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मोदी, बुद्ध और सावरकर दोनों की तारीफ़ एक साथ कैसे कर सकते हैं!

हिंदुत्व की इस प्रतीक छवि में बौद्ध धर्म को लेकर भीतर तक महसूस की जाने वाली एक नफ़रत थी। सावरकर बुद्ध की अहिंसा, अशोक के बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार, और कनिष्क का दोनों के प्रति झुकाव को नापसंद करते थे।
मोदी

बुद्ध के पहले उपदेश की याद में 4 जुलाई को धम्म चक्र दिवस के रूप में मनाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बौद्ध धर्म की चिरस्थायी विरासत पर बात की। उन्होंने कहा, “बौद्ध धर्म सम्मान सिखाता है- लोगों के प्रति सम्मान। ग़रीबों के प्रति सम्मान। महिलाओं के प्रति सम्मान। शांति और अहिंसा के प्रति सम्मान।" उन्होंने यह भी कहा कि भगवान बुद्ध के आदर्श अतीत में प्रासंगिक थे। वे वर्तमान में प्रासंगिक हैं। वे भविष्य में भी प्रासंगिक रहेंगे।”

मोदी के भाषण में बुद्ध और बौद्ध धर्म को लेकर हिंदुत्व के दार्शनिक नज़रिये के साथ विरोधाभास था। हिंदुत्व, भारतीयों को कमज़ोर करने, चाहे वह भौतिक हो या सैन्य, दोनों ही तरह की ताक़त को हासिल किये जाने से दूर करने, और प्राचीन काल में भारत पर जीत हासिल करने वाले मध्य एशियाई लुटेरों के लिए रास्ता बनाने के लिए बुद्ध की अहिंसा के आदर्श को दोषी ठहराता है।

बौद्ध धर्म को लेकर इस दृष्टिकोण को सबसे ज़बरदस्त तरीक़े से विनायक दामोदर सावरकर ने सामने रखा था, जिन्होंने हिंदुत्व शब्द को गढ़ा था। भले ही सावरकर कभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य नहीं रहे थे, लेकिन वे यक़ीनन हिंदुत्व के सबसे प्रतिष्ठित नेताओं में से एक हैं।

1920 के दशक की शुरुआत में प्रकाशित अपनी किताब, ‘इसेंशियल ऑफ़ हिंदुत्व’ में सावरकर कहते हैं कि बौद्ध धर्म का भारत से इसलिए सफ़ाया हो गया, क्योंकि भारत में बौद्ध धर्म का प्रसार "राष्ट्रीय पौरूष के लिए विनाशकारी" साबित हुआ था। बौद्ध धर्म ने भारत को इतना संवेदनशील बना दिया था कि इसे कोई भी पराजित कर सकता था, इससे लोगों में बौद्ध धर्म के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया हुई।

सावरकर लिखते हैं,"वास्तव में यह (बौद्ध धर्म) एक नीतिपरायणता वाला क़ानून था।" मगर, इसका दोष यह था कि यह उस मानव स्वभाव को ध्यान में नहीं रखता था, जो कि "पशुता के जुनून", "राजनीतिक महत्वाकांक्षा" और "व्यक्तिगत उत्कर्ष" से प्रेरित होता है। इसलिए, भारत यह समझ नहीं पाया कि अपनी सुरक्षा की "माला जपने की जगह अपनी तलवार" को थामना ज़रूरी है, और इसी कारण से अपने जन्म भूमि में ही बौद्ध धर्म का पतन हो गया और अंततः विलुप्त भी हो गया।

इसेंशियल्स ऑफ़ हिंदुत्व में सावरकर की आलोचना के स्वर बेहद गंभीर हैं। उदाहरण के लिए, वह बताते हैं, "बौद्ध धर्म विजय के दावे करता है, लेकिन ये दावे एक ऐसी दुनिया से ताल्लुक रखते हैं, जो हमारी हक़ीक़त की उस दुनिया से कहीं दूर है, जहां कमज़ोरी लंबे समय तक नहीं टिक सकती, और फ़ौलादी ताक़त आसानी से आगे बढ़ सकती है मगर मिथ्या जल-धाराओं से बुझाई जाने वाली तृष्णा यानी पाने की प्यास इतनी तीव्र और वास्तविकत होती है कि वह मिथ्या जलधारा देवलोक में निरंतर प्रवाहित होती रहती हैं।"

सावरकर के दृष्टिकोण से इस लौकिक दुनिया में बौद्ध धर्म की बहुत कम प्रासंगिकता है।

‘इसेंशियल ऑफ़ हिंदुत्व’ के चालीस साल बाद यानी 1963 में लिखी गयी उनकी अगली पुस्तक, ‘सिक्स ग्लोरियस एपोच ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री’ में बौद्ध धर्म के प्रति उनकी तीखी आलोचना, मज़ाक उड़ाये जाने, और शत्रुतापूर्ण रवैये का सुबूत मिलता है। इस किताब में वे बताते हैं कि भारतीयों, ख़ासकर "वैदिक हिंदुओं" ने भारत से विदेशी विजेताओं को बाहर खदेड़ने के लिए किस तरह से संघर्ष किया है। उन्होंने लिखा है कि इस राष्ट्रीय प्रतिरोध से बौद्धों ने अपने आप को न सिर्फ़ अलग रखा, बल्कि वे सदियों तक चलाये जाने वाले "विश्वासघात" के भी दोषी  थे।

सावरकर उनके विश्वासघात की उत्पत्ति को बुद्ध के उस अहिंसा के प्रचार-प्रसार से जोड़ते हैं, जिसके कारण वे अपने हथियार चलाने और युद्ध करना, दोनों को भूल गये। इस कारण बौद्धों ने बिना किसी संघर्ष के उन लोगों के सामने ख़ुद को समर्पित कर दिया, जो उन्हें ग़ुलाम बनाने की इच्छा रखते थे। बौद्ध समय के साथ कायर बनते गये। अपनी भूमि की रक्षा करने में असमर्थ इन लोगों ने विजेताओं को बौद्ध धर्म में धर्मांतरित करने की उम्मीद में उनका पक्ष लिया था।

इसके बावजूद यह अहिंसा बुद्ध की मृत्यु के बाद यानी 486 ईसा पूर्व या 483 ईसा पूर्व के 150 से ज़्यादा वर्षों तक भी भारतीयों को मनोवैज्ञानिक रूप से कमज़ोर नहीं बना पाई। ऐसा इसलिए हो पाया था, क्योंकि बौद्ध धर्म उस समय भारत में मौजूद कई धार्मिक और दार्शनिक प्रणालियों में से एक था। चूंकि यह भारत की चेतना पर हावी नहीं हो पाया था, इसलिए अहिंसा भारत की युद्धप्रिय भावना का गला नहीं घोंट पायी।

मेसिडोनियाई शासक, सिकंदर के ख़िलाफ़ अपने मज़बूत प्रतिरोध के दौरान भारत की शूरवीरता का प्रदर्शन जारी था, देश में सिकंदर का सैन्य अभियान 327 ईसा पूर्व और 325 ईसा पूर्व के बीच चला था। सावरकर कहते हैं कि भयंकर प्रतिरोध ने सिकंदर को अपने जीते गये क्षेत्र की देखरेख के लिए एक यूनानी गवर्नर नियुक्त करने और भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। अंततः चंद्रगुप्त मौर्य और उनके ब्राह्मण सलाहकार, चाणक्य ने साथ मिलकर यूनानियों को भारत से पूरी तरह से बाहर कर दिया।

सावरकर कहते हैं कि 272 ईसा पूर्व या 268 ईसा पूर्व में सिंहासन पर आरूढ़ होने वाले तीसरे मौर्य शासक, अशोक के धर्मांतरण के कारण भारत के इतिहास में एक नया मोड़ आया। अशोक ने मौर्य साम्राज्य की विचारधारा के रूप में अहिंसा को अपना लिया। विजय पाने की लालसा अब ख़त्म हो गयी थी। सावरकर बताते हैं कि सैनिक जीत के बजाय धार्मिक जीत का आह्वान किया गया। सावरकर अशोक के कुछ उन निर्देशों को सूचीबद्ध करते हैं, जिससे भारत को अपूर्णीय रूप से क्षति पहुंची थी, ये निर्देश थे- "क्रोध को क्रोध की उपेक्षा से जीता जाना चाहिए"; "अहिंसा परम धार्मिक कर्तव्य है"; " किसी जानवर को कभी मत मारें"। इन विचारों ने वैदिक धर्म के सार तत्व को ही नकार दिया।

सावरकर कहते हैं, इससे भी बदतर तो उन भिक्खुओं या भिक्षुओं की भूमिका थी, जो हज़ारों की संख्या में घूमते हुए कहते रहते थे कि "हर तरह की सैन्य शक्ति हिंसा और पाप है, और यह कि जो लोग क्षत्रिय प्रकार का जीवन का अनुपालन करते हैं, वे सभी हिंसक और घोर अधार्मिक हैं !"  सावरकर भिक्खुओं को परजीवी बताते हैं, क्योंकि वे मठों में रहते थे, जहां उन्हें राज्य के ख़र्च पर मुफ़्त भोजन और कपड़े उपलब्ध कराये जाते थे।

अब क्षत्रिय समाज के लिए आदर्श नहीं रह गये थे। सावरकर ने लिखा है कि उनकी हैसियत को उन भिक्खुओं ने हड़प लिया था, जो "राष्ट्र की रक्षा में लड़ने वाले और अपना ख़ून बहाने वाले और शहीद होने वाले बहादुर क्षत्रिय सिपाही की तुलना में अधिक महान,पवित्र, और अधिक प्रशंसनीय" बन गये थे।

सावरकर को लगता है कि जो समाज योद्धाओं के प्रति अच्छा व्यवहार नहीं रखता है, उसका कमज़ोर होना तय है। आख़िरकार यही हुआ,जब डेमेट्रेओस (या डेमेट्रियस) के नेतृत्व में बैक्ट्रियाई यूनानियों ने उत्तरपश्चिम भारत पर 200 ईसा पूर्व के आसपास हमला कर दिया और मौर्य सेना को परास्त कर दिया। उन्होंने दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान, पंजाब और सिंधु घाटी पर कब्ज़ा कर लिया और गंगा की केंद्रीय स्थल पर धावा बोल दिया। बैक्ट्रियाई ग्रीक शासकों में सबसे शक्तिशाली और प्रसिद्ध मिनांडर (166-150 ईसा पूर्व) था।

अशोक के बौद्ध उत्तराधिकारी न सिर्फ़ भारत की रक्षा करने में नाकाम रहे, बल्कि उनके धर्म यानी बौद्ध धर्म का पालन करने वालों ने विश्वासघाती की भूमिका भी निभायी। सावरकर का दावा है कि बौद्ध प्रचारकों ने इस झूठ को फ़ैलाया कि यूनानी तो सिर्फ़ हिंदुओं से लड़ने के लिए आया था। मिनांन्डर का बौद्ध धर्म में रूपांतरण ने इस झूठे प्रचार को सच का लिबास पहना दिया। सावरकर थोड़ी कड़वाहट के साथ लिखते हैं, "बौद्ध विद्वान और भिक्षु उन यूनानियों के भारतीय दरबारों में अकड़कर चलते थे, जैसे कि वे किसी राष्ट्रीय दरबार में जा रहे हों।"

बौद्ध भावनाओं का फ़ायदा उठाते हुए मिनांडर ने ऐलान किया कि उनका मक़सद उन वैदिक हिंदुओं को सबक सिखाना है, जिन पर बौद्धों ने बौद्ध-मौर्य शासन को उखाड़ फेंकने की साज़िश रचने का आरोप लगाया था। जब मिनांडर ने अयोध्या पर विजय प्राप्त कर ली, बौद्धों पर तब भी इसका असर नहीं हुआ। इसका कारण बताते हुए सावरकर कहते हैं, बौद्ध "यूनानियों की विदेशी राष्ट्रीयता से बहुत अधिक चिंतित नहीं थे। बौद्ध धर्म जाति, नस्ल या राष्ट्रीयता के अंतर को नहीं मानता था! यह राष्ट्र-विरोधी और भारत विरोधी शरारती तरीक़ा था,जिसमें बौद्ध उपदेशक भारत के लोगों को बहकाने लगे थे! ”

इन बैक्ट्रियाई यूनानियों का विरोध वैदिक हिंदुओं पर क़हर बनकर टूट पड़ा। सावरकर लिखते हैं, “भारतीय बौद्ध आबादी ने मिनांडर के पक्ष में अपना पाला बदल लेने के स्पष्ट संकेत दिये। इसलिए, राष्ट्रवादी भारतीय नेताओं ने मगध की शाही सिंहासन से दुविधाग्रस्त और कमज़ोर बृहद्रथ मौर्य को बेदखल करने के उद्देश्य से एक क्रांतिकारी निकाय का गठन किया और वृहद्रथ की जगह वैदिक धर्म को मानने वाले एक ऐसे शख़्स को बैठा दिया, जो चंद्रगुप्त मौर्य की तरह ही साहसी और बहादुर था। "

सावरकर ने मौर्य सेना के ब्राह्मण सेनापति,पुष्यमित्र का हर्षोन्माद से वर्णन करते हुए लिखा है कि उसने बृहद्रथ का सिर काट दिया और मौर्य सिंहासन पर जा बैठा। उसके ही संरक्षण में एक-एक बैक्ट्रियाई यूनानियों को भारत से बाहर कर दिया गया। जहां तक बौद्धों का सवाल है, तो सावरकर ने उनकी "बेपर्दा हो चुकी बेशर्म विश्वासघाती भूमिका" के लिए उनकी निंदा की है।

सावरकर ने पुष्यमित्र द्वारा उन बौद्धों पर किये गये उत्पीड़न का बचाव किया है, जो बड़ी संख्या में मारे गये थे, उनके मठ और स्तूप भी नष्ट कर दिये गये थे। सावरकर लिखते हैं, “यह राजद्रोह और दुश्मन से हाथ मिलाने की महज़ एक सज़ा थी, ताकि भारतीय स्वतंत्रता और साम्राज्य की रक्षा हो सके। यह कोई धार्मिक उत्पीड़न नहीं था। ”

सावरकर हमें बताते हैं कि बौद्धों का विश्वासघात इसके बावजूद कम नहीं हुआ। हूणों के दबाव में कुषाणों ने उत्तर पश्चिम भारत में अपना राज्य स्थापित कर लिया और अपने सीमावर्ती क्षेत्रों का विस्तार गंगा के मैदान तक कर लिया। कुषाण शासकों में सबसे मशहूर कनिष्क (मृत्यु 78 ई.) था, जिसने बौद्ध धर्म को अपना लिया और चीन की तरफ़ बढ़ा और उसने वहां अपने धर्म को फ़ैलाया।

सावरकर आग़ाह करते हैं कि भारतीयों को कनिष्क की उस जीत पर गर्व महसूस नहीं करना चाहिए, भले ही "बौद्ध धर्म एक भारतीय धर्म रहा हो।" मगर,सवाल है कि ऐसा क्यों ? सावरकर बताते हैं कि हमें गर्व इसलिए महसूस नहीं करना चाहिए,क्योंकि “कनिष्क ने जिस बौद्ध धर्म को अपनाया था, वह भगवान बुद्ध का मूल बौद्ध धर्म नहीं था और न ही वह अशोक वाला धर्म था। यह बौद्ध धर्म का कनिष्क संस्करण था”।

हालांकि कनिष्क की इस विजय को लेकर सावरकर को तो ख़ुश होना चाहिए था, क्योंकि कनिष्क ने बुद्ध और अशोक के उन विचारों को नकार दिया था, जिसके साथ हिंदुत्व की विचारधारा का विरोध है, लेकिन क्योंकि सावरकर को मूल बौद्ध धर्म को भी कमज़ोर करना था, इसलिए उन्होंने एक बचकाना सवाल किया है: कनिष्क हिमालय के उस पार चीनी क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रसार कैसे कर सकता था ?

सावरकर अपने ही सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं, "ऐसा इसलिए संभव था,क्योंकि उसने पहली बार उन प्रांतों पर अपने युद्ध हथियारों के साथ विजय प्राप्त की थी, यह सब उसके लिए इसलिए भी संभव था,क्योंकि उसके पास एक बहुत शक्तिशाली साम्राज्य था, यानी, उसके पास एक शक्तिशाली सशस्त्र बल था। क्या ऐसा नहीं था ?

दूसरे शब्दों में कहा जाय,तो सावरकर को बुद्ध से समस्या इसलिए है, क्योंकि बुद्ध ने अहिंसा का प्रचार किया; उन्हें अशोक से समस्या इसलिए है, क्योंकि अशोक ने अहिंसा को अपनी नीति के रूप में अपनाया और भारत की सैन्य भावना को कमज़ोर कर दिया; उनकी कनिष्क के साथ समस्या इसलिए है, क्योंकि कनिष्क बुद्ध की मूल शिक्षा से विचलित हुआ, अशोक की नीति का उल्लंघन किया, और सैन्य हमलों में लगा रहा।

सावरकर की प्रवृत्ति बौद्ध धर्म में किसी भी तरह से उस खोट को निकालने की है,जो उनकी इच्छा को पूरा करने वाली उनकी उस मान्यता को मज़बूती दे सके कि सिर्फ़ वैदिक धर्म को मानने वाले ही भारत के प्रति वफ़ादार हो सकते हैं, और इसे विदेशी विध्वंस से बचा सकते हैं। यही वह धर्म है,जो आदमी का निर्माण करता है। वे कहते हैं कि वैदिक हिंदुओं ने कनिष्क के ख़िलाफ़ इसीलिए लड़ाई लड़ी थी, क्योंकि वह "एक देशी भारतीय साम्राज्य नहीं था"।

उस समय भारतीय बौद्ध क्या कर रहे थे? सावरकर लिखते हैं, "जैसे ही कनिष्क ने बौद्ध पंथ को अपना लिया,बौद्धों ने म्लेच्छ (बर्बर) शत्रु, कुषाण सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली और भारतीय राष्ट्र और उन बहादुर देशभक्त वैदिक लोगों के ख़िलाफ़ विश्वासघात जैसे दुष्ट कृत्यों को अंजाम देना शुरू कर दिया, जो अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे।!”

इसके विपरीत, हिंदुओं ने वैदिक धर्म अपनाने वाले विदेशी शासकों का समर्थन करने से इनकार कर दिया। न सिर्फ़ यह महत्वपूर्ण था कि शासक का धर्म वैदिक हो, यह भी ज़रूरी था कि वह भारत में पैदा हुआ है या नहीं। सावरकर कहते हैं कि यही कारण है कि  हिंदुओं ने हूण शासक मिहिरगुला (छठी शताब्दी) के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी, हालांकि उसने "भगवान रुद्र के वैदिक पंथ को स्वीकार कर लिया था और उन बौद्धों पर क्रूर अत्याचार किया था, जो वैदिक हिंदुओं के सबसे कट्टर दुश्मन बन गये थे।" सावरकर कहते हैं कि वैदिक हिंदुओं ने मिहिरगुला का समर्थन इसलिए नहीं किया, क्योंकि हिंदुओं ने उसे "विदेशी हमलावर और इसी तरह राष्ट्रीय शत्रु" के रूप में देखा।

सावरकर मिहिरगुला के कश्मीर पर हमला करने के बाद वहां बड़ी संख्या में रहने वाले बौद्धों के ख़ात्मे को लेकर अपनी ख़ुशी मुश्किल से छुपा पाते हैं। "यह कहना बहुत मुश्किल है कि भाग्य ने इस मिहिरगुला को भारतीय बौद्धों को एक व्यावहारिक सबक सिखाने के लिए पैदा किया था।" और इससे उन्हें जो सबक मिला था,उसकी तारीफ़ करते हुए कहते हैं ? " अपने ख़ुद के हथियर से सुसज्जित हुए बिना कोई भी धर्म बर्बर दुश्मन की आग और तलवार के हमले से नहीं बच सकता।"

सावरकर के मुताबिक़ यह सबक बौद्धों को उस समय भी मिला था,जब मोहम्मद बिन क़ासिम ने आठवीं शताब्दी में उस सिंध पर हमला कर दिया था, जिस पर उस समय हिंदू राजा दाहिर का शासन था। सावरकर के मुताबिक़, बौद्धों ने सोचा था कि क़ासिम मिनांडर और कनिष्क की तरह बौद्ध धर्म को अपना लेगा और हिंदुओं पर अत्याचार करेगा।

सावरकर का कहना है कि बौद्धों ने क़ासिम से संपर्क किया था और सिर्फ़ ख़ुद को छोड़ दिये जाने का अनुरोध किया था। सावरकर ने क़ासिम के साथ उनकी बातचीत की भी कल्पना कर ली थी, उनकी कल्पना के मुताबिक़, बौद्धों ने कहा था, “हमें दाहिर और उसके वैदिक हिंदू पंथ से कोई लेना-देना नहीं है, हमारे ईश्वरदूत, भगवान बुद्ध हैं और उन्होंने हमें ‘अहिंसा’ का पाठ पढ़ाया है। (हिंसा से पूरी तरह परहेज़)। हम कभी भी हथियार नहीं उठाते हैं और राज्य के राजनीतिक मामलों में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं होती है, इसलिए हम प्रार्थना करते हैं बौद्धों को आपके हाथों किसी भी आक्रोश या परेशानी का सामना नहीं करना चाहिए। ”

सावरकर बताते हैं कि क़ासिम ने उन बौद्धों को सुरक्षा का भरोसा दिया, जिन्होंने दाहिर की हार पर अपने मठों की घंटियां बजायी थीं। सावरकर कहते हैं, '' बौद्ध विहारों और बौद्ध इलाक़ों में क़ासिम का किसी भी तरह का सशस्त्र विरोध नहीं हुआ था, क्योंकि मुसलमान जितनी आसानी से सब्ज़ी काटते हैं, उतनी ही आसानी से उन्हें काट दिया था। केवल उन बौद्धों को छोड़ दिया गया, जिन्होंने मुस्लिम आस्था को अपना लिया था।

सावरकर लिखते हैं कि कोई शक नहीं कि ये सभी उदाहरण अहिंसा की अव्यवहारिकता को ही दर्शाते हैं। बौद्धों ने भारत और हिंदुओं के ख़िलाफ़ अपने विश्वासघात से अहिंसा को अपनाने की अपनी ऐतिहासिक ग़लती को छुपाने की कोशिश की थी।

सावरकर अचानक अपनी बात बदलते हुए उन लोगों की बात करने लगते हैं,जिन्हें आज अछूत या दलित कहा जाता है। वे कहते हैं कि उनके पूर्वजों की स्थिति बौद्ध शासकों के कार्यकाल में बेहतर नहीं थी। सावरकर ने इस बारे में जो कुछ लिखा है, उसका एक नमूना कुछ इस तरह है, "अछूत तबकों से आने वाले लोगो को इस बात को याद रखनी चाहिए कि चंडाल, महार और अन्य अछूत अपनी सीमा के साथ हिंसा को अपनाने वाले वैदिक शासन के मुक़ाबले हिंसा करने वाले अहिंसक बौद्धों के शासन में कहीं ज़्यादा दुखी थे।"

दलितों को संबोधित करने का सावरकर का यह फ़ैसला समझ में आता है। डॉ. बीआर अंबेडकर द्वारा अपने लाखों महार अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में धर्मांतरित होने के ठीक सात साल बाद, यानी 1963 में सावरकर ने अपनी किताब,’सिक्स ग्लोरियस इपोक्स’ को पूरा किया था। सावरकर ने अपना पूरा जीवन जिस हिंदू एकता के सिद्धांत को गढ़ने में लगा दिया था, अंबेडकर के धर्मांतरण ने उस विचार को ख़ारिज कर दिया था। वास्तव में, हिंदुत्व के वैदिक धर्म के अनुयायियों को एकजुट करने की परियोजना में सावरकर का यह दृष्टिकोण शामिल है। इस दृष्टिकोण में अतीत की वह हिंदू गाथा है,जिसमें "दूसरों", या भारत के बाहर से आये हुए लोगों के साथ-साथ वैदिक धर्म को नहीं मानने वालों से हिंदुओं के लोहा लेना की गाथा है। इस गाथा में सावरकर की बतायी गयी शूरवीरता की प्रधानता है, लड़ाइयों और रक्तपात की कल्पनाओं की संलग्नता है, और उस अतीत की उस गाथा में राष्ट्र और राष्ट्रवाद के आधुनिक विचारों का घालमेल है।

सच्चाई तो यही है कि भारत और यहां के लोग प्राचीन काल में राष्ट्र जैसे विचारों से अनजान थे। भारत तब असंख्य राजवाड़ों में विभाजित था, जिन्हें बाद में समय-समय पर एक साम्राज्यवादी शासन के तहत मिला लिया गया था। जबतक मुसलमानों ने भारत में प्रवेश नहीं कर लिया, और जबतक उनके हिन्दु प्रतिद्वंद्वियों द्वारा संरक्षित मंदिरों को अपवित्र नहीं कर दिया गया और मंदिर से देवताओं को उठा नहीं ले जाया गया,तबतक भारत के ज़्यादातर हिस्सों में ये राजवाड़े एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ही लड़ते रहे थे। सावरकर ने ऐतिहासिक साक्ष्यों को छुपा लिया है और हिंदुत्व परियोजना के अनुरूप इतिहास को फिर से लिखने के लिए कुछ नये तथ्य जोड़ दिये हैं या फिर उन्होंने तथ्यों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर दिया है।

उदाहरण के लिए, अशोक ने वैदिक हिंदुओं को उस तरह नहीं सताया होगा, जैसा सावरकर मानते है। इतिहासकार रोमिला थापर के अनुवाद में अशोक को अपने स्तंभ लेखों में से एक अभिलेख में अपने प्रजाओं की सलाह देते हुए उद्धृत किया गया है: “प्रत्येक अवसर पर एक दूसरे के संप्रदाय का सम्मान करना चाहिए, ऐसा करने से उस संप्रदाय का अपना ही प्रभाव बढ़ता है और दूसरे संप्रदाय को लाभ होता है, लेकिन ऐसा नहीं करने से कोई संप्रदाय अपने ही प्रभाव को कम कर देता है और दूसरे संप्रदाय को नुकसान पहुंचता है...इसलिए सामंजस्य बनाया जाना चाहिए ताकि हर कोई एक दूसरे के सिद्धांतों को सुन-समझ सकें।"

अशोक ने अहिंसा की कठोरता को बिल्कुल नहीं अपनाया और न ही उसने मौर्य सेना को भंग ही किया। थापर लिखती हैं, "उसने (अशोक) माना कि ऐसे अवसर आते हैं,जब हिंसा अपरिहार्य हो सकती है, उदाहरण के लिए जब वनों में रहने वालों की तरफ़ से परेशानी पैदा हुई थी,तो उसने सैनिक अभियान चलाया था...वह यह भी कहता है कि उसे यह बात बिल्कुल ही पसंद नहीं होगी कि उसके वंशज ताक़त के बल पर जीत हासिल करे, बल्कि ज़रूरी है और वह इस बात की उम्मीद करता है कि उसके वंशज इस जीत को अधिकतम दया और क्षमादान के साथ हासिल करें।” हमारे पास इस बात के भी सबूत हैं कि अशोक के कार्यकाल में जानवरों का वध जारी था, भले ही इसकी संख्या पहले की तुलना में कम हो गयी थी, शाही रसोई में जानवरों के मांस पकाये जाते थे।

यह सभी तथ्य इस बात को स्थापित करते हैं कि अशोक के बौद्ध धर्म को संरक्षण देने के फ़ैसले से मौर्य साम्राज्य का पतन नहीं हुआ था। वास्तव में इसका पतन मौर्यकालीन सिक्के में आयी खोट, प्रत्येक व्यक्ति पर कर लगाने, शासकों की केंद्रीकृत नौकरशाही संरचना के निर्माण में नाकामी के चलते हुआ था।

बौद्ध धर्म के प्रति हिंदुत्व की तिरस्कार की यह भावना केवल सावरकर तक ही सीमित नहीं थी। अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक, ‘द आरएसएस एण्ड द मेकिंग ऑफ द डीप नेशन’ में पत्रकार दिनेश नारायणन उन लोगों में दीनदयाल उपाध्याय को भी शामिल करते हैं, जो बौद्ध धर्म को लेकर सावरकर के सिद्धांत के साथ थे। नारायणन लिखते हैं, “…उपाध्याय कहते हैं कि बुद्ध ने उस समय किसी शिशु को नहाने के पानी में इसलिए फेंक दिया था, क्योंकि उसने वैदिक जड़ों से भारत के काटे जाने पर सवाल उठाया था। उन्होंने न केवल प्राचीन संस्कारों और अनुष्ठानों को रोक दिया, बल्कि बुद्ध ने अपने नये धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए संस्कृत की जगह पाली को प्राथमिकता दे दी थी।”

बौद्ध धर्म के प्रति हिंदुत्व के नज़रिये को देखते हुए, सावरकर और बुद्ध, दोनों के लिए की जाने वाली मोदी की तारीफ़ और जताया जाने वाला प्यार निश्चित रूप से एक ग़ज़ब का विरोधाभास है, क्योंकि वे जिन दार्शनिक दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे अलग-अलग ध्रुवों वाले दृष्टिकोण हैं। लेकिन ऐसा क्यों न हो, आख़िरकार राजनीति ही तो नेता, इनके विचारों और कार्यों को आकार देती है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, विचार व्यक्तिगत हैं।

 

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