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क्या है डिलिमिटेशन और संसद पर क्या पड़ेगा इसका असर?

डिलिमिटेशन इतना ताक़तवर क्यों है कि महिला आरक्षण बिल को भी लागू नहीं किया जा सकता? इससे देश के लोकतंत्र और चुनाव पर क्या असर पड़ता है? जनगणना के साथ इसका क्या संबंध है? दक्षिण भारतीय राज्य इसका विरोध क्यों कर रहे हैं?
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विशेष सत्र के दौरान संसद में सरकार ने महिला आरक्षण बिल पेश किया। लेकिन कहा गया कि ये बिल डिलिमिटेशन के बाद ही लागू हो सकता है यानी वर्ष 2026 के बाद। महिला आरक्षण बिल से शुरू हुई बहस के जरिये डिलिमिटेशन भी चर्चा में आ गया। विशेष सत्र में संसद में गूंजने वाले इस शब्द यानी डिलिमिटेशन का मतलब क्या है? ये इतना ताकतवर क्यों है कि बिल को भी लागू नहीं किया जा सकता? इससे देश के लोकतंत्र और चुनाव पर क्या असर पड़ता है? जनगणना के साथ इसका क्या संबंध है? दक्षिण भारतीय राज्य इसका विरोध क्यों कर रहे हैं? ऐसे बहुत सारे सवाल आपके भी दिमाग में उभर रहे होंगे। आइये, एक करके इनका जवाब तलाशते हैं और समझते हैं कि डिलिमिटेशन क्या है?

क्या है डिलिमिटेशन?

डिलिमिटेशन को हिंदी में परिसीमन कहते है। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार डिलिमिटेशन काअभिप्राय उस प्रोसेस से है जिसके जरिये देश के चुनावी क्षेत्रों (लोकसभा/विधानसभा) यानी कांस्टिचुएंसी की प्रादेशिक क्षेत्रीय सीमाओं का निर्धारण किया जाता है। यानी इसका सीधा संबंध लोकसभा चुनाव क्षेत्र यानी कांस्टीचुएंसी की सीमा निर्धारण से है। जिसका असर लोकसभा/विधानसभा की सीटों की संख्या पर पड़ता है।

डिलिमिटेशन का ये काम एक हाई पावर बॉडी को सौंपा जाता है जिसे डिलिमिटेशन कमीशन या बाउंड्री कमीशन कहा जाता है। इस आयोग के आदेश, कानून की शक्ति रखते हैं और किसी भी अदालत में इन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। इसके आदेशों की प्रतियां लोकसभा और संबंधित राज्यों की विधानसभा के समक्ष रखी जरूर जाती हैं, लेकिन उनमें किसी संशोधन की अनुमति नहीं होती है।

देश में ये कोई पहला परिसीमन नहीं है। इससे पहले भी परिसीम की प्रक्रिया चली है और चार बार परिसीमन कमीशन का गठन किया गया है। परिसीमन अधिनियम-1952 के तहत वर्ष 1952 में, परिसीमन अधिनियम- 1963 के तहत वर्ष 1963 में, परिसीमन अधिनियम-1972 के तहत वर्ष 1973 में और परिसीमन अधिनियम- 2002 के तहत वर्ष 2002 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था। लेकिन इस बीच वर्ष 1976 से डिलिमिटेशन पेंडिंग रहा क्योंकि 1976 में इंदिरा गांधी की सरकार ने वर्ष 2000 तक डिलिमिटेशन पर प्रतिबंध लगा दिया था। इंदिरा गांधी ने डिलिमिटेशन पर प्रतिबंध के साथ ही राज्यों को जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्रोत्साहित भी किया था। वर्ष 2001 में इस प्रतिबंध की मियाद खत्म हुई और इसी वर्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पुनः डिलिमिटेशन लगा दिया जिसकी समय सीमा वर्ष 2026  में खत्म होगी।

कानून मंत्री किरन रजिजू ने एक सवाल के लिखित जवाब में राज्य सभा में बताया है कि डिलिमिटेशन की प्रक्रिया जनगणना के बाद वर्ष 2026 के बाद लागू होगी।

परिसीमन से संबंधित विवाद

डिलिमिटेशन का सीधा संबंध देश की संसद और जनगणना से है। डिलिमिटेशन के आदेश के बाद लेकसभा क्षेत्रों का पुनर्गठन होता है, जिससे लोकसभा सीटों की संख्या पर तो असर पड़ता ही है, साथ ही एग्जिस्टिंग चुनाव क्षेत्र की डेमोग्राफी भी बदलती है। जनसंख्या के आधार पर उचित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जाती है। यानी किसी प्रदेश की जनसंख्या में अगर वृद्धि हुई है तो वहां पर सीटों की संख्या बढ़ जाती है।

क्योंकि इसका सीधा असर लोकतंत्र यानी सीटों की संख्या पर पड़ता है, इसलिए इसे लेकर विवाद रहता है। एक विवाद रहता है कि परिसीमन से वोटिंग पैटर्न प्रभावित होता है। दूसरा विवाद दक्षिण भारतीय राज्यों की तरफ से आता है। कहा जाता है कि इससे लोकसभा में उत्तर और मध्य भारत यानी हिंदी बेल्ट का वर्चस्व बढ़ जाएगा और दक्षिण भारतीय राज्य हाशिये पर पहुंच जाएंगे और उन्हें संसद में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा। दक्षिण भारतीय राज्या आखिर ऐसा क्यों कहते हैं? क्या सचमुच परिसीमन के बाद लोकसभा में दक्षिण भारतीय राज्य हाशिये पर पहुंच जाएगें? क्या लोकसभा में हिंदी बेल्ट का वर्चस्व बढ़ जाएगा?

दक्षिण भारतीय राज्य, हिंदी बेल्ट और परिसीमन

फिलहाल लोकसभा में कुल 543 सीटें हैं। कार्नेगी एंडोवमेंट इंटरनेशनल पीस संस्था के एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2026 के बाद लोकसभा की सीटों की संख्या में भारी फेर-बदल हो सकता है। इस स्टडी के अनुसार अनुमान है कि परिसीमन के बाद यानी 2026 के बाद लोकसभा की सीटें 543 से बढ़कर 846 हो सकती है।

फिलहाल लोकसभा में हिंदी बेल्ट का अनुपात 42%, दक्षिण भारत का अनुपात 24% और अन्य का अनुपात 34% है। स्टडी का अनुमान है कि प्रोजेक्टेड पॉपुलेशन के हिसाब से और डिलिमिटेशन के बाद यानी 2026 के बाद ये अनुपात बदल जाएगा। इसके बाद हिंदी बेल्ट का अनुपात 48%, दक्षिण भारत का अनुपात 20% और अन्य का 32% हो जाएगा। यानी लोकसभा में हिंदी बेल्ट के अनुपात में 6% वृद्धि, दक्षिण भारत के अनुपत में 4% कमी और अन्य के अनुपात में 2% की कमी का अनुमान है।

दक्षिण भारतीय राज्य इस पर सवाल उठा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि क्या उन्हें जनसंख्या नियंत्रण करने की सजा दी जा रही है और जनसंख्या पर काबू न करने वाली हिंदी बेल्ट को इनाम दिया जा रहा है? क्या इसमें कोई सच्चाई है? आखिर हिंदी बेल्ट और दक्षिण भारतीय राज्यों में जनसंख्या की क्या स्थिति है? इसे समझने के लिए आइये, विभिन्न राज्यों के फर्टिलिटी रेट को देखते हैं।

दक्षिण भारतीय राज्यों और हिंदी बेल्ट का फर्टिलिटी रेट

अगर हम हिंदी बेल्ट की तुलना दक्षिण भारतीय राज्यों से करें तो पाएंगे कि हिंदी बेल्ट का फर्टिलिटी रेट ज्यादा है। नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश का फर्टिलीटी रेट 2.4, बिहार का 3, मध्य प्रदेश का 2, राजस्थान का 2 और झारखंड का 2.3 है।

दूसरी तरफ तेलंगाना का 1.8, केरल का 1.8, कर्नाटक का 1.7, तमिलनाडु का 1.8, आंध्र प्रदेश का 1.7 है। आंकड़े स्पष्ट कर रहे हैं कि दक्षिण भारतीय राज्यों ने जनसंख्या को प्रभावशाली ढंग से काबू किया है। आंकड़े ये भी बता रहे हैं कि हिंदी बेल्ट में जनसंख्या वृद्धि दक्षिण भारतीय राज्यों से कहीं ज्यादा है।

तो क्या सचमुच भाजपा लोकसभा में हिंदी बेल्ट का वर्चस्व बढ़ाने की तैयारी कर रही है? क्योंकि भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी दक्षिण भारत में पैठ नहीं बना पा रही है और न ही हिंदुत्व का एजेंडा प्रभावशाली ढंग से चल पा रहा है, तो क्या इस तरह लोकसभा में दक्षिण भारतीय राज्यों को हाशिये पर भेजने की तैयारी है?

MyGovIndia के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से की गई एक पोस्ट के अनुसार पुरानी संसद में मात्र 550 सांसदों के बैठने की व्यवस्था थी जबकि नई संसद में 888 सांसदों के बैठने की व्यवस्था है। तो क्या ये सब इंतजाम परिसीमन को ध्यान में रखकर किए गए हैं? क्या भाजपा इसकी तैयारी बहुत पहले से कर रही है?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रेनर हैं। आप सरकारी योजनाओं से संबंधित दावों और वायरल संदेशों की पड़ताल भी करते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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