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अंबेडकर को अपनाना आज भी क्यों आसान नहीं है

अंबेडकर का मानस बुद्धिवाद और धर्मनिरपेक्षता के घटकों से मिलकर बना था। परम्परा की उनकी समझ शास्त्रों की जाँच पड़ताल से बनी थी। जिसका आधार वैज्ञानिक नजरिया था।
Ambedkar
Image courtesy: The Indian Express

आज डॉक्टर भीमराव रामजी अंबेडकर की 63वीं पुण्यतिथि है। डॉ.  अंबेडकर की याद आते ही दलित-वंचित जातियों की लड़ाई लड़ने वाले इंसान की याद आती है। जब इस सिरे को पकड़कर अंबेडकर को समझने की कोशिश करते हैं तो हमें बीसवीं सदी एक ऐसा योद्धा मिलता है, जिसके कदम केवल अपने समय में सुधार के लिए नहीं है बल्कि ऐसे हैं, जिससे आने वाली सदियां सुधार के रास्ते पर चलें।

इसलिए भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी के साथ अंबेडकर भारतीय समाज पर बहुत गहरे तरीके से सोचते हैं। शायद इसलिए भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में कांग्रेस के सदस्यों के साथ अंबेडकर की गहरी असहमतियां थी। इसलिए संविधान सभा से पहले भारत की अंतरिम सरकार में कानून मंत्री होने के बावजूद भारतीय संविधान सभा में उन्हें बहुत मुश्किल से जगह मिलती है। अब आप सोचेंगे कि अंबेडकर की शख़्सियत में ऐसा क्या था कि उनके साथ ऐसी असहमतियां थी और क्यों अंबेडकर से ऐसी असहमतियां अब भी बहुत प्रभावी तरीके से हर वैचारिक धड़े में मौजूद हैं?

तो जवाब यह है कि अंबेडकर आज़ादी के नारों के साथ समानता की बात भी किया करते थे। और यह एक ऐसी बात थी जिसका दुश्मन कोई ब्रिटिश हुकूमत नहीं, बल्कि भारतीय समाज खुद था। यानी धर्मों, धर्मों के अंदर जातियों और अमीरी- गरीबी में बंटे समाज को खुद में सुधार करने के लिए सहमत करना एक नामुमकिन किस्म की बात थी। इसलिए अंबेडकर से आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों की गहरी असहमतियां थी। सब आज़ादी की बात किया करते थे लेकिन अंबेडकर भारतीय समाज के अंदर समानता की लड़ाई लड़ रहे थे।

तमाम देशों के लोकतंत्रों के अध्ययन के बाद में उनकी आलोचना करते हुए अंबेडकर ने कहा था कि लोकतंत्र आज़ादी के सवाल को तो स्पर्श करता है, इसे आगे भी बढ़ाता है लेकिन लोकतंत्र अपने आप में और स्वाभाविक तरीके से समानता के सवाल को न तो स्पर्श करता है और न ही आगे बढ़ाता है। समानता के सवालों को लोकतंत्र में हमेशा इंजेक्ट करना पड़ता है। इसका मतलब यह नहीं कि आज़ादी की जरूरत नहीं है। बिना आज़ादी के समानता भी अर्थहीन है और बिना समानता के मिली आज़ादी एक गैरबराबरी वाले समाज को बढ़ाते चलती है। एक मुकम्मल समाज की कल्पना तभी की जा सकती है, जब आज़ादी के सवालों के साथ- साथ समानता के सवाल कदमताल करते हुए चले।

इसलिए 25 नवम्बर 1949 में संविधान सभा में दिए गए अपने भाषण में अंबडेकर प्रमुखता से यह कहते हैं कि अगर सामाजिक आर्थिक समानता के मकसद के लिए काम नहीं किया जाता है तो यह संविधान केवल कोरा पन्ना बनकर रह जाएगा। इस समय यही हो रहा है भारतीय समाज में गैरबराबरी इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि बहुतेरे लोगों की चिंता दो वक्त की रोटी जुटाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे संविधान में क्या लिखा है और सरकारें क्या संविधान के तहत काम करती है? आज़ादी के सत्तर साल बाद भी भारत के आम जनता के लिए संविधान एक नाम की सिवाय कुछ भी नहीं है। इस बात को सरकारें बहुत अच्छे से जानती हैं, इसलिए आज के समय में सरकारें संविधान के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ आसानी से कर ली जाती है। कश्मीर से लेकर नागरिकता संशोधन बिल (CAB) तक आप ऐसे तमाम उदाहरण देख सकते हैं।

इसलिए अंबेडकर को समझते हुए कहा जाए तो हालिया माहौल में किसी भी तरह की राय में आज़ादी, समानता और समाजिक न्याय तीनों का रेखांकन नहीं हो पाता है या तीनों का संतुलन नहीं बिठ पाता है तो वह राय आम जनता की भलाई से बहुत दूर है। संविधान से बहुत दूर है। और इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है, हमारा आर्थिक मॉडल। जिसमें तरक्की का मतलब चंद लोगों की तरक्की है। जिसमें एक फीसदी लोगों पर बाकी 73 फीसदी लोगों के बराबर संपत्ति है।  

अंबेडकर का मानस बुद्धिवाद और धर्मनिरपेक्षता के घटकों से मिलकर बना था। परम्परा की उनकी समझ शास्त्रों की जाँच पड़ताल से बनी थी। जिसका आधार वैज्ञानिक नजरिया था। वह धर्मों की समय के अनुकूल व्याख्यायों के समर्थन में थे लेकिन यह सवाल भी खड़ा करते थे कि आखिरककर उस धर्म में बदलाव कैसे किया जाए जिसका केंद्रीय तत्व ही भेदभाव का हो। ऐसी अंबेडकर की बहुत सारी तार्किक और प्रभावी बातें थे जो दलित विमर्श को खड़ा करती थी। हिन्दू धर्म से जातियों को पूरी तरह खत्म कर देने की बात करती थी।

लेकिन आज का ब्राह्मणवादी विमर्श हो या दलित विमर्श अंबेडकर की तार्किकता को कोसो दूर रखता है। उन्हें बस जातियों के अंदर लोगों की गिनती से मतलब है। जहां तक भाजपा की बात है तो वह प्रतीक के तौर पर भले ही अंबेडकर को अपना ले लेकिन विचार और व्यवहारिक तौर पर कभी नहीं अपना सकती है। क्योंकि अंबेडकर को सही मन से छूते ही उन्हें करंट लग सकता है। अंबेडकर एक तार्किक वाक्य भी हिंदुत्व की बखिया उधेड़ सकता है। बाकी बचे अंबेडकर का बैनर लेकर चलने वाले लोग, उनके साथ दिक्क्त यह है कि वह जाति को खत्म करने की बजाय जाति की पहचान को मजबूत बना रहे हैं। इसे संसदीय राजनीति में हिस्सेदरी का साधन मानकर इस्तेमाल कर रहे हैं। अभी भी उन्होंने जाति को खत्म करते हुए वैचारिक तौर पर कभी भी वैकल्पिक संरचना नहीं पेश की जिसमें सबकी सहभागिता हो।  उनके आंदोलनों में संघर्ष तो दिखता है लेकिन प्रभुत्व और अधीनस्थता की संरचना खत्म कर बराबरी वाले समाज बनाने के विचार नहीं दिखते जिसकी अंबेडकर वकालत किया करते थे।

अंबेडकर ने केवल हिन्दू धर्म की आतंरिक बुराई पर खुलकर बहस नहीं छेड़ी। बल्कि इसके साथ इस्लाम के बुराइयों पर भी खुलकर हमला बोला।

अंबेडकर का एक और वाक्य ध्यान देने वाला है कि 'महान लोग, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया उनके प्रति कृतज्ञ रहने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन कृतज्ञता की भी एक सीमा है।' यानी अंबेडकर व्यक्ति पूजा के घोर आलोचक थे। अंबेडकर का यह वाक्य बताता है कि अंबेडकर पर किसी और चीज की बजाय तार्किकता हावी थी। इस तार्किकता को वह भारतीय समाज की सच्चाइयों में पिरोते थे, इसलिए अंबेडकर अपने समकालीन नेताओं के बीच कड़वे विचार के तौर पर रहे।  अब भी अंबेडकर के विचार किसी राजनितिक दल के लिए अपनाना बहुत आसान नहीं है। लेकिन अपने इस व्यक्तित्व और जुझारूपन की वजह से वह भारत को ऐसा संविधान दे गए, जिसके बलबूते अभी भी तमाम झंझावातों के बाद हम आज़ादी, बराबरी और न्याय की लड़ाई जारी रख सकते हैं।  

(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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