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मुद्दा: मेड, मज़दूर और चौकीदार कहां रहें!

नोएडा, गुरुग्राम, फ़रीदाबाद व ग़ाज़ियाबाद के प्रवासी मज़दूर लौट आए हैं। लेकिन यहां अब उन्हें पहले जैसा वेतन नहीं मिल रहा। उनके रहने के स्थान झुग्गियां उजाड़ दी गई हैं। अब उनके समक्ष एक बड़ी समस्या रहने की भी है।
मुद्दा: मेड, मज़दूर और चौकीदार कहां रहें!
(फाइल फोटो) केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए।

शहरों में बसावट की रफ़्तार तेज़ी से बढ़ रही है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जो प्रवासी मज़दूर शहर छोड़ कर चले गए थे, वे फिर लौटने लगे हैं। क्योंकि गाँव में स्थिति और ख़राब है। वहाँ काम नहीं है और अगर बीमार पड़े तो अस्पताल नहीं हैं। अस्पताल शहरों में हैं। कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर वीरान पड़े हैं। न वहाँ डॉक्टर जाते हैं न कम्पाउण्डर। दस-दस किलोमीटर तक कोई योग्य चिकित्सक नहीं मिलता। झोलाछाप के सहारे कोरोना से कैसे लड़ा जा सकता है।

ये सिर्फ़ बातें हैं, कि किसी को भूखों नहीं मरने दिया जाएगा। इसलिए वे मज़दूर फिर से शहर लौटने लगे हैं। नोएडा, गुरुग्राम, फ़रीदाबाद व ग़ाज़ियाबाद के वे मज़दूर लौट आए हैं। लेकिन यहाँ अब उन्हें पहले जैसा वेतन नहीं मिल रहा। तथा उनके रहने के स्थान झुग्गियाँ उजाड़ दी गई हैं। अब उनके समक्ष एक बड़ी समस्या रहने की भी है। अधिकतर मज़दूरों की पत्नियाँ भी घरों में मेड का काम करती हैं। अब वे घर तलाशें या काम करें। घर के लिए स्थान भी कहाँ उपलब्ध हैं? सरकारी ज़मीन की बाड़ेबंदी कर दी गई है और शहरी नजूल की ज़मीन पर धार्मिक स्थल बन गए हैं।

कभी आपने सोचा है, कि हमारे-आपके घरों में जो मेड काम करती हैं, या जो चौकीदारी करते हैं अथवा माल-सामान ढोने वाले दिहाड़ी के मजदूर, राज़-मिस्त्री और मकान बनाने वाली लेबर, रिक्शा चालक आदि रहते कहाँ हैं! ज़ाहिर है, वे सब हमारे आसपास ही रहते होंगे। क्योंकि हमारा टाइम भी नियत है। सुबह काम वाली बाई आ जाए, खाना बनाने वाली आ जाए क्योंकि आज की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में मियाँ-बीवी दोनों को नौकरी करने पड़ती है। इसलिए हर एक को मेड ऐसी ही चाहिए जो सुबह आठ या नौ बजे तक आ जाए। अब चूंकि उस मेड को कई घरों में काम करना पड़ता है, इसलिए वह अगर आपके घर से दूर रहेगी तो आएगी कैसे! ये सब लोग हमारे घरों के आसपास ही जो खाली ज़मीन मिली, उसी में झुग्गी डाल कर रहते हैं।

लेकिन वह ज़मीन फ़ौरन क़ाबिज़ हो गई। लॉकडाउन लगते ही सरकारी लोग और भू-माफिया उसकी बाड़ेबंदी में लग गए। झुग्गियाँ तोड़ दी गईं या फूंक डाली गईं। यूँ हर वर्ष गर्मियों में या बरसात में अथवा जाड़े में वे बेघर कर दिए जाते हैं। नगर निगम के सफाई अभियान का डंडा उन पर ही चलता है। अथवा बिल्डर उनसे जमीन खाली कराने के लिए हर गर्मियों में उनकी झुग्गियां फुंकवा देते हैं। क्योंकि आज तक ऐसा नहीं हुआ कि जो झुग्गियां जल गईं, वहां फिर से झुग्गियां पड़ गईं। बिल्डर फ़ौरन उस ज़मीन पर काबिज़ हो जाते हैं।

मैं जिस इलाके में रहता हूँ, वह दिल्ली से सटा गाजियाबाद का इलाका है। उसे खूबसूरत बनाने का अभियान पिछले कई वर्षों से चल रहा है। हाई-राइज बिल्डिंगें रोज़ आसमान को और छूती चली जा रही हैं। चमाचम सड़कें और इन सडकों के ऊपर से गुजरती सड़कें और उनके ऊपर भी सड़कें बनाई जा रही हैं। देश का एक लंबा एलिवेटेड रोड यहाँ बना है। गाड़ियाँ इतनी ज्यादा हो चुकी हैं कि जमीन वाली सड़कें अब पार्किंग के ही काम आती हैं। नगर निगम सड़कों को दुरुस्त तो करवा देता है, पर पार्किंग का इंतजाम नहीं करता। नतीजा यह है कि ये सड़कें चलने के काम कम ही आती हैं, कारें पार्क करने के अधिक।

सवाल यह उठता है, कि ऐसी भीड़-भाड़ वाली जगहों पर मेड कहाँ रहे? काम वाली हर परिवार को चाहिए, लेकिन जब उस पर संकट आता है तो कोई नहीं पूछता कि तुम्हारी झुग्गी का क्या हुआ? या तुम टॉयलेट कहाँ जाती हो? शहरी मध्यवर्गीय परिवार मेड से सिर्फ़ इतना वास्ता रखते हैं, कि वह सही समय पर आए, घर को क्लीन कर दे और कभी छुट्टी न ले। उनको उसके परिवार और उसकी दिक्कतों से कोई वास्ता नहीं। यहाँ तक कि ये परिवार अपनी मेड को पेशाब के लिए भी अपना टॉयलेट इस्तेमाल नहीं करने देते। ऐसे में वह मेड कहाँ रहती है, उसके बच्चे कितने हैं अथवा उसका पति क्या करता है, इससे भला वे क्यों वास्ता रखेंगे!

मेरे घर के आसपास जहाँ झुग्गियां आबाद हैं, नगर निगम उन्हें ध्वस्त कर देने का अभियान चलाये हैं, क्योंकि इन झुग्गियों को खाली करवा कर वहां माल्स, अपार्टमेंट बनाए जाने की योजना है। तब ये मेड, ये चौकीदार और ये दिहाड़ी के मजदूर कहाँ जाएं! सरकार उनके रहने के लिए आवास बनवाती नहीं है। जो कुछ लोग इन चमचमाते अपार्टमेंट और कोठियों के बीच लुप्तप्राय गाँवों में रहते हैं, वहां के हालात मुंबई की चालों से भी बदतर हैं। टॉयलेट्स हैं नहीं, लाइन लगाकर संडास जाओ। खुले में नहाओ और वहां गंदे पानी की निकासी की भी कोई व्यवस्था नहीं है। इसलिए हर घर में बीमार मिलेंगे। उस पर भी एक-एक कमरा इतना महंगा होता है कि कई लोग मिलकर एक कमरा लेते हैं। इन मकानों के मालिक अपने किरायेदारों के वोट से लेकर उनके राशन-पानी का भी ठेका लेते हैं और बाज़ार भाव से कहीं ज्यादा कीमत पर इन्हें उपलब्ध कराते हैं।

आज़ादी के फ़ौरन बाद से लेकर साठ के दशक तक मजदूरों के लिए लेबर कालोनियों का इंतजाम होता था। यह इंतजाम खुद सरकार का श्रम मंत्रालय किया करता था। इसके अलावा जो भी कारखाना लगता, उसके मालिक भी अपने मजदूरों से लेकर अफसरों के लिए आवास का प्रबंध भी करता। कानपुर, जमशेदपुर, मोदीनगर आदि शहर यहाँ पर बसाए गए लोगों से ही आबाद हुए। पहले जो मकान होते थे, उनमें निजी नौकरों के रहने के लिए अलग कमरे होते थे। शुरू में दिल्ली आदि बड़े शहरों में सरकारी विकास प्राधिकरणों ने जो बहुमंजिले फ़्लैट बनवाए, उनमें भी नौकरों के रहने के लिए अलग-से कमरा होता था, जिसे सर्वेंट क्वार्टर कहते थे, इसे शार्ट में एसक्यू कहा जाने लगा। लोगों ने एसक्यू के नाम पर इन्हें किराए पर उठाना शुरू कर दिया। चूँकि अब आम शहरी मध्य वर्ग के वश में निजी नौकर रखना है भी नहीं इसलिए मेड या चौकीदार वही होते हैं, जो कई लोगों की सामूहिक जिम्मेदारी लेते हैं। ऐसे में बेहतर तो यही होता कि अपार्टमेंट्स में इनके रहने के लिए भी कुछ कमरे बनवाए जाते। मगर अभी तक यह परंपरा नहीं शुरू हुई है। इसलिए सरकार को अपने ऊपर इनकी जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी। भले वह उत्तर प्रदेश की कांशीराम आवास योजना जैसी स्कीम हो या दिल्ली की जेजे कालोनी जैसी।

तब ही एक बेहतर विकल्प और एक सिविल सोसाइटी की स्थापना हो सकेगी। गरीबों और वंचितों के प्रति करुणा और सम्मान का भाव जब तक नहीं होगा, तब तक अपने समाज को उन्नत मानना एक भ्रम है। लेकिन सरकार इसके लिए अभियान के तहत स्कीमें लाए और इन झुग्गी वालों को बसाए। अन्यथा झुग्गियां बसती ही रहेंगी। चाहे जितना उन्हें उखाड़ा जाए या उजाड़ा जाए, दूर रोज़गार की चाहत में आने वाला आदमी इसी तरह से उजड़ता रहेगा। और हमारे इस तथाकथित सभी समाज की पोल भी खोलता रहेगा। एक उन्नत समाज और स्वस्थ लोकतान्त्रिक सरकार का यह दायित्व है कि उन लोगों को भी आवास व रोज़गार दे, जो पिछड़ गए हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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