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मुद्दा: लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु क्यों न 21 वर्ष हो!

यूं कहें कि लड़की को मात्र शरीर, उसकी माहवारी और उसकी प्रजनन क्षमता तक ही देखा गया, परिपक्वता के तर्क का कोई वैज्ञानिक प्रमाण न तब मौजूद था न अब है।
मुद्दा: लड़कियों के विवाह की न्यूनतम आयु क्यों न 21 वर्ष हो!
प्रतीकात्मक तस्वीर

महिलाओं से जुड़ा कोई भी मुद्दा जब भी समाज में उठता है उसे तीखी प्रतिक्रियाओें और भारी दबावों से गुज़रना पड़ता है। लड़की के विवाह की न्यूनतम उम्र क्या हो यह सवाल भी जब-जब उठा उसे नकारात्मक प्रतिक्रियाओं और दबावों का सामना करना पड़ा। कारण, पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को अपने काबू में रखना चाहता है, उसे कितनी छूट देनी है, कितनी नहीं वह खुद तय करना चाहता है।

बाल विवाह की रोकथाम हेतु बने शारदा अधिनियम 1929 में सुधार करते हुए 1978 में जब लड़की के विवाह की आयु को 15 से बढ़ा कर 18 करने की बात चली उस वक्त समाज में खूब बहसें हुईं। कहा जा रहा था कि यह सरकार का गैरज़रूरी हस्तक्षेप है। उसके बाद जब लड़की के विवाह की आयु 18 और लड़के की 21 कर दी गई, संसद से इसे पास कर दिया गया उस समय शिक्षित समाज का कहना था कि लड़की लड़के से जल्दी परिपक्व हो जाती है। इसलिए उसकी आयु लड़के से कम होना ठीक है। यूं कहें कि लड़की को मात्र शरीर, उसकी माहवारी और उसकी प्रजनन क्षमता तक ही देखा गया, परिपक्वता के तर्क का कोई वैज्ञानिक प्रमाण न तब मौजूद था न अब है।

उस बदलाव के 42 साल बाद देश और बदल गया, लड़कियों की शिक्षा का स्तर आगे बढ़ गया। विवाह की न्यूनतम आयु से जुड़े अब कुछ नए सवाल जन्म लेने लगे। जो बहुत अहम हैं और उनका जवाब तलाशना भी निहायत जरूरी है।

2019 में जब यह प्रश्न उठा कि विवाह की न्यूनतम आयु लड़की की 18 और लड़के की 21 क्यों?  इस बार लड़कियां स्वयं यह सवाल उठा रही थी, उसे शारीरिक परिपक्वता नहीं बल्कि संविधान के दायरे में देख रहीं थी, उनके अनुसार यह जेण्डर भेदभाव है और संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन है। प्रश्न विचारणीय भी है। इस समय समाज में हलचल होना लाज़मी था। समाज दो समूहो में बंट गया। समाज का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि विवाह में लड़का बड़ा होना चाहिए और लड़की छोटी इससे परिवार में तालमेल, आत्मसम्मान, पुरुष की मर्यादा बनी रहती है। यह तर्क भी अवैज्ञानिक और पितृसत्तात्मक ढांचे की देन है।  दूसरे समूह का कहना है कि लोग सरकार के कहने से शादी तय नही करेंगे, परिवार की पृष्ठभूमि उनके रीति-रिवाज, जाति, पेशा, खान-पान, धर्म जैसे मुद्दों को आसानी से हल नही किया जा सकता। ऐसे बदलाव करना अभी आसान नही होगा। समाज इसके लिए तैयार नहीं है।

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विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाई जाए ऐसा कहने वालों में ज्यादातर लड़कियां, महिला संगठन व डाक्टरों की रिपोर्ट शामिल हैं। उनका कहना है कि भारत में लड़कियों के विवाह की आयु पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। ऐसा कहने के उनके अपने तर्क हैं-

18 वर्ष की आयु में लड़की का विवाह करने का अर्थ है कि हम उसे उच्च शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर रहे हैं। क्या हम लड़कियों को मात्र 12वीं तक ही पढ़ाना चाहते हैं? शिक्षित भारत बनने के लिए बेटियों को उच्च शिक्षा प्राप्त होना बहुत जरूरी है। विज्ञान, तकनीकी, व संचार क्रांति से उपजी बिल्कुल नए प्रकार की शैक्षिक प्रतियोगिता के बीच लड़की को भी अपनी जगह बनानी है, नहीं तो वह हाशिये पर चली जाएगी। इसके लिए जरूरी है कि लड़कियों को भी उतना ही समय दिया जाए जितना लड़कों को दिया जाता है। यदि उन्हें गैरजरूरी जिम्मेदारियों में उलझा कर उन्हें रोक दिया जाएगा तो फिर उस बदलते समाज की शिक्षा प्रणाली की किसी प्रतियोगिता में अपना स्थान नही बना पाएंगी। चूंकि विवाह संस्था अभी भी पूर्ण रूप से पितृसत्ता के हाथों में है, जहां ब्याह कर आने वाली लड़की को थाली, रकाबी, अच्छी बहू बनने के साथ रसोई और बिस्तर के गणित में ही उल्झा दिया जाता है, अपेक्षाएं बहुत हो जाती हैं, ऐसे में कितनी लडकियां हैं जो शादी के बाद लड़कों की तरह आराम से पढ़-लिख कर अपने कैरियर की तरफ आगे बढ़ पाती हैं।

दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट कहती है कि महिलाएं जो 20 वर्ष की आयु से पहले गर्भवती हो जाती हैं उन्हें जन्म के समय बच्चे के वजन कम होने, कुपोषित होने, अपरिपक्व प्रजनन, एवं नवजात शिशु से सम्बन्धित अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। नवजात शिशु के साथ माता को भी अनेको स्वास्थ्य सम्बन्धी जोखिम उठाने पड़ सकते हैं। जो कि मातृ-शिशु मृत्यु दर को बढ़ाते हैं। अपरिपक्व शरीर से जना बच्चा भी अपरिपक्व और कुपोषित ही होता है। इसका प्रभाव लड़की के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस रिपोर्ट को यदि हम उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में देखें तो अभी भी यहां हर पांच में एक लड़की बालिका वधू है, उसे 18 या उससे भी कम आयु में ब्याह दिया जाता है। कमला और सकीना जिनके क्रमशः चार और पांच बच्चे हुए, कुपोषण के कारण एक के तीन व दूसरी के दो बच्चों की मृत्यु हो गई। दोनो ही माताओं का स्वास्थ्य अत्यंत दुर्बल है।

करोना महामारी काल में लॉकडाउन में देखें तो पाते हैं कि गर्भनिरोधक साधनों की उपलब्धता व प्रयोग घटा है, जिन लड़कियों का विवाह 18 वर्ष या इससे भी कम में हुआ होगा उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव बहुत अधिक हुआ होगा। फाउंडेशन फार रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विस के अनुमान के मुताबिक गर्भनिरोधक साधन उपलब्ध न होने और कोरोना संक्रमण के कारण देश में 2 से 3 मिलियन अनचाहे गर्भपात हो सकते हैं और 23 लाख महिलाओं को अनचाहा गर्भधारण करना पड़ा है। ऐसे में जो महिलाएं 18 वर्ष या इससे कम आयु में विवाहित हुई होगीं उनके स्वास्थ्य पर गर्भपात व गर्भधारण का बहुत ज्यादा नकारात्मक प्रभाव होगा।

इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि महिलाओं के प्रश्न को धर्म आधारित कानून और पितृसत्ता की चिन्ताओं से बाहर खींच कर मानवाधिकार के प्रश्न के रूप में स्थापित किया जाए। भारत में निजी कानून भारतीय इसाई विवाह अधिनियम 1872 की धारा 60 (1), पारसी विवाह एक तलाक अधिनियम 1936 की धारा 3(1)(स), शरीयत प्रभावीकरण अधिनियम 1937 लड़की के विवाह की आयु यौवनावस्था मानता है। विशेष विवाह अधिनियम 1954 की धारा 4(स), हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 (iii), बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 की धारा 2(अ) विवाह के लिए लड़की की आयु 18 और लड़के की आयु 21 वर्ष की ही पैरवी करता है। यह सभी कानून महिलाओं के साथ जेण्डर जस्टिस व बराबरी, स्त्री गरिमा के प्रश्न पर भारत के संविधान के अनुच्छेद 14,15, व 21 के सिद्वान्त का हनन करते हैं। 

जबकि भारत का संविधान महिलाओं को ये विश्वास दिलाता है कि कानून के सामने सब बराबर हैं। अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15(1) कहता है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के भी आधार पर केई भेदभाव नहीं होगा। अनुच्छेद 21 प्राण और दैहिक स्वतन्त्रता के संरक्षण की बात करता है।

विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) के मामले में भी न्यायालय ने यौन हिंसा के प्रश्न पर कहा था कि औरत की गरिमा पूर्ण विश्व में मान्य बुनियादी मानवाधिकार है।

चारू खुराना बनाम यूनियन ऑफ इंण्डिया (2015) के मामले में भी न्यायालय ने लैंगिक न्याय के प्रश्न को उठाया और कहा कि यह मानव अधिकार की उपलब्धि है, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नही किया जा सकता।

संसद ने मानवाधिकार अधिनियम 1993 के संरक्षण का कार्य किया, अधिनियम की धारा 2(डी) के अनुसार मानवाधिकार का मतलब अधिकार जो सम्बन्धित है जीवन, स्वतन्त्रता, समानता, और गरिमा से, उन्हें संविधान गारंटी देता है।

अन्तर्राष्ट्रीय संधि सीडॉ जिसे वियना घोषणा पत्र भी कहा जाता है ;( convention of elimination and all forms of discrimination against women) की अभिपुष्टि भारत सरकार ने (ratify) 19.6.1993 को की है। यह संधि स्त्रियों के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने हेतु है। घोषणा पत्र की प्रस्तावना कहती है कि महिलाओं के प्रति भेदभाव मानवाधिकार की गरिमा के खिलाफ है। सीडॉ संधि का अनुच्छेद-1 कहता है ऐसी असमानता जो स्त्री व पुरूष का लिंग आधार पर बहिष्कार करे तथा जिसका उद्देश्य व प्रभाव मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में उसके द्वारा प्रयोग किये जाने वाले मूल अधिकारों का हनन करना हो, अनुच्छेद -2(3) ऐसे सभी कानून, रीति-रिवाज तथा नियमों पर रोक लगाये जो महिलाओं के प्रति भेदभाव पैदा करें। महिलाओं के सवाल पर दूसरे विश्व सम्मेलन (वियना ,1993) व चौथे विश्व सम्मेलन (बीजिंग,1995) में (भारत जिसका सदस्य था) जहां लैंगिक भेदभाव व महिलाओं के प्रति होने वाली यौन हिंसा को पूरी तरह से खारिज किया गया था। संविधान, मानवाधिकार आयोग व न्यायलयों के निर्णय, तथा अन्तर्राष्ट्रीय संधियों/समझौतों के आधार पर विवाह की न्यूनतम आयु 21 किए जाने की मांग पर विचार किया जाना तर्कसंगत मालूम पड़ता है।

इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न भी काबिले गौर है, वह है जीवन प्रत्याशा। जब देश स्वतन्त्र हुआ था उस समय की जीवन प्रत्याशा मात्र 32 वर्ष थी, और देश का माहौल भी स्त्री पक्ष में नही था। 1978 में 52 वर्ष और आज जीवन प्रत्याशा 69 वर्ष है। एक तरफ जीवन प्रत्याशा बढ़ी है दूसरी तरफ तकनीक व वैज्ञानिक अध्ययन के विभिन्न क्षेत्रों का निर्माण हो गया है, उसमें जरूरी है कि लड़कियों को भी ज्यादा अवसर मिले। शादी के बाद लड़कियों के साथ समस्या यह होती है कि जिस सामाजिक, आर्थिक परिवेश में वे 18 साल तक जीवन व्यतीत करती रही हैं उससे नितांत अपरिचित माहौल में वह जाती हैं। वहां जाने के बाद उनका सामना पितृसत्ता के द्वारा बनाई गई अनेकों नियमों के साथ होता है। वहां उन्हें अपने आप को अनुकुलित करना पड़ता है इस अनुकूलन की प्रक्रिया में उनकी बौद्विक क्षमता का ह्रास हो जाता है। उस आयु तक वे शारीरिक, मानसिक व शैक्षिक रूप से परिपक्व भी नहीं हो पातीं। चूंकि जीवन प्रत्याशा बढ़ चुकी है तो उसके पास इतना समय है कि वह लड़कों के बराबर ही पढ़ाई लिखाई कर आगे बढ़ सकती है।

समकालीन विश्व की स्त्रियां अपने अस्तित्व, गरिमा व समान अधिकार पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। वह सवाल उठा रही हैं, वह द्वितीय श्रेणी की नागरिक नही हैं। दुनिया भर के 125 से अधिक देशों में विवाह की न्यूनतम आयु लड़की और लड़के की समान है। 2018 में दिल्ली में बाल विवाह पर हुए एक राष्ट्रीय सम्मेलन में यह प्रस्ताव पास किया गया कि हमें भी उन देशों की भांति ही अपने देश में विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ाते हुए लड़की और लड़के दोनो के लिए एक ही आयु का निर्धारण करना होगा। इसके साथ ही हमें विवाह पंजीकरण को भी पूरे देश में अनिवार्य बना देना चाहिए, यह किसी भी मायने में महिला के विकास की ओर एक बढ़ता कदम ही साबित होगा।

(लेखक रिसर्च स्कॉलर व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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