Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

दफ़्तरों में अभी भी नहीं हैं महिलाएं सुरक्षित, कैसे रुकेगा कामकाजी औरतों का यौन उत्पीड़न?

ताज़ा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार देशभर में काम करने वाली लगभग 50 फ़ीसदी महिलाएं अपने कामकाजी जीवन में कम से कम एक बार यौन शोषण का शिकार हुई हैं।
sexual harasment
प्रतीकात्मक तस्वीर।

शायद आपको याद हो बीते साल दिल्ली की एक अदालत ने पूर्व केंद्रीय मंत्री एम.जे. अकबर के महिला पत्रकार प्रिया रमानी के ख़िलाफ़ आपराधिक मानहानि के मामले में फ़ैसला सुनाते हुए प्रिया रमानी को बरी कर दिया। इस फैसले को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामले में मील का पत्थर कहा गया। हालांकि दफ़्तरों और कामकाजी जगहों पर यौन उत्पीड़न कोई नई बात नहीं। लेकिन नई बात ये है कि अब इसके ख़िलाफ़ ज़ोर-शोर से आवाज़ उठाई जा रही है। लोग खुलकर इस मसले पर बात कर रहे हैं। पहले जहां महिलाएं इसे नियति मानकर सिर झुकाकर मंज़ूर कर लेती थीं। वहीं, अब वो इसका विरोध कर रही हैं। इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रही हैं।

बता दें कि मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के अलग-अलग राज्यों के दफ्तरों में महिलाओं के साथ यौन शोषण हो रहा है। सबसे बड़ी बात की यौन शोषण के लाख-दो लाख नहीं बल्कि कुल 70.17 लाख मामले सामने आए हैं। रिपोर्ट के अनुसार देशभर में काम करने वाली लगभग 50 फीसदी महिलाएं कम से कम एक बार अपने करियर लाइफ में यौन शोषण का शिकार हुई हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अभी भी बहुत सी ऐसी महिलाएं हैं, जो इस अपराध का शिकार हुई हैं, लेकिन लोक-लाज के डर से वो शिकायत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाईं।

हिंदी बेल्ट के राज्य सबसे ज़्यादा असुरक्षित

रिपोर्ट में उन राज्यों के बारे में भी खुलासा हुआ है, जो कामकाज के लिहाज़ से महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित हैं। महिलाओं के लिए जो 10 सबसे असुरक्षित राज्य हैं, उनमें 8 हिंदी बेल्ट के राज्य हैं। दफ्तर में सबसे ज्यादा यौन शोषण के मामले दिल्ली से सामने आए हैं। यहां से 11.2 लाख शिकायतें सामने आई हैं, जिनमें महिलाओं ने आरोप लगाया है कि उनके साथ दफ्तर में यौन शोषण हुआ है। वहीं दूसरे नंबर पर पंजाब है। पंजाब में इस तरह की कुल 10.5 लाख शिकायतें केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को मिली हैं। जबकि गुजरात इस मामले में तीसरे नंबर पर है। यहां 10.4 लाख महिलाओं ने दफ्तर में अपने साथ होने वाले यौन शोषण को लेकर शिकायत दर्ज की है। चौथे नंबर पर आंध्र प्रदेश है, जहां 9.31 लाख महिलाओं ने ये शिकायत की है। 5वें नंबर पर उत्तर प्रदेश है यहां कुल 5.53 लाख महिलाओं ने शिकायत की है कि उनके साथ ऑफिस में यौन शोषण हुआ है। इसके बाद झारखंड, महाराष्‍ट्र, तमिलनाडु, बिहार और मध्‍य प्रदेश का नंबर आता है, जहां कामकाजी महिलाओं के साथ ऑफिस में सबसे ज्यादा यौन शोषण हो रहा है।

ध्यान रहे कि हाल ही में जारी एक अन्य रिपोर्ट में दावा किया गया था कि देश की टॉप 100 कंपनियों में यौन शोषण के मामले बहुत ज्‍यादा हैं। इन कंपनियों से साल 2019-20 में Metoo कैंपेन के दौरान 999 शिकायतें सामने आई थीं। 2020-21 में 595 मामले रिपेर्ट हुए, जबकि 2021-22 में सर्वे तक 759 शिकायतें आईं। इन कंपनियों में यौन उत्पीड़न पर आधिकारिक रिपोर्ट पूरी सच्चाई नहीं बताती हैं। दफ़्तर में छोटे कर्मचारी अक्सर इसके शिकार होते हैं। वो पीड़ित होने के बावजूद ख़ामोशी अख़्तियार करना बेहतर समझते हैं। कई बार तो उनकी शिकायतें भी अनसुनी कर दी जाती हैं।

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न मामले में क़ानून क्या कहता है?

भारतीय क़ानून में 'किसी के मना करने के बावजूद उसे छूना, छूने की कोशिश करना, यौन संबंध बनाने की मांग करना, सेक्शुअल भाषा वाली टिप्पणी करना, पोर्नोग्राफ़ी दिखाना या कहे-अनकहे तरीक़े से बिना सहमति के सेक्शुअल बर्ताव करना'- को यौन उत्पीड़न माना गया है।

साल 2013 में 'सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ़ वुमेन ऐट वर्कप्लेस (प्रिवेन्शन, प्रोहिबिशन एंड रिड्रेसल)' लाया गया, जो ख़ास तौर पर काम की जगह पर लागू होता है। इसमें यौन उत्पीड़न की परिभाषा तो वही है, लेकिन उसे जगह और काम से जोड़ दिया गया है। यहाँ काम की जगह का मतलब सिर्फ़ दफ़्तर ही नहीं, बल्कि दफ़्तर के काम से कहीं जाना, रास्ते का सफ़र, मीटिंग की जगह या घर पर साथ काम करना, ये सब शामिल है।

ये क़ानून सरकारी, निजी और असंगठित सभी क्षेत्रों पर लागू है। ये औरतों को अपने काम की जगह पर बने रहते हुए कुछ सज़ा दिलाने का उपाय देता है। यानी ये जेल और पुलिस के कड़े रास्ते से अलग न्याय के लिए एक बीच का रास्ता खोलता है, जैसे संस्था के स्तर पर अभियुक्त के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई, चेतावनी, जुर्माना, सस्पेंशन, बर्ख़ास्त किया जाना वगैरह।

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न क़ानून 2013 में बना है। उसके पहले के यौन उत्पीड़न के मामलों पर ये क़ानून लागू नहीं हो सकता। इसलिए उसके पहले के जितने भी यौन उत्पीड़न के मामले हैं, उसे 2013 के क़ानून के तहत नहीं ट्रायल किया जा सकता है। इससे पहले दफ़्तरों में यौन-उत्पीड़न के मामलों को देखने के लिए विशाखा गाइडलाइन्स का पालन किया जाता था। ये राजस्थान की भंवरी देवी का ही संघर्ष था, जो सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइन साल 1997 में जारी की थी।

साल 2018 में पत्रकार प्रिया रमानी ने भारत में चले #MeToo मूवमेंट के वक़्त एक पत्रिका में एक साल पहले लिखे आर्टिकल को ट्वीट किया था। पूरा मामला 1993 दिसंबर का था। आर्टिकल में पत्रकार के तौर पर इंटरव्यू के वक़्त मुंबई के एक होटल में एमजे अकबर उनके साथ कैसे पेश आए और उस दौरान वो कितना असहज महसूस कर रही थी, उसका उन्होंने सिलसिलेवार तरीक़े से विवरण लिखा था। उस वक़्त कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न का क़ानून नहीं था।

अपने ट्वीट में प्रिया रमानी ने ये भी स्पष्ट लिखा था कि उन्होंने पहले कभी एमजे अकबर का नाम नहीं लिया था, क्योंकि उन्होंने 'कुछ नहीं किया' था। लेकिन प्रिया ने उस पूरे वाक़्ये को एक अनकहे तरीक़े का उत्पीड़न बताया था।

इसे भी पढ़ें: प्रिया रमानी की जीत महिलाओं की जीत है, शोषण-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सच्चाई की जीत है!

इस मामले में अदालत के फ़ैसले ने सेक्शुअल हैरेसमेंट की उसी परिभाषा को दोहराया था, अदालत ने अपने फ़ैसले में उसी 'अनकहे उत्पीड़न' की बात को स्वीकार किया था, जिसका प्रिया ने जिक्र किया था। जज ने अपने फ़ैसले में लिखा था कि कई बार महिला यौन उत्पीड़न शब्द के साथ जुड़े 'शर्म' की वजह से भी सामने नहीं आती है। इसलिए महिलाओं के पास दशकों बाद भी अपनी शिकायत को स्वेच्छा से किसी भी प्लेटफ़ॉर्म पर रखने का का अधिकार है।

सिविल और क्रिमिनल लॉ के तहत दर्ज होने वाले मामले

प्राप्त जानकारी के मुताबिक मामूली शिक़ायतों को छोड़ कर क्रिमिनल लॉ के तहत गंभीर अपराधों में शिक़ायत करने या मामला दर्ज़ कराने के लिए समय सीमा निर्धारित नहीं होती है, सिविल लॉ में समय सीमा निर्धारित की जा सकती है। इसलिए पुराने यौन उत्पीड़न के मामले कभी भी खोले जा सकते हैं। कानून के अनुसार अगर महिला दफ़्तर की आईसीसी में शिक़ायत करना चाहती है, तो उसे तीन महीने के अंदर शिक़ायत करनी होगी। अगर पुलिस के पास जा कर शिक़ायत करनी है, तो उसके लिए 'लिमिटेशन पीरियड' नहीं है। लेकिन हर देरी के लिए ठोस स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है।

ध्यान रहे कि यहाँ एक बात जो समझने वाली है वो ये कि जब यौन उत्पीड़न की शिक़ायत आप अपने दफ़्तर की बनी इंटर्नल कंप्लेन कमेटी (ICC) के सामने करते हैं, तो वो सिविल मामला होता है। लेकिन अगर उस मामले को लेकर आप पुलिस के पास जाते हैं, तो वो क्रिमिनल यानी आपराधिक मामला हो जाता है। आईसीसी में यौन उत्पीड़न की शिकायत करने के लिए 3 महीने की समय सीमा निर्धारित है। लेकिन आईपीसी में 2013 के बाद धारा 354 (यौन उत्पीड़न की धारा) में कुछ बदलाव कर नए सेक्शन जोड़े गए और 'लिमिटेशन पीरियड' को ख़त्म कर दिया गया। 2013 के पहले आईपीसी की धारा 354 में ये 'लिमिटेशन पीरियड' तीन साल का था।

प्रिया रमानी केस में अदालत ने स्पष्ट किया कि यौन उत्पीड़न की शिक़ायत के मामले में समय सीमा तब मायने नहीं रखती, जब क़ानूनी प्रावधान नहीं हो या संस्था में उन क़ानूनी प्रावधानों का पालन ठीक से नहीं हो रहा हो. इस फ़ैसले में ये बात कही गई है कि जब संस्थानों में यौन उत्पीड़न रोकने के प्रावधान ठीक से काम नहीं कर रहे हों, तो किसी दूसरे प्लेटफ़ॉर्म का सहारा ले कर अपनी बात कहना ग़लत नहीं है।

गौरतलब है कि यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाएं अक्सर डिप्रेशन और सदमे की शिकार हो जाती हैं। इसका असर उनके करियर, उनकी तरक़्क़ी पर भी पड़ता है। उनकी बुरी हालत से साथी कर्मचारी भी प्रभावित होते हैं। ऐसे कई मामले सामने आते हैं जहां कई महिलाओं को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है, जिन्होंने यौन उत्पीड़न के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई। श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी वैसे ही लगातार कम होती जा रही है। ऐसे में सरकार और तमाम दफ़्तरों की जिम्मेदारी है कि वो कामकाज के माहौल को संवेदनशीय और महिलाओं के योग्य बनाएं। जिसमें लोग सम्मान के साथ काम कर सकें। उनके मानवाधिकारों का हनन न हो। कर्मचारियों को इसके लिए वक़्त-वक़्त पर ट्रेनिंग दी जानी चाहिए। तभी आधी आबादी अपना पूरा आसमान छू पाएगी।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest