी नेताओं को भी टिकट नहीं मिला। कांग्रेस में मुख्यमंत्री गहलोत के दो करीबियों का टिकट आलाकमान ने काट दिया। पिछले साल मल्लिकार्जुन खरगे और अजय माकन को आलाकमान ने जयपुर भेजा था, तब कुछ नेताओं ने विधायकों की समानांतर बैठक बुला ली थी। उसमें शांति धारीवाल, महेश जोशी और धर्मेंद्र राठौड़ का नाम मुख्य था। इनमें से महेश जोशी और राठौड़ का टिकट पार्टी आलाकमान ने काट दिया। धारीवाल किसी तरह से टिकट पाने में कामयाब रहे।

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