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बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के बाद अब क्या करेंगे राज्यपाल कोश्यारी?

अदालत ने राज्यपाल को उनके संवैधानिक कर्तव्य की याद दिलाई है और उसका पालन करने की नसीहत दी है।
राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी

राज्यपालों की मनमानी या केंद्र सरकार के इशारों पर उनके काम करने की कहानी वैसे तो बहुत पुरानी है, मगर केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद यह सिलसिला तेज हो गया है। गैर भाजपा शासित राज्यों के राज्यपालों में तो मानों होड़ लगी हुई है कि कौन कितना ज्यादा राज्य सरकार को परेशान कर सकता है या उसके काम में अड़ंगे लगा सकता है। फिलहाल इस मामले में महराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी सबसे आगे हैं। वे जब से सूबे राज्यपाल बने हैं तब से ही राज्यपाल की तरह नहीं, बल्कि नेता प्रतिपक्ष की तरह काम कर रहे हैं। उनकी मनमानी का आलम यह है कि न्यायपालिका को उन्हें उनके संवैधानिक कर्तव्यों की याद दिलाना पड रही है।

यह सही है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने कर्तव्यों या फैसलों को लेकर न्यायपालिका के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं, लेकिन महाराष्ट्र विधान परिषद में मनोनयन वाले कोटे को भरने के मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए साफ-साफ शब्दों में राज्यपाल कोश्यारी को उनके संवैधानिक कर्तव्यों की याद दिलाई है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र विधान परिषद में मनोनयन कोटे को भरने के लिए राज्य सरकार ने पिछले साल नवंबर में 12 नाम कैबिनेट की मंजूरी के बाद राज्यपाल को भेजे थे।

महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देश के किसी भी राज्य के इतिहास में इतने लंबे समय तक विधान परिषद में सदस्यों के मनोनयन को लटकाए रखने का संभवतया यह पहला मामला है। हालांकि संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है कि राज्यपाल को किसी निर्धारित समय के भीतर राज्य सरकार की सिफारिश पर फैसला करना ही होगा। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं हो जाता कि राज्यपाल को सरकार की सिफारिशों को अनिश्चितकाल तक लटकाए रखने का अधिकार मिल गया हो।

नियमों और परंपराओं के मुताबिक राज्यपाल को उन नामों के प्रस्ताव को मंजूरी दे देनी चाहिए थी या किन्हीं नामों पर अगर उन्हें आपत्ति थी तो वे अपनी टिप्पणी के साथ उस प्रस्ताव को पुनर्विचार के लिए राज्य सरकार को लौटा सकते थे। लेकिन नौ महीने हो गए हैं और राज्यपाल कोश्यारी ने न तो उन नामों को मंजूरी दी है और न ही उन नामों का प्रस्ताव राज्य सरकार को लौटाया है। राज्यपाल की इसी मनमानी को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी।

अमूमन राष्ट्रपति या राज्यपाल के जुड़े किसी भी मामले में अदालत उसी स्थिति में हस्तक्षेप करती है जब राष्ट्रपति या राज्यपाल के किसी फैसले से संवैधानिक संकट पैदा हो जाता है। हालांकि विधान परिषद में मनोनयन कोटे को भरने में हो रही देरी से संवैधानिक संकट जैसी कोई स्थिति नहीं बन रही है, लेकिन इसके बावजूद हाईकोर्ट ने इस मामले में जो कहा है वह राज्यपाल कोश्यारी को शर्मिंदा करने के लिए काफी है।

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा है, ''हम जानते हैं कि राज्यपाल अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं हैं, लेकिन उनका यह संवैधानिक दायित्व बनता है कि वे राज्य सरकार द्वारा विधान परिषद में मनोनयन के लिए भेजे गए नामों पर यथोचित समय सीमा के भीतर कोई फैसला करें।’’ जाहिर है कि अदालत ने राज्यपाल को उनके संवैधानिक कर्तव्य की याद दिलाई है और उसका पालन करने की नसीहत दी है। यही नहीं, यथोचित समय सीमा के भीतर फैसला करने की सलाह देते हुए हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि नौ महीने बीत चुके हैं और उसके हिसाब से यह यथोचित समय सीमा है। यानी अदालत ने बहुत साफ शब्दों में कहा है कि अब बहुत हो चुका, राज्यपाल अब राज्य सरकार के प्रस्ताव पर फैसला करें। अदालत ने कहा है कि राज्यपाल का यह संवैधानिक कर्तव्य है कि वे बिना देरी किए फैसला करें।

राज्यपाल कोश्यारी ने भले ही इन नामों पर अपना फैसला रोकने का कोई कारण नहीं बताया है, लेकिन उनके इस रवैये को राज्य में सत्तारूढ गठबंधन की तीनों पार्टियों के बीच चल रही खींचतान से जोड़ कर देखा जा रहा है। माना जा रहा है कि अगर अगले कुछ दिनों में किसी वजह से महाविकास अघाडी की सरकार गिर जाती है तो भाजपा की सरकार बनेगी और फिर विधान परिषद में भाजपा अपनी पसंद के 12 सदस्यों को मनोनीत करा सकेगी।

वैसे महाराष्ट्र में यह पहला मौका नहीं है जब राज्यपाल ने राज्य सरकार की सिफारिश को रोका हो। इससे पहले भी वे कई बार राज्य सरकार के मुश्किलें पैदा करने, उसे अस्थिर करने या उसके कामकाज में अनावश्यक बाधा पैदा करने के प्रयास करते रहे हैं। पिछले साल अप्रैल महीने में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने के राज्य सरकार के प्रस्ताव को भी राज्यपाल कोश्यारी ने इसी तरह लटकाए रखा था।

उस समय ठाकरे को संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक अपने शपथ ग्रहण के छह महीने के अंदर यानी 28 मई से पहले अनिवार्य रूप से राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य निर्वाचित होना था। इस सिलसिले में वे 24 अप्रैल को रिक्त हुई विधान परिषद की नौ सीटों के लिए होने वाले द्विवार्षिक चुनाव का इंतजार कर रहे थे। लेकिन कोरोना महामारी के चलते लागू लॉकडाउन का हवाला देकर चुनाव आयोग ने इन चुनावों को टाल दिया था। ऐसी स्थिति मे ठाकरे के सामने एकमात्र विकल्प यही था कि वे 28 मई से पहले राज्यपाल के मनोनयन कोटे से विधान परिषद का सदस्य बन जाए।

विधान परिषद में मनोनयन कोटे की दो सीटें रिक्त थीं। राज्य मंत्रिमंडल ने अप्रैल महीने राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से इन दो में से एक सीट पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को मनोनीत किए जाने की सिफारिश की थी। चूंकि दोनों सीटें कलाकार कोटे से भरी जाना थी, लिहाजा इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मंत्रिमंडल ने अपनी सिफारिश में उद्धव ठाकरे के वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर होने का उल्लेख भी किया था। लेकिन राज्यपाल ने मंत्रिमंडल की सिफारिश पर पहले तो कई दिनों तक कोई फैसला नहीं किया।

बाद में जब उनके इस रवैये की आलोचना होने लगी और सत्तारूढ शिवसेना की ओर से उन पर राजभवन को राजनीतिक साजिशों का केंद्र बना देने का आरोप लगाया गया तो उन्होंने सफाई दी कि वे इस संबंध में विधि विशेषज्ञों से परामर्श कर रहे हैं। उन्होंने यह भी सवाल किया था कि इतनी जल्दी क्या है? यह सब करने के बाद अंतत: उन्होंने मंत्रिमंडल को सिफारिश लौटा दी थी।

राज्य मंत्रिमंडल ने संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक अपनी सिफारिश दोबारा राज्यपाल को भेजी, जिसे स्वीकार करना राज्यपाल के लिए संवैधानिक बाध्यता थी। लेकिन राज्यपाल ने कोई फैसला न लेते हुए मामले को लटकाए रखा था। उनके इस रवैये को लेकर ठाकरे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हस्तक्षेप की गुहार लगानी पडी थी। हालांकि यह मामला किसी भी दृष्टि से प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप करने जैसा नही था, लेकिन प्रधानमंत्री ने ठाकरे से कहा कि वे देखेंगे कि इस मामले में क्या हो सकता है।

प्रधानमंत्री ने अपने आश्वासन के मुताबिक मामले को देखा भी। यह तो स्पष्ट नहीं नहीं हुआ कि उनकी ओर से राज्यपाल को क्या संदेश या निर्देश दिया गया, मगर अगले ही दिन राज्यपाल ने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर विधान परिषद की रिक्त सीटों के चुनाव कराने का अनुरोध किया। उनके इस अनुरोध पर चुनाव आयोग फौरन हरकत में आया।

तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा, जो कि उस समय अमेरिका में थे, ने आनन-फानन में वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए चुनाव आयोग की बैठक करने की औपचारिकता पूरी की और महाराष्ट्र विधान परिषद की सभी नौ रिक्त सीटों के लिए 21 मई को चुनाव कराने का एलान कर दिया। तब कहीं जाकर उद्धव ठाकरे विधान परिषद के सदस्य बन सके। जाहिर है कि प्रधानमंत्री के 'अभूतपूर्व हस्तक्षेप’ से यह पूरी कवायद राज्यपाल की मनमानी को जायज ठहराने के लिए की गई थी।

इसके अलावा भी कई मौकों पर कोश्यारी ने अपने पद की गरिमा और संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन किया है। इस सिलसिले में रात के अंधेरे में राष्ट्रपति शासन हटा कर भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस को सुबह-सुबह ही राजभवन में बुलाकर मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने वाला कारनामा तो जगजाहिर है ही।

बहरहाल सवाल है कि विधान परिषद में 12 सदस्यों के मनोनयन पर हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी अब क्या करेंगे? वे राज्य सरकार की ओर से विधान परिषद में मनोनीत करने के लिए भेजे गए 12 नामों के प्रस्ताव पर कोई फैसला करेंगे या अब भी चुपचाप उसे अपने पास दबाए बैठे रहेंगे? बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश के बाद अब उनके लिए अनिवार्य हो गया है कि वे इस बारे में कोई फैसला करें। या तो वे राज्य सरकार की ओर से प्रस्तावित 12 नामों को मंजूरी दे या फिर वे नामों का प्रस्ताव राज्य सरकार को लौटा दें। अगर वे प्रस्ताव लौटाते हैं तो उसके लिए उन्हें कोई तार्किक कारण बताना होगा।

राज्यपाल इस तर्क के साथ प्रस्ताव सरकार को नहीं लौटा सकते हैं कि सरकार ने मनोनयन वाले कोटे में राजनीतिक लोगों के नाम भेजे हैं। विधान परिषद वाले जिन भी राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकार है, वहां मनोनयन वाले कोटे में राजनीतिक लोगों के नाम राज्यपाल को भेजे गए हैं और उन्हें मंजूरी मिली है। केंद्र सरकार ने भी राज्यसभा में मनोनयन वाले कोटे से राजनीतिक लोगों को राज्यसभा में भेजा है।

कुछ ही दिनों पहले बिहार में तो राज्य सरकार ने विधान परिषद में मनोनयन के लिए सभी 12 नाम राजनीतिक लोगों के भेजे और राज्यपाल ने उन नामों को मंजूरी देने में भी कोई देरी नहीं की। महाराष्ट्र सरकार ने 12 नामों की सूची में कम से कम कुछ साहित्य और कला के क्षेत्र से भी शामिल किए हैं। फिर भी राज्यपाल ने बगैर कोई कारण बताए इन नामों पर अपना फैसला रोक रखा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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