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विश्व पर्यावरण दिवस 2022: ‘सिर्फ़ एक धरती’

कई वर्षों से हम 5 जून के दिन पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर बहुत सजग हो जाते हैं। लेकिन फिर... चार-पांच दिन बीत जाने के बाद हमारा सारा जोश एकदम ठंडा पड़ जाता है। फिर हमें किसी पॉलिथीन, कूड़े या फैक्ट्री से उठते धुएं से कोई फर्क नहीं पड़ता। जंगल के हो रहे अंधाधुंध कटान से भी हम हैरान-परेशान नहीं होते।
World Environment Day 2022

पर्यावरण सुरक्षा विश्व का सबसे सामान्य व ज्वलनशील मुद्दा है। इस विषय पर चर्चा व परिचर्चा तो दुनिया के हर कोने में होती है, लेकिन इन चर्चा-परिचर्चा से निकले सुझावों को अमल में बहुत कम लोग ही लाते हैं। कई वर्षों से हम 5 जून के दिन पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर बहुत सजग हो जाते हैं। इतना कि रास्ते में बिखरे कूड़े, प्लास्टिक वह पॉलिथीन को अपने हाथों से उठा कर सीधा कूड़ेदान में डाल देते हैं। हमारे साथ साथ बहुत सी सरकारी वह गैर सरकारी संस्थाएं भी इस दिन पेड़ लगाने व पर्यावरण बचाने का संदेश देती हैं।

इस दिन पर्यावरण के लिए हमारी भावुकता इतनी ज्यादा होती है कि हम पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली तमाम कंपनियों को भर भरकर गालियां देकर खूब कोसते हैं। इस दौरान हम इसके लिए जिम्मेदार सरकारों व राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और उनकी नीतियों पर भी खूब हमलावर हो जाते हैं। लेकिन चार-पांच दिन बीत जाने के बाद हमारा सारा जोश एकदम ठंडा पड़ जाता है। फिर हमें किसी पॉलिथीन, कूड़े या फैक्ट्री से उठते धुएं से कोई फर्क नहीं पड़ता। जंगल में हो रहे अंधाधुंध पेड़ों के कटने से भी हम हैरान या परेशान नहीं होते हैं। फिर हम अपनी रोजमर्रा के जीवन को ही प्राथमिकता देते हैं व पर्यावरण का मुद्दा अगले 5 जून तक हमारे लिए गौण हो जाता है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ने वर्ष 1974 में पहली बार विश्व पर्यावरण दिवस को मनाया था और यह तय किया कि हर वर्ष 5 जून के दिन विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाएगा। इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस "ओनली वन अर्थ -लिविंग सस्टेनेबली इन हारमोनी विद नेचर" की विषय वस्तु के साथ मनाया जा रहा है व स्वीडन इस कार्यक्रम की मेजबानी कर रहा है।

विश्व पर्यावरण दिवस को मनाते हुए हमें पूरे 48 वर्ष हो गए हैं लेकिन कुछ सवाल हमेशा से ही ज़ेहन में कौंधते रहते हैं। उदाहरण स्वरूप जब मनुष्य जीवन प्रकृति की ही उपज है तो फिर क्यों हम अपने लालच के अंधेपन में प्रकृति को समाप्त करने पर तुले हैं ? यदि हम इसी तरह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते रहे तो क्या यह धरती आने वाली पीढ़ियों के जीवन जीने के लिए अनुकूल रहेगी? यदि महज़ पर्यावरण दिवस को मना कर ही पर्यावरण सुरक्षित हो सकता है तो पिछले 48 वर्षों में कोई बदलाव क्यों नहीं आया? क्यों आज भी हमें पर्यावरण को बचाने के लिए इस विशेष दिन की आवश्यकता है?

विश्व पर्यावरण दिवस की विषय वस्तु की प्रासंगिकता को जानने से पूर्व हमें वर्तमान समय में हमारी प्रकृति की मौजूदा स्थिति को जानने की आवश्यकता है। वर्तमान समय में पूरी दुनिया पर जो सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है वह जलवायु परिवर्तन। इसके अलावा औद्योगिकरण व भूमंडलीकरण की नीतियां इत्यादि भी पर्यावरण को प्रदूषित करने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। धरती पर मनुष्य द्वारा आर्थिक मुनाफे की अंधी दौड़ के चलते जिस तरह औद्योगिक प्रदूषण फैलाया जा रहा है उसके कारण धरती की जलवायु लगातार परिवर्तित हो रही है, नतीजतन हमें भूमंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) का सामना करना पड़ रहा है।

भूमंडलीय ऊष्मीकरण से ओजोन परत निरंतर घटती जा रही है व सैकड़ों बीमारियां जैसे मलेरिया पीला बुखार चिकनगुनिया वह मच्छरों से फैलने वाली अनेक अनेक बीमारियां बढ़ रही हैं क्योंकि वातावरण गर्म होने से मच्छरों को अनुकूल परिस्थितियां मिलती हैं। भूमंडलीय ऊष्मीकरण से जंगल की आग या वाइल्ड फायर को भी बढ़ावा मिलता है जिस कारण वहां पर रहने वाले अनेक जीव जंतु व वनस्पति भी खतरे की जद में आ गई हैं। इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग का असर मौसम व कृषि पर भी पड़ता है। जैव विविधता जो जीवन चक्र व पर्यावरण को स्थिर रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है वह भी भूमंडलीय ऊष्मीकरण से अत्यंत खतरे में है। इन सबके अलावा सबसे अधिक खतरा उन लोगों व शहरों को है जो तटीय इलाकों में बसे हैं। क्योंकि लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियर सामान्य से ज्यादा गति से पिघल रहे हैं। ऐल्प्स की पहाड़ियों के ग्लेशियर इसके सबसे ताजा उदाहरण है। यदि ऐसा होता रहा तो सब सभी महासागरों के किनारे बसे करोड़ों लोगों की जान को खतरा है क्योंकि ग्लेशियर पिघलने के कारण समुंदर का जलस्तर धीरे धीरे बढ़ता जा रहा है।

एक अध्ययन के मुताबिक यदि ग्लोबल वार्मिंग इसी गति से बढ़ती रहे तो वर्ष 2030 तक सभी महासागरों का जलस्तर 20 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा व कई शहर जिसमें मुंबई भी शामिल है, डूबने की कगार पर खड़े होंगे। हाल ही में आप सभी ने चेन्नई शहर की खबर तो पढ़ी ही होगी कि वहां पर पूरा का पूरा भूमिगत जल समाप्त हो चुका है यह खतरे की घंटी है जो लगातार हमारे सामने चुनौती पेश कर रही है कि अगर हम अब भी नहीं रुके तो बहुत देर हो जाएगी।

जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर हालांकि बहुत सी राष्ट्रीय व वैश्विक संस्थाएं हमेशा से ही सचेत रही हैं वह बहुत से प्रयास भी कर रही हैं लेकिन पूंजीवादी देशों की साम्राज्यवादी व औद्योगिक मुनाफे की नीतियों के चलते हुए वे हमेशा से ही असफल हो रही है। उदाहरण स्वरूप वर्ष 1996 में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर क्योटो प्रोटोकॉल के समझौते को अधिकतर देशों ने माना लेकिन कनाडा जैसे बड़े देश ने मानने से इनकार कर दिया था। वर्ष 2015 में हुए परिस एग्रीमेंट को भी मिडिल ईस्ट के कई देशों ने मानने से इनकार कर दिया था। यूएसए ने पहले इस मुद्दे पर हस्ताक्षर किए लेकिन बाद में डोनाल्ड ट्रंप की सरकार ने इस समझौते को मानने से इंकार कर दिया था। हालांकि जो बाइडन सरकार ने वर्ष 2021 में पेरिस एग्रीमेंट से पुनः जुड़ने की बात कही है। यह साफ दर्शाता है कि दुनिया के तमाम शक्तिशाली और साम्राज्यवादी देश अपनी मनमर्जी से किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौते से जुड़ते हैं वह अपनी इच्छा अनुसार उस अनुबंध को तोड़ भी देते हैं। किसी भी वैश्विक संस्था में इतनी ताकत नहीं है कि वह इन शक्तिशाली देशों को पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर एकजुट होने के लिए बाध्य कर सके। जबकि दुनिया के तमाम राष्ट्र इस बात को पूरी तरह से समझने में सक्षम है कि पेरिस एग्रीमेंट ने साफ तौर पर यह समझ विकसित की थी कि जलवायु परिवर्तन में स्थिरता लाने हेतु सभी राष्ट्रों को अपना कार्बन उत्सर्जन 2 डिग्री तक कम करना होगा ताकि ग्लोबल वॉर्मिंग पर लगाम लगाई जा सके।

पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर भारत की स्थिति और भी ज्यादा भयभीत करने वाली है। आज भारत में जलवायु को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक जनसंख्या विस्फोट, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, भूमि क्षरण, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन, सॉलि़ड वेस्ट व वायु प्रदूषण इत्यादि हैं। वर्ष 2021 में वायु गुणवत्ता सूचकांक द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार 4000 से भी ज्यादा शहरों की वायु गुणवत्ता को मालूम किया गया तो दुनिया के 50 सबसे प्रसिद्ध प्रदूषित शहरों में 47 शहर भारत के थे। यह साफ दर्शाता है कि हमारे देश के शहर जहां हम वह हमारा परिवार अपना पूरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं वह कितने प्रदूषित हैं।

आज अब देश के किसी भी शहर में चले जाएं तो हम यह पाते हैं कि वहां सॉलि़ड वेस्ट जगह जगह खुले में बिखरा पड़ा रहता है। हमारे देश की अधिकतर जनता आजादी के 75 सालों बाद भी झुग्गी झोपड़ियों में रहने व खुले में शौच करने के लिए मजबूर हैं। ऐसे में वे अनेक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं वह उन्हें अपना पूरा जीवन इन्हीं परिस्थितियों में व्यतीत करना पड़ता है। लेकिन हमारी सरकारें उन्हें महज एक वोट के अलावा कुछ भी नहीं समझती। इससे बड़ा दुर्भाग्य हमारे देश का कुछ भी नहीं हो सकता।

अमेरिका का येल विश्वविद्यालय पिछले कई वर्षों से पर्यावरण निष्पादन सूचकांक (EPI) का सर्वे कर रहा है। वर्ष 2020 में करवाए गए ईपीआई सर्वे में भारत का स्थान इस सूचकांक के अनुसार 168वां था जबकि उसमें कुल 180 देशों को लिया गया था। यह साफ दर्शाता है कि पर्यावरण के मुद्दे पर भारत के हालात कितने खस्ताहाल हैं। पर्यावरण सुरक्षा के पहलू पर भारत की स्थिति देखकर एक बात जरूर याद आती है कि जितना हम औद्योगिक प्रदूषण को बढ़ावा देंगे उतनी ही भयावह स्थिति हमारे वातावरण की होगी।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनुष्य जीवन पर्यावरण का एक छोटा सा अंग है और इस धरती पर आने वाली पीढ़ियों का जीवन तभी संभव हो सकता है जब यहां का वातावरण जीवन जीने के लिए अनुकूल होगा। समाज का एक बहुत छोटा लेकिन प्रभावशाली सा लगातार अपनी साम्राज्यवादी व औद्योगिक मुनाफाखोरी की नीतियों को आगे बढ़ा कर हमारी सुंदर प्रकृति को प्रदूषित कर तहस-नहस करने की कोशिश कर रहा है निरंतर पूरी दुनिया को अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रहा है। लेकिन दूसरी ओर समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा छोटे छोटे स्तर पर अपनी पूरी ताकत के साथ कोशिश कर रहा है कि कैसे इस धरती वह पर्यावरण को इन पूंजीवादी मुनाफा खोरो से सुरक्षित रखा जाए ताकि यहां का वातावरण आने वाली पीढ़ियों के जीवन जीने हेतु अनुकूल बना रहे। हम सभी को आज एक रास्ता चुनने की आवश्यकता है कि हमें किस दिशा की ओर जाना है।

इस वर्ष पर्यावरण दिवस के उपलक्ष पर यूएनईपी की विषय वस्तु (ओनली वन अर्थ -लिविंग सस्टेनेबली इन हारमोनी विद नेचर) को सर्वप्रथम समझने व तत्पश्चात आत्मसात करने की आवश्यकता है। हम सभी को यह समझने की आवश्यकता है कि पूरे ब्रह्मांड में अभी तक मात्र धरती ही एक ऐसा ग्रह है जहां जीवन जीने के लिए अनुकूल वातावरण है। यदि हम इसे ही प्रदूषित होने देंगे तो आने वाले समय में यहां केवल जीव जंतु व वनस्पति ही नहीं अपितु मनुष्य जीवन भी विलुप्त हो जाएगा। धरती पर लंबे समय के लिए मानव जीवन तभी तक संभव है जब तक हम प्रकृति के साथ सद्भावना को कायम रखते हुए अपने जीवन का निर्वहन करेंगे।

अतः हम सभी को यह दृढ निश्चय करने की आवश्यकता है कि पर्यावरण के प्रति हमारी यह सद्भावना महज़ 5 जून तक सीमित ना रह कर वर्ष के 365 दिन रहे वह ताउम्र रहे। आज हममें से बहुत से लोग पर्यावरण सुरक्षा हेतु व्यक्तिगत स्तर पर प्रयासरत हैं लेकिन अब समय आ गया है कि हम इस दिशा में संगठित होकर एक आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करें और इस आंदोलन को जन आंदोलन बनाकर इसे और व्यापक करें।

आज हमें जनजातीय क्षेत्र में रहने वाले लोगों से सीखने की आवश्यकता है की वह कैसे प्रकृति के साथ अपना सामंजस्य स्थापित कर हमारे वन्यजीवों के साथ साथ प्राकृतिक संपदाओं की भी सुरक्षा कर रहे हैं। हमें समाज के हर इंसान को अपने साथ जोड़ कर सरकारों पर दबाव बनाकर उन्हें पर्यावरण सुरक्षा हेतु उनकी नीतियों को पर्यावरण के अनुकूल बनवाकर उसे महज कागजों तक सीमित न रखकर धरातल पर उतारने का प्रयास करना होगा। इसके साथ हमें पूरे विश्व में मौजूद साम्राज्यवादी व औद्योगिक मुनाफाखोरी को बढ़ावा देने वाली ताकतों द्वारा प्रकृति व पर्यावरण को प्रदूषण के जाल में फंसाने की तमाम कोशिशों पर अंकुश लगाते हुए उनके दीर्घकालिक भयानक दुष्प्रभावों के विपरीत प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए एक सतत जीवन शैली को अपनाने हेतु एक जनवादी आंदोलन को तैयार करने की दिशा में अपने संघर्षों को तेज करने की आवश्यकता है।

(लेखक एसएफआई के पूर्व हिमाचल प्रदेश अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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