Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्या अब लोकसभा उपाध्यक्ष का चुनाव भी अदालत के आदेश से ही होगा?

लोकसभा का लगभग आधा कार्यकाल बीत जाने के बावजूद जो एक महत्वपूर्ण काम लोकसभा नहीं कर सकी, वह है अपने उपाध्यक्ष यानी डिप्टी स्पीकर का चुनाव। इसके बारे में न तो सरकार कुछ बोलती है और न ही लोकसभा स्पीकर।
loksabha

मौजूदा यानी सत्रहवीं लोकसभा का गठन हुए करीब 28 महीने हो गए हैं। यानी इसका आधा कार्यकाल पूरा होने को है। इस दौरान इसके आठ सत्र हो चुके हैं। हर सत्र के बाद सरकार की ओर से दावा किया गया है कि इस सत्र के दौरान लोकसभा ने रिकॉर्ड कामकाज करते हुए कई महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित किया है। यह दावा प्रधानमंत्री और उनके संसदीय कार्य मंत्री तो करते ही रहे हैं, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला भी कहते रहे हैं कि जिस तरह से लोकसभा में काम हुआ, उससे लोकतंत्र मजबूत हुआ है।

लोकसभा में तमाम विधेयक किस तरह पारित कराए गए हैं, विधेयक पारित कराने के अलावा लोकसभा में और क्या हुआ है और उससे लोकतंत्र कितना मजबूत हुआ है, यह सब तो एक अलग बहस का विषय है। मगर लोकसभा का लगभग आधा कार्यकाल बीत जाने के बावजूद जो एक महत्वपूर्ण काम लोकसभा नहीं कर सकी, वह है अपने उपाध्यक्ष यानी डिप्टी स्पीकर का चुनाव। इसके बारे में न तो सरकार कुछ बोलती है और न ही लोकसभा स्पीकर।

आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है जब लोकसभा का लगभग आधा कार्यकाल बीत जाने के बावजूद उसके उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं हो सका है और अब यह मामला अदालत में जा पहुंचा है। लोकसभा अध्यक्ष और सरकार के लिए यह शर्म की बात है कि लोकसभा उपाध्यक्ष का चुनाव कराने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है। याचिका में अदालत से गुहार की गई है कि वह लोकसभा अध्यक्ष को जल्द से जल्द उपाध्यक्ष का चुनाव कराने का निर्देश दे।

हालांकि हाईकोर्ट ने इस बारे में लोकसभा स्पीकर या केंद्र सरकार को कोई नोटिस जारी नहीं किया है, लेकिन सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए समय देते हुए मामले की अगली सुनवाई के लिए 30 सितंबर की तारीख तय की है। अब अदालत इस मामले में कोई आदेश दे या न दे, मगर यह स्थिति बताती है कि देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था की क्या गत बन गई है और सरकार इस सबसे बड़े संसदीय निकाय को और इसके पदाधिकारियों को कितनी गंभीरता से लेती है।

यह सही है कि संविधान में ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि सदन का गठन होने के कितने दिनों के भीतर उसके उपाध्यक्ष का चुनाव होना चाहिए। इसलिए सरकार या लोकसभा अध्यक्ष की ओर से भी अदालत में यही दलील दी जा सकती है। लेकिन सवाल संसदीय परंपरा का है। संसदीय लोकतंत्र में हर चीज लिखित कानून से नहीं चलती। कई चीजें परंपरा से भी चलती हैं, अपने देश में ही नहीं बल्कि दुनिया के उन तमाम देशों में भी जिन्होंने संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया है। अपने यहां परंपरा के मुताबिक लोकसभा अध्यक्ष की तरह उपाध्यक्ष का चुनाव भी लोकसभा गठित होने के बाद पहले ही सत्र में करा लिया जाता है।

ऐसा भी नहीं है कि किसी ने सरकार को उपाध्यक्ष का चुनाव कराने याद न दिलाई हो। पिछले साल सितंबर महीने में संसद के मानसून सत्र के दौरान जब राज्यसभा के उप सभापति के चुनाव की प्रक्रिया जारी थी तब लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने स्पीकर ओम बिरला को पत्र लिख कर सदन के उपाध्यक्ष का चुनाव कराने का अनुरोध किया था। लेकिन चुनाव कराना तो दूर स्पीकर ने चौधरी को उनके पत्र का जवाब तक नहीं दिया।

हालांकि उपाध्यक्ष का चुनाव न होने की स्थिति में लोकसभा के कामकाज पर कोई असर नहीं पड़ रहा है, क्योंकि अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उनके द्वारा नामित पीठासीन अध्यक्ष मंडल के सदस्य सदन की कार्यवाही संचालित करते ही हैं। फिर भी एक भारी भरकम बहुमत वाली सरकार के होते हुए भी 28 महीने तक लोकसभा उपाध्यक्ष का चुनाव न हो पाना हैरानी पैदा करता है।

वैसे परंपरा के मुताबिक तो लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्षी दल को दिया जाता है, लेकिन यह परंपरा बीच-बीच में भंग भी होती रही है। मौजूदा सरकार का भी इस परंपरा में कोई भरोसा नहीं है और पिछली लोकसभा की तरह वह इस बार भी यह पद विपक्ष को देना नहीं चाहती है और न ही वह इसे अपने पास रख सकती है। यही वजह है कि अभी तक उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं हो पाया है।

यह पद विपक्षी दल को देने की परंपरा छठी लोकसभा से शुरू हुई थी। उससे पहले पहली लोकसभा से लेकर पांचवीं लोकसभा तक सत्तारूढ कांग्रेस से ही उपाध्यक्ष चुना जाता रहा। आपातकाल के बाद 1977 में छठी लोकसभा के गठन के बाद जनता पार्टी ने सत्ता में आने पर मधु लिमए, प्रो. समर गुहा, समर मुखर्जी आदि संसदविदों के सुझाव पर लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को देने की परंपरा शुरू की थी। उस लोकसभा में कांग्रेस के गौडे मुराहरि उपाध्यक्ष चुने गए थे।

हालांकि जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद 1980 में कांग्रेस ने जब सत्ता में वापसी की तो उसने इस परंपरा को मान्यता नहीं दी। हालांकि उसने अपनी पार्टी के सदस्य को तो उपाध्यक्ष नहीं बनाया, मगर यह पद विपक्ष पार्टी को देने के बजाय अपनी समर्थक पार्टी एआईएडीएमके को दिया और जी. लक्ष्मणन को सातवीं लोकसभा का उपाध्यक्ष बनाया। 1984 में आठवीं लोकसभा में भी कांग्रेस ने यही सिलसिला जारी रखा और एआईएडीएमके एम. थंबी दुराई को सदन का उपाध्यक्ष बनाया।

1989 में जनता दल नीत राष्ट्रीय मोर्चा ने सत्ता में आने पर जनता पार्टी की शुरु की गई परंपरा को पुनर्जीवित किया और नौवीं लोकसभा का उपाध्यक्ष पद प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को दिया। कांग्रेस के शिवराज पाटिल सर्वसम्मति से उपाध्यक्ष चुने गए। वे बाद में 1991 में दसवीं लोकसभा के अध्यक्ष भी बने। लेकिन इस लोकसभा में भी कांग्रेस ने लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्ष को न देते हुए दक्षिण भारत की अपनी सहयोगी पार्टी एआईएडीएमके को ही दिया और एम. मल्लिकार्जुनैय्या उपाध्यक्ष बने।

1997 में जब जनता दल नीत संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो उसने फिर उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को देने की परंपरा का अनुसरण किया। भाजपा के सूरजभान सर्वसम्मति से ग्यारहवीं लोकसभा के उपाध्यक्ष चुने गए। 1998 में मध्यावधि चुनाव हुए और बारहवीं लोकसभा अस्तित्व में आई। भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनी। इस सरकार ने भी अपनी पूर्ववर्ती सरकार की तरह लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को दिया। कांग्रेस के पीएम सईद उपाध्यक्ष बने। 1999 में फिर मध्यावधि चुनाव हुए और तेरहवीं लोकसभा का गठन हुआ। फिर एनडीए की सरकार बनी और पीएम सईद फिर सर्वानुमति से लोकसभा उपाध्यक्ष चुने गए।

2004 में चौदहवीं लोकसभा अस्तित्व में आई। कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए की सरकार बनी। इस बार कांग्रेस ने उदारता दिखाई और लोकसभा उपाध्यक्ष का पद विपक्षी पार्टी को दिया। अकाली दल के चरणजीत सिंह अटवाल उपाध्यक्ष चुने गए। कांग्रेस ने यह सिलसिला 2009 में पंद्रहवीं लोकसभा में भी जारी रखा। इस बार उपाध्यक्ष के पद पर भाजपा के करिया मुंडा निर्वाचित हुए। लेकिन 2014 में सोलहवीं लोकसभा में यह स्वस्थ परंपरा फिर टूट गई। भाजपा सरकार ने यह पद कांग्रेस का साथ छोडकर अपनी सहयोगी बन चुकी एआईएडीएमके को दे दिया। एम. थंबी दुराई तीन दशक बाद एक बार फिर लोकसभा उपाध्यक्ष चुने गए।

अब सत्रहवीं लोकसभा को अपने उपाध्यक्ष के चुने जाने का इंतजार है। यह तो स्पष्ट है कि भाजपा यह पद विपक्षी पार्टी को नहीं देगी, लेकिन वह अपने सहयोगी दलों में से भी इस पद के लिए किसी का चुनाव नहीं कर पा रही है। पिछली लोकसभा में उपाध्यक्ष रहे थंबी दुराई इस बार चुनाव हार गए हैं। इस लोकसभा में एआईएडीएमके का महज एक ही सदस्य है और वह भी पहली बार चुनाव जीता है। दक्षिण भारत में भाजपा के पास दूसरी कोई सहयोगी पार्टी नहीं है। भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना अब उसके साथ नहीं है। दूसरे सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल ने भी खेती और किसानों से संबंधित विवादास्पद कानूनों का विरोध करते हुए न सिर्फ सरकार से बल्कि एनडीए से भी नाता तोड लिया है।

एनडीए में भाजपा अपनी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी जनता दल (यू) के हरिवंश नारायण सिंह को पहले ही राज्यसभा का उप सभापति बना चुकी है। चूंकि हरिवंश बिहार का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिए भाजपा लोकसभा उपाध्यक्ष का पद बिहार की अपनी दूसरी सबसे बडी सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी को भी नहीं दे सकती।

अब ऐसे में रह जाती हैं ऐसी पार्टियां, जो घोषित तौर पर सरकार की सहयोगी तो नहीं हैं लेकिन सरकार को संसद उसके आडे वक्त में मदद करती रहती हैं। ऐसी दो पार्टियां हैं- ओडिशा का बीजू जनता दल और आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस। इन दोनों पार्टियों ने राज्यसभा में कई विधेयकों को पारित कराने में सरकार की मदद की है। लेकिन दोनों ही पार्टियां अपने किसी सांसद को उपाध्यक्ष बनाने की पेशकश ठुकरा चुकी हैं। यही वजह है कि सरकार उपाध्यक्ष का चुनाव अभी तक टालती आ रही है।

लेकिन अब चूंकि मामला अदालत में पहुंच गया है और अगर अदालत ने इस संबंध में कोई आदेश पारित कर दिया तो सरकार के लिए चुनाव टालना मुश्किल हो जाएगा। ऐसी स्थिति में यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार किसे इस पद पर बैठाती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest