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पश्चिम बंगाल चुनाव : तृणमूल के सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में सुधार के वादे में कितना सच?

सरकारी अस्पताल अपने यहां आने वाले मरीजों की देखभाल करने में संसाधन के लिहाज से सक्षम नहीं हैं, इस वजह से आम नागरिक निजी अस्पतालों में महंगे इलाज पर भरोसा करने पर विवश हैं। 
पश्चिम बंगाल चुनाव : तृणमूल के सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में सुधार के वादे में कितना सच?
फाइल फोटो 

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के पहले जारी अपने चुनावी घोषणा पत्र में तृणमूल कांग्रेस ने वादा किया है कि वह स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले मौजूदा खर्च को दोगुना कर देगी और डॉक्टरों, नर्सों और पैरा-मेडिकल स्टाफ के पदों को भी दोगुना कर देगी। इस वादे ने सभी को हैरत में डाल दिया।  ममता बनर्जी के नेतृत्व में 10 साल तक रही तृणमूल कांग्रेस सरकार ने तब इन वादों को क्यों पूरा नहीं किया?

पश्चिम बंगाल में सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं-देश के अन्य राज्यों की भांति-अच्छी तरह की देखभाल, उचित आधारभूत संरचना तथा चिकित्सकों और मेडिकल स्टाफ की कमी से जूझ रही है। सरकारी अस्पताल अपने यहां आने वाले मरीजों के इलाज करने के मामले में साधनहीन हैं, जिनके चलते आम नागरिक निजी अस्पतालों में महंगे इलाज कराने पर विवश हैं। 

सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा प्रकाशित तथा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा मुहैया कराये ग्रामीण स्वास्थ्य आंकड़ों को लेकर तैयार की गई स्टैटिस्टिकल ईयर बुक इंडिया 2018 के आंकड़ों के मुताबिक पश्चिम बंगाल राज्य की प्राथमिक और माध्यमिक सेवा प्रणाली दोनों ही कर्मचारियों और अपर्याप्त आधारभूत संरचना की कमी से जूझती है।

स्वास्थ्य उप केंद्र, जो प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और समुदाय के बीच संपर्क की सर्वाधिक परिधिय और पहला बिंदु हैं, वे पुरुष स्वास्थ्यकर्मियों की कमी से बुरी तरह जूझ रहे हैं। इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड (आईपीएचएस) के अनुसार, प्रत्येक स्वास्थ्य उप केंद्रों में एक महिला स्वास्थ्यकर्मी अथवा सहायक नर्स दाई (एएनएम) और एक पुरुष स्वास्थ्यकर्मी का होना आवश्यक बताया गया है। जबकि पश्चिम बंगाल के स्वास्थ्य उप केंद्रों में महिला स्वास्थ्य कर्मियों और सहायक नर्स दाई की तादाद पर्याप्त है, किंतु यहां पुरुष स्वास्थ्यकर्मियों की भारी कमी है। 

ग्रामीण स्वास्थ्य  सांख्यिकी (आरएचएस)-2018  के अनुसार बंगाल में  10,357  पुरुष स्वास्थ्यकर्मियों की जरूरत है और सरकार ने 9,171 पदों को मंजूरी दे रखी है,  जिनमें केवल 2,848  स्वास्थ्यकर्मी ही पदासीन हैं,  नतीजतन 7,509  स्वास्थ्यकर्मियों की कमी है। 

पूरे राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 913 महिला स्वास्थ्य सहायिकाओं की जरूरत है, लेकिन वर्तमान में 277 ही कार्यरत हैं। इस वजह से अभी 636 महिला स्वास्थ्य सहायिकाओं  यानी 70 फीसदी की कमी बनी हुई है।  राज्य में महिला स्वास्थ्य सहायिकाओं के कुल 461 पद स्वीकृत हैं। 

पुरुष स्वास्थ्य सहायकों की स्थिति तो और भी बुरी है।  हालांकि वांछित सहायकों की तादाद उसके समान ही है, लेकिन स्वीकृत पद 316 से भी कम हैं, जिसमें मात्र 103 पदों पर नियुक्ति की गई है।  इस वजह से 800 स्वास्थ्य सहायकों की कमी बनी हुई है।  लगभग 64 फ़ीसदी पीएचसी केवल एक डॉक्टर के सहारे कार्यरत है, जबकि 85 पीएचसी में एक डॉक्टर तक नहीं है। 

यही स्थिति सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में है.  जो स्वास्थ्य देखभाल  का माध्यमिक स्तर है।  राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम)  ने उल्लेख किया है कि सीएचसी  को चाहिए कि वह ग्रामीण आबादी को  सभी आवश्यक सेवाएं उपलब्ध कराए, जिनमें   सर्जरी, मेडिसिन, ऑब्सटेट्रिक्स और गायनेकोलॉजी,  डेंटल तथा आयुष (AYUSH) की  नियमित और आपातकालीन  देखभाल सेवाएं शामिल हैं। आईपीएचएस,  सीएचसी को नवजात स्थिरीकरण इकाइयाँ, दूसरी तिमाही गर्भावस्था के लिए चिकित्सकीय देखरेख में गर्भापात (एमटीपी) एवं एकीकृत परामर्श और परीक्षण केंद्र (आईसीटीसी)  रक्त संग्रहण और एंटीरेट्रोवायरल थेरेपी (एआरटी) केंद्र होना चाहिए। 

आरएचएस 2018 के अनुसार पूरे राज्य के  सीएचसी  केंद्रों पर 348 सर्जनों की आवश्यकता के बावजूद स्वीकृत पदों की संख्या शून्य है,  और इसलिए किसी भी सर्जन की नियुक्ति नहीं की गई है। 348 प्रसूति विज्ञानियों और स्त्री रोग विशेषज्ञ में से केवल 58 ही सेवारत हैं, लिहाजा 290 चिकित्सकों की भारी कमी बनी हुई है।  348 फिजिशियन की जरूरत है, वहां पर मात्र 42 यानी 12 फ़ीसदी के लगभग ही कार्यरत हैं।  बाल चिकित्सकों की तो  भारी कमी है।  इस क्षेत्र में मात्र 25 डॉक्टर ही हैं और 92.81 फीसद  चिकित्सकों की जरूरत बनी हुई है।  पीएचसी केंद्रों में पूरे राज्य में 1,392 विशेषज्ञ चिकित्सकों की जरूरत है, वहां केवल 125 ही मौजूद हैं और इस तरह से 91 फीसदी कमी बनी हुई है।  यही स्थिति प्रयोगशाला के तकनीशियनों की है। 

जैसा कि सीएचसी और पीएचसी चिकित्सकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं,  लिहाजा सरकारी अस्पतालों में मरीजों की कतार लंबी की लंबी बनी हुई है।  कई बार तो मरीजों को अस्पताल के गेट के बाहर चार-चार घंटे खड़े होकर इंतजार करना पड़ता है, तब वह कहीं रजिस्ट्रेशन काउंटर पर पहुंच पाते हैं।  पश्चिम बंगाल में हरेक एलोपैथिक डॉक्टर पर 10,411.15 लोग हैं, जो प्रति व्यक्ति एक डॉक्टर के राष्ट्रीय औसत 9,085 के बिल्कुल करीब है। पीएचसी और सीएचसी में सुविधाओं की कमी के चलते अस्पतालों में भारी भीड़ रहती है, जिस वजह से लोगों निजी स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं की तरफ मुड़ने पर विवश हुए हैं। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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