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गांव-घर लौटे मज़दूरों का क्या है हाल? : इलाहाबाद और आसपास से ख़ास रपट

मज़दूर सैकड़ों किलोमीटर की मुसीबत और कष्ट से भरी यात्रा कर गांव तक तो पहुंच गए लेकिन अब वे अपने गांव में नहीं घुसने पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के कई गांवों में नाकाबंदी कर दी गयी है।
गांव-घर लौटे मज़दूरों का क्या है हाल
Image courtesy: Gaon Connection

कोरोना महामारी के भय से पूरी दुनिया एक तरह से ठहर गयी है। कोरोना के फैलाव को रोकने के लिए अधिकांश देशों में सरकारें लॉक डाउन कर चुकी हैं। इसी कड़ी में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इक्कीस दिन का लॉक डाउन यह कहते हुए किया गया कि आपके घरों के बाहर लक्ष्मण रेखा खींच दी गयी है। रामायण में लक्ष्मण रेखा एक ऐसी घटना है जहां से यह कहानी मोड़ लेती है। लक्ष्मण रेखा के मूल में यही है कि उसे लांघने वाला जलकर राख हो जाएगा। तो क्या भूख और असहाय होकर जिन करोड़ों मजदूरों ने यह रेखा लांघी है उन्हें जलकर राख हो जाना होगा?

जबसे लॉकडाउन हुआ वर्गों में बंटी हुई इस दुनिया की विषमताएं साफ-साफ नजर आने लगी हैं। समाज में अमीर-गरीब की खाई, मालिक-नौकर, सुविधाभोगी-कामगार वर्ग के बीच के फासले को देखा जा सकता है। जिन करोड़ों मजदूरों, कामगारों के घरों के बाहर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लक्ष्मण रेखा खींची थी वे अब इसे लांघ चुके हैं। इन करोड़ों मेहनतकशों को हाइवे, पगडंडियों और गांव के बाहर स्कूलों, खेतों और खेल के मैदानों में लगे तंबूओं में देखा जा सकता है।

क्या भारत का लॉक डाउन असफल रहा?

भारत सरकार द्वारा कोरोना वायरस को लेकर एहतियात बरतते हुए 24 मार्च की रात 12 बजे से इक्कीस दिन का लॉकडाउन (तालाबंदी) कर दिया गया। सरकार द्वारा इक्कीस दिन का लॉकडाउन इसलिए किया गया, जिससे कोरोना वायरस के संक्रमण को रोका जा सके। यदि जो संक्रमित हैं उनकी पहचान की जा सके। और कोरोना महामारी के फैलाव से देश के अवाम को बचाया जा सके। यह सब तभी संभव था जब जनता के बीच सोशल डिस्टेंसिंग होती। लेकिन इसी बीच दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन के बाहर लाखों गरीब, कामगारों की भीड़ अपने गांव लौटने की जद्दोजहद करती दिखी। यह सवाल खबरों की आपाधापी में खो ही गया कि यदि लाखों गरीब मजदूर, कामगार कोरोना वायरस से संक्रमित हुए होंगे तो उसका जिम्मेवार कौन होगा? वही मज़दूर देश के कोने-कोने में जाएंगे और वहां से संक्रमण फैला तो उसका जिम्मेवार कौन होगा?

प्रवासी मजदूर, कामगार जो हर रोज कुआं खोदते हैं और पानी पीते हैं वे अचानक इक्कीस दिन के लॉकडाउन को सुनकर अजीब तरह की उलझन में फंस गए। उनके सामने दो विकल्प मौजूद थे, वे किराये के कमरे में बिना दाना-पानी के पड़े रहते या गांव चले जाते। लाखों कामगारों ने दूर देस में परिवार से दूर भूख से मरने के बजाय गांव चले जाने का निर्णय किया। दिल्ली सरकार द्वारा मजदूरों को भोजन देने का प्रयास किया गया लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हो पाया। टेलीविजन पर देखा जा सकता था कि हजारों की संख्या में मजदूर एक जगह इकट्ठा होते, सैकड़ों मीटर लम्बी लाइन लगाते घण्टों बाद एक प्लेट में खिचड़ी परोसी जाती।

मज़दूरों, कामगारों की खाने के लिए और घर जाने के लिए आनंद बिहार पहुंची भीड़ देखकर दो बातें स्पष्ट हो रही थी कि लॉकडाउन के बाद भी सोशल डिस्टेंसिंग कायम नहीं हो पाई है और दूसरा लॉकडाउन से पहले सरकार द्वारा जो तैयारी करनी चाहिए थी वह नहीं की गई।

मजदूरों, कामगारों को एक जगह इकट्ठा होने से तभी रोका जा सकता था जब अचानक इक्कीस दिन का लॉकडाउन न करके सरकार द्वारा शुरुआती पांच दिन लॉकडाउन किया जाता। इससे प्रवासी कामगार भविष्य में पेट न भरने को लेकर उस तरह से भयभीत न होते जिस तरह से इक्कीस दिन का लॉक डाउन सुनकर वे भयभीत हुए। इन पांच दिनों में सरकार को मुहल्ले-मुहल्ले अनाज पहुँचाने और गली-गली में लंगर खोलने का मौका मिल जाता। लेकिन बिना किसी तैयारी एवं योजना के इक्कीस दिन के लॉकडाउन प्रवासी मजदूरों के सम्मुख कई तरह की चुनौतियां पैदा कर दी हैं।

प्रवासी मजदूरों के सम्मुख समस्याएं

देश भर के शहरों से प्रवासी कामगारों का पलायन हो रहा है। मज़दूर, कामगार अपने परिवार के साथ सैकड़ों किलोमीटर पैदल, साइकिल, बस, बस की छतों पर बैठकर, खिड़कियों से लटक कर यात्रा कर रहे हैं। मज़दूर सैकड़ों किलोमीटर की मुसीबत और कष्ट से भरी यात्रा कर गांव तक तो पहुंच गए लेकिन अब वे अपने गांव में नहीं घुसने पा रहे हैं। उत्तर-प्रदेश के कई गांवों में नाकाबंदी कर दी गयी है। गांव में किसी बाहरी को घुसने नहीं दिया जा रहा है। बाहर से आये मजदूरों को गांव से बाहर प्राथमिक पाठशाला में रोका जा रहा है।

उन्हें 14 दिन तक गांव से बाहर रहने के लिए बोल दिया गया है। इलाहाबाद, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, जौनपुर जैसे कई जिलों में मजदूरों को गांव के बाहर रोका गया है। इन मजदूरों को जांच के लिए गांव से शहर लाया जा रहा है। कहीं कहीं तो डॉक्टर नाम लिखकर और घर में रहने की सलाह देकर छोड़ दे रहे हैं। हिंदुस्तान की रिपोर्ट के अनुसार इलाहाबाद क्षेत्र फूलपुर, मांडा सीएचसी, कोरांव, सैदाबाद, नवाबजगंज, बहरिया जैसी कई जगहों पर परदेस से आये लोगों का जांच केंद्र पर जमावड़ा लगने से कई जगह हंगामा कटा और पुलिस बुलानी पड़ी।

प्रतापगढ़ के एक गांव में दिल्ली से आये कुछ लोगों से हमने बात की। वे दिल्ली के एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में काम करते हैं। कुछ लोग दो दिन पहले दिल्ली से गांव तो पहुंच गए लेकिन घर नहीं जा पाए। इन्हें प्रधान द्वारा गांव के बाहर प्राथमिक विद्यालय में रोका गया है। दिल्ली से आये कामगारों ने कहा कि वे अपनी पहचान बाहर नहीं लाना चाहते हैं। इन्हें डर है कि नाम बाहर आने से बेइज्ज़ती होगी, लोग इनके साथ भेदभाव करेंगे।

बातचीत में राजीव (बदला हुआ नाम) बाहर से आये लोगों से दूर रहने की हिदायत देते हुए कहते हैं कि दिल्ली में बड़े-बड़े लोग सेठ और सरदार लोग केला, पराठा बांट रहे हैं लेकिन गांव में देखते ही लोग रास्ता बदल ले रहे हैं। इससे अच्छे आदमी तो वहां दिल्ली में हैं।

राजीव की बात से हम समझ सकते हैं राजीव को गांव के बाहर रोकना कहीं न कहीं उन्हें अलग-थलग होने या अपमानित होने का भान करा रहा है।

प्रवासी मजदूरों पर आने वाला संकट

प्रवासी मजदूर, कामगार जो संकट अभी झेल रहे हैं वह तो टेलीविजन, अख़बार में दिख रहा है। यानी अभी का संकट प्रत्यक्ष है जिसे आस-पास देखा जा सकता है। लेकिन आने वाले कल में प्रवासी मजदूरों, कामगारों पर क्या संकट पड़ने वाला है? यह एक गम्भीर सवाल है। अभी राज्य सरकारें अपने-अपने राज्य में मजदूरों, महिलाओं, बुजुर्गों को मदद पहुंचाने का आश्वासन दे रही हैं लेकिन प्रवासी मजदूर, कामगार जिसमें शहर में ठेला खींचने वाले, रिक्शा चलाने वाले, गुमटी खोलने वाले, मोची, सफाई का काम करने वाले शामिल हैं। इन प्रवासी मजदूरों के लिए सरकार की तरफ से किसी प्रकार की योजना की घोषणा नहीं की गई है, न ही सरकार के पास इस समुदाय का ठीक-ठीक कोई आंकड़ा ही मौजूद है।

अब यहां यह सवाल उठना लाज़मी है कि जिन्हें सरकार की तरफ से कोई मदद मिलने की उम्मीद नहीं है, वे आगे किस परिस्थिति में अपने जीवन का निर्वहन करेंगे?

ग्रामीण मजदूर एक खास तबके से ताल्लुक रखते हैं। जिसे हम दलित समाज के रूप में जानते हैं। दलित समाज से लोग जैसे-जैसे गांवों से बाहर जाने लगे वैसे-वैसे सबल होने लगे। गांव के उच्च वर्ग द्वारा जारी शोषण से मुक्ति की तरफ कदम बढ़ाने लगे। लेकिन आज वे एक विदेशी महामारी के प्रकोप के चलते दुबारा गांवों की ओर लौट आये हैं। अब सम्भावना इस बात की भी है कि लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी प्रवासी मजदूर कुछ महीने गांवों में ही रुकेंगे। रुकेंगे ही नहीं बल्कि उनके वापस लौटने में एक मूलभूत परिवर्तन भी आएगा।

इस सन्दर्भ में समाज विज्ञानी डॉ. रमाशंकर सिंह कहते हैं कि लॉकडाउन के बाद वे (प्रवासी मजदूर) फिर शहर जाएंगे। लेकिन इस बार शायद ही पति-पत्नी साथ जाएं। वहां इन्होंने गृहस्थियाँ बसायी थीं, भले ही किसी पुल के नीचे रहे हों, चाहे पाइप में रहे हों या झुग्गी झोपड़ी में रह रहे हों, अब उसे फिर से बसाना आसान न होगा। इस बार सबसे ज्यादा दिक्कत शहर से वापस आए वृद्धों, बच्चों और स्त्रियों को होगी, वे शायद गाँव में ही रह जाएं।

वर्तमान समय में अन्य समुदायों की अपेक्षा अधिक समस्याओं का सामना करने वाला मज़दूर वर्ग चाहे वह प्रवासी हो या ग्रामीण। आने वाले दिनों में भी उसे जीवन निर्वाह के लिए अधिक परिश्रम करना पड़ेगा। रमाशंकर सिंह आगे कहते हैं, "यदि भारत को कोरोना के बाद पुनर्निर्माण करना है तो इस बार मजदूर को सम्मान, सुरक्षा और उसके मेहनत की कीमत देनी ही होगी, देश को उसे भरोसा दिलाना होगा। आप देश को केवल जीडीपी के स्तर पर नहीं नाप सकते हैं। जीडीपी बढ़ तो रही थी लेकिन हम एक झटका नहीं झेल पाए, और सब बिखरता चला गया है।

यह पता चल गया कि मजदूरों के लिए शहर में तो अस्पताल ही नहीं है। उसके लिए किसी आपातकाल में कोई व्यवस्था नहीं है। मजदूर को यह व्यवस्था और विश्वास दिलाना ही आने वाले समय का सबसे बड़ा मुद्दा होगा।" फिलहाल सरकार ने कुछ अच्छे उपाय किए हैं और यदि इसे उचित ढंग से लागू किया गया तो संकट से निपटने में थोड़ी मदद मिल सकती है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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