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क्या मुद्रास्फीति पर काबू मेहनतकश वर्ग को दांव पर लगा के होगा?

पूंजीवादी व्यवस्था में तो हमेशा ही मज़दूर वर्ग की क़ीमत पर ही मुद्रास्फीति पर काबू पाया जाता है।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: Reuters

अर्थशास्त्री मुद्रास्फीति की दो किस्मों में अंतर करते हैं। एक है, ‘मांग की खींच’ वाली मुद्रास्फीति और दूसरी है, ‘लागत के धक्के’ वाली मुद्रास्फीति। ऐसा माना जाता है कि मांग की खींच वाली मुद्रास्फीति ऐसी सूरत में होती है, जहां मांग तो बढ़ जाए, लेकिन आपूर्तियों को बढ़ाना संभव नहीं हो। और ऐसा उसी सूरत में होता है जब किसी एक या एक से ज्यादा अति-महत्वपूर्ण क्षेत्रों में, उत्पादन की पूरी क्षमता पहले ही उपयोग में आ रही हो। युद्ध के समय में होने वाली मुद्रास्फीति को, इस तरह की मुद्रास्फीति का शास्त्रीय उदाहरण कहा जा सकता है। भारत में भी, नवउदारवाद से पहले के, नियंत्रणकारी अर्थव्यवस्था के दौर में, अक्सर मुद्रास्फीति के पीछे यही कारण होता था कि मांग के मुकाबले, खाद्यान्न उत्पादन कम रहता था और यह होता था फसल अच्छी न रहने की वजह से।

मुद्रास्फीति पर काबू करने की गाज हमेशा मज़दूरों पर

दूसरी ओर, लागत के धक्के वाली मुद्रास्फीति तब आती है, जब आपूर्तियां बढ़ाना तो संभव होता है क्योंकि अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्र पूरी की पूरी उत्पादन क्षमता का उपयोग किए जाने के तो आस-पास भी नहीं होते हैं। फिर भी, चूंकि उत्पादन प्रक्रिया से जुड़ा कोई एक वर्ग उत्पाद के मूल्य में अपना हिस्सा बढ़ाने कोशिश कर रहा होता है और इसके लिए अपने हिस्से की लागत सामग्री के लिए दाम बढ़ाकर लगाता है, जबकि दूसरे वर्ग अपने हिस्से में कमी होने देने के लिए तैयार नहीं होते हैं, इससे संबंधित वर्गों के बीच रस्साकशी की स्थिति पैदा हो जाती है। यही रस्साकशी मुद्रास्फीति के रूप में सामने आती है।

फिर भी, प्रसंग चाहे जिस प्रकार की भी मुद्रास्फीति का हो, मज़दूर वर्ग की कीमत पर या उसके हितों की बलि देकर, कभी भी उस पर काबू पाया जा सकता है। इतना ही नहीं, पूंजीवादी व्यवस्था में तो हमेशा ही मज़दूर वर्ग की कीमत पर ही उस पर काबू पाया जाता है। अगर मांग की खींच वाली मुद्रास्फीति हुई तो, जब आपूर्ति बढ़ाना संभव नहीं हो तब, आपूर्ति से फालतू मांग को मज़दूर वर्ग की उपभोग मांग पर कैंची चलाने के जरिए खत्म कतरा जाता है और यह किया जाता है इस बात को सुनिश्चित करने के जरिए कि कीमतों के बढऩे के हिसाब से, मज़दूरों की रुपया मज़दूरी में बढ़ोतरी नहीं होने पाए। और अगर लागत के धक्के वाली मुद्रास्फीति का मामला हुआ तो, मज़दूर वर्ग की सौदेबाजी की ताकत को घटाने वाले कदमों के जरिए, उत्पादन लागत में मज़दूरी का हिस्सा घटाया जाता है और इस तरह, उत्पादन से जुड़े विभिन्न वर्गों के बीच की रस्साकशी को खत्म कराया जाता है। इस तरह, किसी भी प्रकार की मुद्रास्फीति का उछाल हो, पूंजीवादी व्यवस्था के पास उसका एक ही उपचार रहता है--कीमतों के हिसाब से मज़दूरी को बढऩे नहीं दिया जाए।

पर आसान नहीं है मज़दूरों ही बलि देना

बेशक, इसी प्रकार से मुद्रास्फीति पर काबू पाने के लिए, प्राथमिक माल उत्पादकों के हिस्से को घटाने को औजार बनाया जा सकता है। याद रहे कि ये प्राथमिक माल उत्पादक अक्सर तीसरी दुनिया के देशों के ही होते हैं। वास्तव में ऐतिहासिक रूप से तो यही पूंजी के महानगरीय केंद्रों में मुद्रास्फीति को अंकुश में रखने का सबसे आम उपाय बना रहा है। लेकिन, इस उपाय के घनघोर इस्तेमाल का ही नतीजा है कि अब, उत्पाद के कुल वैश्विक मूल्य में प्राथमिक माल उत्पादकों का हिस्सा, उत्पाद में प्राथमिक मालों के महत्व में तो जाहिर है कि कोई कमी नहीं होने के बावजूद, घटते-घटते इतना कम रह गया है कि इस हिस्से का और सिकोड़ा जाना भी, मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करने के लिए कोई खास कारगर होने वाला नहीं है। इसलिए, परिपक्व पूंजीवाद के अंतर्गत मुद्रास्फीति पर नियंत्रण को मज़दूर वर्ग की कीमत पर ही हासिल किया जा सकता है। बेशक, प्राथमिक माल उत्पादकों की कीमत पर मुद्रास्फीति पर जिस हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है, वह तो खैर अपनी जगह है ही।

लेकिन, इस तरह लागत में मज़दूर वर्ग के हिस्से को सिकोडऩे के जरिए, मुद्रास्फीति पर काबू पाए जाने की कोशिश किए जाने का मतलब यह हर्गिज नहीं होता है कि मुद्रास्फीति की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए मज़दूर वर्ग जिम्मेदार हो। वास्तव में ये तो दो ऐसी परिघटनाएं हैं जिनका, एक दूसरे कोई संबंध ही नहीं है। ऐसे मामलों में भी जहां लागत का धक्का मुनाफे के अनुपात में स्वायत्त बढ़ोतरी से शुरू होता है, जैसे कि अमरीका की मौजूदा मुद्रास्फीति के मामले में हुआ है, इस प्रक्रिया को भी मज़दूरी के हिस्से को सिकोडऩे के जरिए ही खत्म किया जा सकता है तथा खत्म करने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए यह सुनिश्चित किया जाता है कि मुद्रा में मज़दूरी, महंगाई के  हिसाब से नहीं बढऩे पाए। अमरीका में मौजूदा मुद्रास्फीति मुनाफे के हिस्से में बढ़ोतरी के धक्के से आयी है और इस मुद्रास्फीति के चलते मज़दूरी का हिस्सा साफ तौर पर घट गया है। इसके बावजूद, उसके फेडरल रिजर्व बोर्ड से लेकर, उदारपंथी अर्थशास्त्री तक, सभी मज़दूरी के हिस्से में और कमी किए जाने में ही मुद्रास्फीति का समाधान देख रहे हैं।

पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत जिसे ‘मुद्रास्फीति-विरोधी नीति’ कहा जाता है, यह सुनिश्चित करने का ही तरीका होती है कि मज़दूरी के हिस्से में समुचित कमी जरूर हो जाए। मिसाल के तौर पर ब्याज की दरों के बढ़ाए जाने को लिया जा सकता है। इस कदम से यह अपेक्षा की जाती है कि बैंकों से ऋण लिए जाने को हतोत्साहित करने के जरिए, मांग में कमी लायी जाएगी। लेकिन, यह शायद ही कभी संभव होता होगा कि इसका प्रभाव सिर्फ मांग को घटाने तक सीमित रहे और यह उत्पादन क्षमता के उपयोग तथा रोजगार में भी कटौती का काम नहीं करे। संक्षेप में यह कि ब्याज की दरों के बढ़ाए जाने का इस तरह का मुद्रास्फीतिविरोधी प्रभाव, तंगियों के हालात में भी होता है। इसमें, खुद ब खुद पैदा की गयी तंगियां भी शामिल हैं, जैसे अब रूस के खिलाफ लागू की गयी पाबंदियों के चलते पैदा हुई तंगियां। ऐसे मामलों में ब्याज की दरों में यह बढ़ोतरी, और ज्यादा बेरोजगारी पैदा करने के जरिए, मज़दूरों की सौदेबाजी की शक्ति घटाने के जरिए ही मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने का काम करती है। और अगर कोई तंगी नहीं हो और मुद्रास्फीति सिर्फ लागत के धक्के से पैदा हो रही हो, तब तो ब्याज की दरों का बढ़ाया जाना, सिर्फ बेरोजगारी तथा मंदी पैदा करने के जरिए ही काम करता है।

महंगाई और यूरोप में मज़दूरों का बढ़ता प्रतिरोध

बहरहाल, यह कोई आसान प्रक्रिया नहीं है। बेरोजगारी बढऩे से, मज़दूर वर्ग के मज़दूरी के दावों में कमी कोई खुद ब खुद नहीं हो जाती है। बेशक, बेरोजगारी बढऩे से मज़दूरों के संघर्ष के जीवट पर नकारात्मक असर पड़ता है। लेकिन, मज़दूरों का यह जीवट दूसरे भी अनेक कारकों पर निर्भर करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि बेरोजगारी में बढ़ोतरी होने के बाद भी, उत्पादन लागत में मज़दूरी के हिस्से में कटौती के खिलाफ मज़दूरों का प्रतिरोध बना रह सकता है। वैसे भी यहां गौर करने वाली बात यह है कि मुद्रास्फीति अपरिहार्य रूप से मज़दूर वर्ग के जुझारूपन तथा संघर्षों में बढ़ोतरी पैदा करती है।

आज अनेक विकसित पूंजीवादी देशों में, खासतौर पर योरप में हम यही होता देख रहे हैं। ब्रिटेन तो जाहिर है कि इसका शास्त्रीय उदाहरण ही है। ब्रिटेन में मुद्रास्फीति की दर जुलाई के महीने में, पिछले साल के उसी महीने के मुकाबले 10.1 फीसद पर पहुंच गयी, जो पिछले 40 साल की सबसे ऊंची दर है। और ब्रिटेन इस समय हड़तालों का ज्वार देख रहा है, रेल मज़दूरों की हड़ताल, डाक मज़दूरों की हड़ताल और गोदी मज़दूरों की हड़ताल। इन हड़तालों के केंद्र में इसकी मांग है कि मज़दूरी बढ़ायी जाए, जिससे मुद्रास्फीति के चलते, उनकी क्रय शक्ति में आयी कमी की भरपाई की जा सके। अब जबकि मुद्रास्फीति बढ़ रही है और उसके इसी साल आगे चलकर 13 फीसद तक पहुंच जाने का अनुमान है, वकील और शिक्षक भी वेतन में बढ़ोतरी की मांग कर रहे हैं।

इसी प्रकार स्पेन में, ग्रीस में तथा बेल्जियम में मज़दूर, मुद्रास्फीति की भरपाई करने के लिए मज़दूरी में बढ़ोतरी किए जाने की मांग कर रहे हैं। योरपीय आर्थिक क्षेत्र में मुद्रास्फीति, जुलाई में 8.9 फीसद पर पहुंच चुकी थी। जर्मनी तक में मज़दूरी में बढ़ोतरी की मांग को लेकर हड़तालें हो रही हैं, जबकि अब तक, योरपीय यूनियन की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में उसे कहीं कम हड़तालें देखनी पड़ती थीं। नीदरलेंड्स तथा जर्मनी, दोनों में परिवहन क्षेत्र के मज़दूरों की हड़तालें हुई हैं। नीदरलेंड्स में रेल मज़दूरों की हड़ताल हुई है और जर्मनी, विमान सेवाकर्मियों की। सर्दियों के आने के साथ हालात बदतर हो जाने वाले हैं क्योंकि रूस के खिलाफ जो पाबंदियां लगायी गयी हैं, जिनसे योरप के लिए तेल तथा प्राकृतिक गैस का प्रवाह घट जाने वाला है, इसकी सबसे बुरी मार तो सर्दियों में ही पड़ रही होगी।

मज़दूरों की हड़तालों का असर विभिन्न मालों व सेवाओं की अपूर्ति पर पड़ता है। इसलिए, अगर मूल मुद्रास्फीति आपूर्तियों में किसी तंगी की वजह से नहीं भी पैदा हुई हो तब भी, हड़तालों के चलते अपरिहार्य रूप से इस तरह की तंगियां पैदा हो जाती हैं और ये मुद्रास्फीतिकारी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का काम करती हैं।

विकसित पूंजीवादी दुनिया में बदलता वातावरण

इतने बड़े पैमाने पर हड़तालें तो विकसित पूंजीवादी दुनिया में दशकों से नहीं हुई थीं। दुनिया भर में नवउदारवादी निजाम के अपनाए जाने के चलते, पूंजी बहुत ज्यादा हावी नजर आने लगी थी और हालांकि अधिकांश देशों में इस दौर में मज़दूरी का हिस्सा घट गया था, फिर भी मज़दूरों का प्रतिरोध कमजोर हो गया था क्योंकि दुनिया भर में पूंजी की मुक्त आवाजाही के चलते, खुद उनके बीच प्रतिस्पद्र्घा और बढ़ गयी थी। मिसाल के तौर पर अगर योरप के मज़दूर, मज़दूरी में बढ़ोतरी की मांग को लेकर हड़ताल का सहारा लेते, तो वह पूंजी जो पहले ही एशिया की कम मज़दूरी वाली अर्थव्यवस्थाओं की ओर आर्थिक गतिविधियों का पुनस्र्थापन कर रही थी, इस पुनस्र्थापन को ही और भी तेज कर देती। यह विकसित दुनिया में मज़दूरी में बढ़ोतरी की मांगों को ठंडा रखने का ही काम कर रहा था।

2008 के वित्तीय संकट के बाद से चूंकि पूंजीवादी देशों में तथा खासतौर पर योरप में आर्थिक बहाली धीमी तथा ज्यादा से ज्यादा आंशिक ही रही थी, मज़दूरों के जुझारूपन के पांवों में इसने एक और बेड़ी डाल दी--बेरोजगारी से मज़दूरों की सौदेबाजी की ताकत बहुत घट गयी थी। इसी प्रकार, पूर्वी योरप में समाजवाद के पराभव के बाद, योरपीय महाद्वीप के पश्चिमी हिस्से में, सस्ता श्रम उपलब्ध हो गया था क्योंकि योरप के पूर्वी हिस्से से, पश्चिमी हिस्से की ओर श्रमिकों को पलायन हो रहा था। इसने, मज़दूरों के बीच आपसी प्रतिस्पद्र्घा को और बढ़ाया था और योरपीय यूनियन में मज़दूरियों को दबाकर रखा था।

विकसित पूंजीवादी से दुनिया की मुश्किलें और बढ़ेंगी

इसलिए, वर्तमान मुद्रास्फीति ने इस परिदृश्य में भारी बदलाव ला दिया है। महंगाई की मार तो सभी मज़दूरों पर पड़ती है, चाहे वे पूर्व से हों या पश्चिम से, चाहे उनके पास स्थायी नौकरियां हों या आंशिक रोजगार ही हो, चाहे उनकी गिनती श्रम की सक्रिय सेना में होती हो या श्रम की सुरक्षित सेना में। इसलिए महंगाई मज़दूरों के विभिन्न हिस्सों के बीच अब तक बने रहे आपसी अंतर्विरोधों का शमन करती और इसलिए उनके बीच की आपसी होड़ को भी कम कर देती है। जीवनयापन के बढ़ते खर्च से पैदा होने वाली परेशानी ही, मज़दूरों के बीच जुझारूपन को बढ़ा देती है। योरप में इसकी खुलकर अभिव्यक्ति हो रही है। इसलिए, मज़दूर वर्ग की कीमत पर मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने की प्रक्रिया, पूंंजीवाद के लिए कहीं मुश्किल काम साबित हो रही है।

बहरहाल, मौजूदा हालात की विडंबना यह है कि मुद्रास्फीति में यह तेजी काफी हद तक यूक्रेन युद्ध की पृष्ठïभूमि में आयी है। बेशक, ऐसा तो नहीं है कि मुद्रास्फीति पहले नहीं थी या उसमें तेजी नहीं आ रही थी। फिर भी, इस युुद्घ ने इस तेजी में भारी जोर पैदा कर दिया है। योरपीय यूनियन में मुद्रास्फीति की माहाना दर, जो पिछले साल के समान महीने की कीमतों से तुलना कर के निकाली जाती है, 2021 के अगस्त के 3.2 फीसद के स्तर से बढक़र, 2022 की जनवरी तक 5.6 फीसद हो गयी थी, लेकिन 2022 की जुलाई तक यही दर 9.8 फीसद पर पहुंच चुकी थी। यूके्रन युद्ध सिर्फ दो पड़ौसी देशों के बीच युद्ध भर नहीं है। यह अपने प्रभुत्व के ढहने के सामने, साम्राज्यवाद की हताशा का नतीजा है। संक्षेप में यह कि साम्राज्यवाद, विकसित दुनिया के मज़दूर वर्ग को निचोडऩे के जरिए, अपने प्रभुत्व को थामे रखने की कोशिश तो कर रहा है, लेकिन यह विकसित पूंजीवादी दुनिया को और ज्यादा मुश्किलों में ही धकेल देने वाला है।

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