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ख़बरों के आगे-पीछे: गहलोत, कमलनाथ और बघेल का क्या होगा?

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन अपने साप्ताहिक कॉलम में गहलोत, कमलनाथ और बघेल के भविष्य, भाजपा के क्षत्रप, नोटा से नीचे AAP, भाजपा सांसदों की छंटनी और पन्नू मामले समेत कई ख़बरों का विश्लेषण कर रहे हैं।
Ashok Gehlot
फ़ोटो : PTI

गहलोत, कमलनाथ और बघेल का क्या होगा?

जिन तीन राज्यों में कांग्रेस पार्टी चुनाव हारी है वहां के दिग्गज कांग्रेस नेताओं का पार्टी क्या उपयोग करेगी? राजस्थान में अशोक गहलोत, मध्य प्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ये तीनों विधानसभा का चुनाव जीते हैं। लेकिन चर्चा है कि इनमें से किसी को विधायक दल का नेता नहीं बनाया जाएगा। यानी पार्टी नेता प्रतिपक्ष के तौर पर नया चेहरा आगे करेगी। इन तीनों को प्रदेश संगठन मे भी कोई जिम्मेदारी नहीं मिलनी है। सो, अब आगे ये नेता क्या करेंगे? इनके अलावा कुछ और बड़े नेता है, जैसे मध्य प्रदेश मे दिग्विजय सिंह, राजस्थान में सीपी जोशी, छत्तीसगढ़ में टीएस सिंहदेव, ताम्रध्वज साहू आदि। पार्टी को इनकी भी भूमिका तय करनी है। आमतौर पर कांग्रेस में परंपरा रही है कि राज्यों में चुनाव हारने के बाद पूर्व मुख्यमंत्रियों या बड़े नेताओं को केंद्रीय टीम में जगह मिलती है। भाजपा में भी ऐसा ही होता है। वहां पूर्व मुख्यमंत्रियों को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया जाता है, जबकि कांग्रेस में महासचिव बनाने की परंपरा रही है। लेकिन कमलनाथ और गहलोत की उम्र भी बहुत ज्यादा हो गई है। सो, संभव है कि कार्य समिति में इन नेताओं की जगह बनी रहे। बघेल जरूर अभी कोई बड़ी भूमिका निभाने में सक्षम हैं। हो सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व नेताओं को अगले साल लोकसभा चुनाव लड़ने को कहे। इतने बड़े नेता अगर लोकसभा का चुनाव लड़े तो पार्टी के लिए अच्छा ही होगा।

भाजपा में तीन क्षत्रपों का सूरज अस्त!

भाजपा में माना जा रहा है कि चुनाव वाले तीन राज्यों में पार्टी के पुराने क्षत्रपों का सूरज अस्त हो गया है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में 2003 में तीन क्षत्रप उभरे थे। उसके थोड़े दिन पहले ही गुजरात मे एक मजबूत क्षत्रप के तौर पर नरेंद्र मोदी स्थापित हुए थे। उसके थोड़े दिन बाद मध्य प्रदेश में उमा भारती व शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह नेता बने थे। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इन राज्यों का पहला चुनाव 2018 में हुआ था और भाजपा इन क्षत्रपों के नाम और काम पर चुनाव लड़ी थी और हार गई थी। इसीलिए इस बार तीनों क्षत्रपों को किनारे करके नरेंद्र मोदी के नाम पर पार्टी ने चुनाव लड़ा और ऐतिहासिक जीत हासिल की। इसीलिए माना जा रहा है कि राज्यों में अब पुराने क्षत्रपों को किनारे कर दिया जाएगा। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि पांच महीने बाद लोकसभा के चुनाव है, इसलिए मोदी फिलहाल कोई जोखिम नहीं लेना चाहेंगे और लोकसभा चुनाव के बाद ही बदलाव करेंगे। पक्के तौर पर कोई नहीं बता सकता है कि मोदी के मन में क्या है और वे किसे मुख्यमंत्री बनाएंगे लेकिन इतना तय हो गया कि जीत उनकी है, उनके नाम की है, उनके प्रचार की है। क्षत्रपों की भूमिका बहुत सीमित रही है। संभव था कि पार्टी उनके नाम पर चुनाव लड़ती तो ऐसे नतीजे नहीं आते। इसीलिए मोदी ने अपनी साख दांव पर लगाई। इसलिए वे जिसे चाहेंगे उसे मुख्यमंत्री बनाएंगे। कोई उनके फैसले पर सवाल नहीं उठा सकता है।

राजस्थान से सबक लेना होगा कांग्रेस को

विपक्षी गठबंधन 'इंडिया’ में शामिल पार्टियां ज्यादा सीट लेने के लिए राजस्थान के नतीजों की मिसाल देंगी। गौरतलब है कि पांच राज्यों में सबसे नजदीकी मुकाबला राजस्थान में ही रहा। वहां भले ही भाजपा को 115 और कांग्रेस व उसकी सहयोगी रालोद को 70 सीटें मिली हैं लेकिन वोट प्रतिशत में ज्यादा फर्क नहीं है। कांग्रेस सिर्फ दो फीसदी वोट से भाजपा से पीछे रही। राजस्थान में भाजपा को 41.69 फीसदी और कांग्रेस को 39.53 फीसदी वोट मिले हैं। दोनों के वोट में 2.16 फीसदी का फर्क है। विपक्षी गठबंधन में शामिल अन्य पार्टियों के वोट जोड़ दे तो यह अंतर लगभग खत्म हो जाएगा। सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई एमएल और आम आदमी पार्टी को मिला कर करीब 1.40 फीसदी वोट मिले है। ये सब कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल हैं। हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी को 2.39 फीसदी वोट मिले हैं। कांग्रेस बेनीवाल की पार्टी से तालमेल कर सकती थी लेकिन नहीं किया। अगर सिर्फ उनकी पार्टी का वोट जोड़ दे तो कांग्रेस का वोट भाजपा से ज्यादा हो जाता है। इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी को 1.82 फीसदी वोट मिला है। सबसे दिलचस्प आंकड़ा यह है कि राजस्थान में जिन 199 सीटों पर चुनाव हुआ था उनमें से 44 सीटें ऐसी हैं, जहां किसी तीसरी पार्टी या निर्दलीय को जीत-हार के अंतर से ज्यादा वोट मिले हैं। इन सभी सीटों पर भाजपा जीती और कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही। अगर कांग्रेस ने दूसरी पार्टियों से तालमेल किया होता तो वह इन 44 में से 30 सीटें जीत कर एक सौ सीट तक पहुंच सकती थी। अब कांग्रेस के नेताओं को इसका अफसोस हो रहा होगा। इसीलिए कहा जा रहा है कि विपक्षी पार्टियां इस बात को हाईलाइट करते हुए कांग्रेस को मजबूर करेंगी कि वह लोकसभा चुनाव के लिए सभी छोटी पार्टियों से तालमेल करे।

आम आदमी पार्टी का हार का रिकॉर्ड

आम आदमी पार्टी चुनावों में हार के ऐसे कई रिकॉर्ड बना चुकी है, जिन्हें शायद ही कोई पार्टी तोड़ पाएगी। अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में यानी 2014 में पार्टी ने चार सौ से ज्यादा सीटों पर जमानत जब्त कराने का रिकॉर्ड बनाया था। लेकिन सबसे मजेदार यह है कि राष्ट्रीय पार्टी बनने के बाद चार राज्यों के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने जैसा प्रदर्शन किया है वह भी रिकॉर्ड बनाने वाला है। किसी राष्ट्रीय पार्टी की ऐसी दुर्दशा इससे पहले शायद ही किसी चुनाव में हुई होगी। शायद आम आदमी पार्टी ने समझ लिया है कि वह राष्ट्रीय पार्टी हो गई है तो यह संवैधानिक बाध्यता है कि वह हर जगह चुनाव लड़े। इसीलिए उसने बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारे और हार का रिकॉर्ड बनाया। छत्तीसगढ़ में उसे महज 0.93 फीसदी वोट मिले, जो कि वहां नोटा को मिले 1.26 फीसदी और बसपा को मिले 2.05 फीसदी वोट से कम है। इसी तरह मध्य प्रदेश भी आम आदमी पार्टी ने बड़ी ताकत झोंकी थी। अरविंद केजरीवाल ने कई बार पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को साथ ले जाकर वहां प्रचार किया और रैलियां कीं, लेकिन उसे कुल 0.54 फीसदी वोट मिले, जो कि नोटा को मिले 0.98 फीसदी वोट से कम है। मध्य प्रदेश में बसपा को आम आदमी पार्टी से करीब छह गुना ज्यादा 3.40 फीसदी वोट मिले। राजस्थान में आम आदमी पार्टी को 0.38 फीसदी वोट मिले, जबकि नोटा को 0.96 और बसपा को 1.82 फीसदी वोट मिले। इतनी दुर्गति के बाद भी आम आदमी पार्टी का दावा है कि वह उत्तर भारत की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है!

भाजपा में सांसदों की छंटनी शुरू

पिछले कई महीनों से ऐसी खबरें आ रही थीं कि भाजपा बड़ी संख्या में सांसदों के टिकट काटेगी। अब उस दिशा में छंटनी का काम चुनावी राज्यों से शुरू हो गया है। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा का चुनाव जीतने वाले 12 सांसदों का इस्तीफा हो गया है। इस्तीफा देने वालों में तीन केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं। भाजपा ने तेलंगाना सहित चार राज्यों में कुल 21 सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाया था, जिनमें से 12 जीते और नौ हार गए। इस तरह फिलहाल इन चार राज्यों में मोटे तौर पर 21 सांसदों के टिकट कटना तय हो गया है। इनके अलावा और भी सांसदों के टिकट कट सकते हैं। भाजपा के जानकार सूत्रों कहना है कि परफारमेंस और उम्र के साथ-साथ यह भी देखा जा रहा है कि कोई नेता कितनी बार से लगातार जीत रहा है। लगातार कई बार से जीत रहे उम्रदराज सांसदों के टिकट भी काटे जा सकते हैं। अगले साल लोकसभा के साथ ही ओडिशा विधानसभा का चुनाव होना है। वहां भी आठ में से कुछ सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ाया जा सकता है। उसके बाद तीन राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के विधानसभा चुनाव हैं। इन तीन राज्यों में भी कुछ सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ाया जाएगा। एंटी इन्कम्बैंसी कम करने और युवाओं को आगे बढ़ाने के नाम पर भाजपा बड़ी संख्या में सांसदों के टिकट काटेगी।

पूर्वोत्तर में एक और मुख्यमंत्री पूर्व कांग्रेसी

पूर्वोत्तर में कांग्रेस भले ही साफ हो गई हो लेकिन इसके बावजूद समूचा पूर्वोत्तर कांग्रेस के रंग में रंगता जा रहा है। एक-एक करके सभी राज्यों में कांग्रेस के पूर्व नेता मुख्यमंत्री बनते जा रहे हैं। सबसे ताजा नाम मिजोरम के नए मुख्यमंत्री लालदुहोमा का है। उनकी पार्टी जोरम पीपुल्स मूवमेंट ने राज्य की 40 में से 27 सीटें जीत कर दो-तिहाई बहुमत हासिल किया है। आईपीएस रहे लालदुहोमा राजनीति में आने से पहले इंदिरा गांधी की सुरक्षा के प्रमुख थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में वे पुलिस की नौकरी छोड़ कर कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़े और जीत गए। हालांकि चार साल बाद ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और स्वतंत्र रूप से राजनीति करने लगे। 2019 में उन्होंने अपनी पार्टी बनाई और अब मुख्यमंत्री बन गए हैं। उनसे पहले त्रिपुरा में मानिक साहा मुख्यमंत्री बने। वे भी 2015 में कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में गए थे। पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्य असम में भी कांग्रेस से भाजपा में गए हिमंत बिस्वा सरमा मुख्यमंत्री हैं। इसी तरह अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू भाजपा के मुख्यमंत्री है, जो पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे। मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह भी कांग्रेस में थे और 2016 में भाजपा में शामिल हुए थे। नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो भी कांग्रेस के एससी जमीर की सरकार मे मंत्री रहे थे। उन्होंने कोई दो दशक पहले कांग्रेस छोड़ी थी। अब समूचे पूर्वोत्तर में सिक्किम एकमात्र राज्य है, जहां के मुख्यमंत्री पहले कांग्रेस में नहीं रहे हैं।

दक्षिण में कांग्रेस का दूसरा मुख्यमंत्री भी बाहरी

एक तरफ जहां समूचे पूर्वोत्तर में कांग्रेस के पूर्व नेता मुख्यमंत्री बन रहे हैं तो दूसरी ओर दक्षिण भारत में कांग्रेस को जो दूसरा मुख्यमंत्री बनाने का मौका मिला है वह भी दूसरी पार्टी से आया नेता ही है। सात महीने पहले कांग्रेस ने कर्नाटक में सरकार बनाई थी। वहां सिद्धरमैया मुख्यमंत्री है। अब तेलंगाना में भी कांग्रेस की सरकार बन गई है। कर्नाटक में सिद्धरमैया दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं। वे पहले एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेक्यूलर में थे और 2005 में कांग्रेस में शामिल हुए थे। कांग्रेस ने 2013 में उन्हें मुख्यमंत्री बनाया था। अभी तेलंगाना में कांग्रेस ने रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाया है। वे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं और चुनाव में भी वे अघोषित रूप से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे। वे कामारेड्डी सीट पर मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के खिलाफ भी लड़े थे। हालांकि उस सीट पर चंद्रशेखर राव और रेवंत रेड्डी दोनों ही हार गए। हालांकि रेवंत रेड्डी अपनी पारंपरिक कोडंगल सीट से जीत गए। रेवंत रेड्डी ने अपना राजनीतिक सफर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से शुरू किया था। वे पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे। बाद में वे तेलुगू देशम पार्टी में चले गए और महज छह साल पहले 2017 में कांग्रेस में शामिल हुए। सिर्फ छह साल के भीतर वे सांसद हुए, प्रदेश अध्यक्ष हुए और अब मुख्यमंत्री बन गए हैं।

पन्नू मामले में भारत बचाव की मुद्रा में क्यों?

खालिस्तानी अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर के मामले में भारत ने कनाडा के खिलाफ जैसे आक्रामक तेवर दिखाए थे वे अभूतपूर्व थे। प्रधानमंत्री जस्टिस ट्रूडो के बयान के बाद भारत कनाडा से राजनयिक संबंध खत्म करने की कगार पर पहुंच गया था। कनाडा के 40 से ज्यादा राजनयिक भारत से वापस भेजे गए और वीजा सेवा पूरी तरह से बंद कर दी गई, जो अब वापस बहाल हुई है। लेकिन वहीं खालिस्तानी आतंकवादी गुरपतवंत सिंह पन्नू के मामले में भारत पूरी तरह से बचाव की मुद्रा में है। वह अमेरिका के सामने कनाडा के मुकाबले आंशिक आक्रामकता भी नहीं दिखा रहा है, जबकि अमेरिका ने भी भारत पर बिल्कुल वही आरोप लगाए हैं, जो कनाडा ने लगाए हैं। कनाडा ने कहा था कि भारतीय एजेंसियों ने निज्जर को मरवाया और अमेरिका ने कहा है कि भारतीय एजेंसियों ने पन्नू को मरवाने की कोशिश की, जिसे अमेरिका के जासूसों ने नाकाम कर दिया। भारत सरकार क्यों नहीं अमेरिका से पूछ रही है कि वह पन्नू पर कार्रवाई क्यों नहीं करती? पन्नू कोई अलगाववादी विचारक नहीं है। वह आतंकवादी है, जिसने कुछ दिन पहले ही धमकी दी थी कि एयर इंडिया के विमानों को उड़ा दिया जाएगा या उनको हाईजैक कर लिया जाएगा। इसके बावजूद अमेरिका पन्नू पर कार्रवाई नहीं कर रहा है और उल्टे भारत से पूछ रहा है कि उसने क्यों अमेरिकी नागरिक को मरवाने की साजिश रची। वहां की अदालत में भारतीय नागरिकों पर मुकदमा भी दर्ज हो गया है। भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह बात उठानी चाहिए कि अमेरिका एक आतंकवादी को प्रश्रय दे रहा है। नहीं तो यह माना जाएगा कि कनाडा कमजोर है इसलिए भारत ने उसके साथ अलग बरताव किया और अमेरिका मजबूत है इसलिए उसके साथ अलग बरताव किया जा रहा है।

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