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अफ़ग़ानिस्तान पर क्या है अमेरिका-ब्रिटेन की मंशा?

एक तरफ़ अमेरिका और ब्रिटेन और दूसरी तरफ़ रूस और चीन के बीच कुल मिलाकर माहौल बहुत ख़राब है। पाकिस्तान इससे अनजान नहीं हो सकता है।
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चीनी राजदूत वांग यू ने तालिबान के कार्यवाहक विदेश मंत्री मावलवी आमिर खान मुत्ताकी से काबुल में 26 सितंबर, 2021 को  मुलाकात की।

अमेरिका, ब्रिटेन तालिबान से फिर बातचीत की तैयारी में

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने वाशिंगटन पोस्ट में अपनी राय एक लेख के ज़रीए ज़ाहिर की है, यह जानते हुए कि एक महत्वपूर्ण मोड़ आगे आने वाला है, तब-जब बाइडेन प्रशासन तालिबान सरकार की नई हक़ीक़त को ध्यान में रखते हुए अफ़गानिस्तान के प्रति एक स्थायी, टिकाऊ नीति को बनाने का प्रयास कर रहा है।

सर्वोत्कृष्ट रूप से, इमरान खान ने जुलाई में पहले के वाशिंगटन पोस्ट में लिखे अपने तर्क पर फिर से गौर किया है, जिसमें उन्होंने निष्कर्ष निकाला था कि: “मेरा मानना ​​है कि आर्थिक संपर्क और क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ावा देना अफ़गानिस्तान में स्थायी शांति और सुरक्षा की कुंजी है। और आगे कसी भी किस्म की सैन्य कार्रवाई व्यर्थ है।”

बेशक, जून महीने का लेख अगस्त के मध्य में अफ़गानिस्तान पर तालिबान द्वारा किए गए कब्जा से लगभग छह सप्ताह पहले लिखा गया था, लेकिन काबुल में हुई उथल-पुथल वाली घटनाओं के छह सप्ताह बाद भी, उनका तर्क आज भी कहीं अधिक सम्मोहक है। इस बार, इमरान खान ने दृढ़ता के साथ तर्क दिया है कि शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए नई तालिबान सरकार के साथ जुड़ना सही कदम है।

वे तालिबान से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की जुड़ी अपेक्षाओं का समर्थन करते हैं और उन्हें इस बात पर बल देते हुए पूरा करते हैं कि नई सरकार की नीतियों का लाभ उठाने का सबसे अच्छा तरीका "सरकार को प्रभावी ढंग से चलाने के लिए आवश्यक निरंतर मानवीय और विकासात्मक सहायता" का विस्तार करना होगा।

उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर अमेरिका अफ़गानिस्तान को अधर में छोड़ देता है, तो "यह देश को अनिवार्य रूप से मंदी की ओर ले जाएगा। जिससे अराजकता तो फैलेगी लेकिन साथ ही बड़े पैमाने पर पलायन होगा और अंतरराष्ट्रीय आतंक के पुनर्जीवित होने का स्वाभाविक खतरा पैदा हो जाएगा।”

इमरान खान अमेरिका, रूस और चीन के बीच बनी आम सहमति से काफी उत्साहित हैं कि अशरफ गनी के उम्मीदवार संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित नहीं करेंगे। यह एक निहित संकेत है कि कोई भी जमीन पर नई मुसीबत खड़ी करने का इच्छुक नहीं है। तथाकथित 'वैधता के पहलू' को संबोधित करने में यह एक जरूरी और पहला कदम है।

इमरान खान ने तालिबान के खिलाफ प्रतिबंधों या तालिबान सरकार की मान्यता का मुद्दा नहीं उठाया है। यही रूसी और चीनी दृष्टिकोण भी है। विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने शनिवार को न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में मीडिया को संबोधित करते हुए कहा, “इस स्तर पर तालिबान आंदोलन से जुड़ने में सक्षम होने के लिए हमें इसकी (प्रतिबंधों) की कोई आवश्यकता नहीं है। हम सभी उम्मीद करते हैं कि तालिबान खुद के द्वारा किए गए सभी अच्छे वादों को पूरा करेगा।”

लावरोव ने कहा, "तालिबान पर लगाए गए प्रतिबंधों में पर्याप्त संख्या में छूट दी गई है। ऐसा  [अंतर्राष्ट्रीय समुदाय] उनके साथ बातचीत करने करने के उद्देश्य से किया गया है। इसका मतलब है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद तालिबान को अफ़गान समाज के एक अविभाज्य अंग के रूप में मान्यता देती है ...

उन्होंने कहा, 'हमने संपत्तियों/धन को रिहा करने का भी जिक्र किया है। हमें लगता है कि इस मामले पर व्यावहारिक रूप से विचार किया जाना चाहिए... मास्को में सेवारत राजदूत को पिछली सरकार ने राजदूत नियुक्त किया था। कोई भी तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता देने का आग्रह नहीं कर रहा है।”

लावरोव ने जोर देकर कहा, "हम मानते हैं, और हमने शुरू से ही विश्वास किया है कि वहां [अफ़गानिस्तान] जो हुआ है वह एक हक़ीक़त है ... जमीन पर हक़ीक़त तालिबान द्वारा दिए गए बयानों पर आधारित है ... इस समय जो बात सबसे ज्यादा मायने रखती है वह यह कि वे अपने वादों को पूरा करते रहें... तालिबान इस दिशा में आगे बढ़ने का दावा कर रहा है, और वर्तमान सत्ता का ढांचा केवल अस्थायी है। जो सबसे ज्यादा मायने रखता है वह इस बात को  सुनिश्चित करना है कि वे सार्वजनिक रूप से किए गए वादों को पूरा करें ... हम तालिबान को उनके दृढ़ संकल्प में समर्थन करने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे ... आईएसआईएस और अन्य आतंकवादी समूहों से लड़ने के लिए, और यह सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगे कि यह दृढ़ संकल्प कुछ व्यावहारिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करता है।"

वाशिंगटन में अफ़गानिस्तान पर "बाहरी हमलों" के बारे में अब कोई बात नहीं हो रही है। ध्यान अब डिप्लोमेसी में शिफ्ट हो गया है। बाइडेन प्रशासन एक मोड पर पहुँच गया है। दरअसल, यहां इमरान खान की कहानी से असहमत होना मुश्किल है।

इस बीच, अगले सप्ताह अमेरिकी उप-विदेश मंत्री वेंडी शर्मन के क्षेत्रीय दौरे में ताशकंद, नई दिल्ली और इस्लामाबाद भी शामिल हैं। शर्मन बाइडेन टीम में चतुर वार्ताकार हैं – वार्ता को आगे बढ़ाने में उनका धैर्य, बिना किसी नखरे के साथ, अत्यधिक कुशल पेशेवर है। जाहिर है, अफ़गानिस्तान उसका मुख्य एजेंडा है।

ताशकंद को शर्मन के यात्रा कार्यक्रम में शामिल करना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उज्बेकिस्तान ने यह संकेत देने के मामले में कदम बढ़ाया है कि वह न केवल बातचीत करने के लिए बल्कि तालिबान सरकार के साथ व्यापार करने के लिए भी तैयार है। केवल पिछले हफ्ते, अफ़गानिस्तान पर उज़्बेक राष्ट्रपति के विशेष प्रतिनिधि, इस्मातुल्ला इरगाशेव ने "भोजन और चिकित्सा आपूर्ति" से लदे जहाज को रुख़सत करने के लिए अफ़गानिस्तान के साथ सड़क और रेल लिंक की बहाली का आह्वान किया था।

उज्बेकिस्तान व्यावहारिक रूप से अफ़गानिस्तान से मध्य एशिया, चीन और यूरोप में प्रवेश द्वार और एक व्यवहार्य पारगमन मार्ग है। गौरतलब है कि पिछले हफ्ते ब्रिटेन के सशस्त्र बलों के मंत्री जेम्स हेप्पी ने उज़्बेक-अफ़गान सीमा पर ट्रांजिट पोर्ट टर्मेज़ का दौरा किया था।

क्षेत्रीय संपर्क का एक और आयाम है। जुलाई में, बाइडेन प्रशासन ने एक चार देशों के  राजनयिक मंच की घोषणा की थी जो "क्षेत्रीय संपर्क बढ़ाने पर केंद्रित" था, यह राजनीतिक आकलन पर आधारित है कि अफ़गानिस्तान में शांति और क्षेत्रीय संपर्क "पारस्परिक रूप से मजबूत हो रहे हैं।" चारों देशों ने "आने वाले महीनों में आपसी सहमति से इस सहयोग के तौर-तरीकों को निर्धारित करने के लिए दोबारा मिलने पर सहमति व्यक्त की थी।"

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में - विशेष रूप से संयुक्त राष्ट्र में - इस विचार की स्वीकृति बढ़ रही है कि तालिबान सरकार को शामिल करना उसे बहिष्कृत करने की तुलना में कहीं अधिक बेहतर दृष्टिकोण है। 1990 के दशक में तालिबान सरकार को मान्यता देने से इनकार करने और सरदारों के वर्चस्व वाली रब्बानी सरकार को देश की सीट देने से इनकार करने का रास्ता उल्टा साबित हुआ था।

तालिबान को मानवीय सहायता से परे वैधता या समर्थन देने से पहले अंतरराष्ट्रीय समुदाय को कई प्रतिबद्धताओं पर एकजुट रहना चाहिए, बाइडेन प्रशासन का यह रुख किसी के द्वारा विवादित नहीं है, लेकिन ऐसी गलतफहमी होगी कि वाशिंगटन आगे का रोड मैप तय करना शुरू कर सकता है।

हालाँकि, वाशिंगटन द्वारा इस बात को भी स्वीकार किया गया है कि अमेरिका तालिबान का लाभ उठा सकता है, जैसा कि विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने शुक्रवार को संवाददाताओं से कहा, “लेकिन जब हम समन्वय और सद्भाव में दुनिया भर में सहयोगी और भागीदारों के साथ काम करते हैं तो हमारे पास और अधिक लाभ मिलने की गुंजाइश होती है।” इसके विपरीत, तालिबान की ओर से भी, उनका अब तक का संयमित व्यवहार मान्यता की उनकी इच्छा का संकेत देता है।

इस्लामाबाद में ब्रिटिश विदेश सचिव एलिजाबेथ ट्रस द्वारा आज की वार्ता के बाद तालिबान को फिर से शामिल करने की प्रवृत्ति तेज हो सकती है। ब्रिटिश विदेश कार्यालय ने कहा कि दो शीर्ष राजनयिकों ने अफ़गानिस्तान की स्थिति पर चर्चा की और एक समन्वित दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को एक साथ काम करने की जरूरत पर भी चर्चा की है।  उन्होंने अफ़गानिस्तान को आतंक के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह बनने से रोकने और आम अफ़गानों को महत्वपूर्ण मानवीय सहायता प्रदान करने की अपनी प्रतिबद्धता की फिर से पुष्टि की है।"

छह अक्टूबर को शर्मन दो दिवसीय दौरे पर इस्लामाबाद जाएंगे। ब्रिटेन वाशिंगटन से एक सक्रिय नीति तैयार करने का आग्रह कर रहा है और पिछले हफ्ते न्यूयॉर्क में पी-5 की बैठक के पीछे रूस और चीन के साथ फिर से जुड़ने का दिमाग उन्ही का था, क्योंकि पहले जी-7 में इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया था।

गतिरोध अमेरिका और ब्रिटेन के अनुकूल नहीं है। चीनी राजदूत वांग यू ने तालिबान के विदेश मंत्री मौलवी आमिर खान मुत्ताकी से पिछले एक पखवाड़े के दौरान दो बार मुलाकात की है, जिसमें रविवार की बैठक भी शामिल है। इससे पहले रूस, चीन और पाकिस्तान के विशेष दूतों ने संयुक्त रूप से तालिबान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री मुल्ला हसन अखुंद से मुलाकात की थी।

ज़ाहिर है, लंदन और वाशिंगटन में कुछ नाराज़गी है कि चीन-रूसी कारवां सिल्क रोड पर चल रहा है जबकि वे न्यूयॉर्क में फंस गए हैं। ऐसा तब होता है जब आप ऊंचे घोड़े की सवारी करते हैं। एक तरफ अमेरिका और ब्रिटेन और दूसरी तरफ रूस और चीन के बीच का माहौल बहुत खराब है। पाकिस्तान इससे अनजान नहीं हो सकता है।

एम.के भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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