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यमुना खादर: फ्लाईओवर के नीचे बांस-लकड़ियों के स्कूल पर चला बुलडोज़र, ग़रीब बच्चे शिक्षा से महरूम!

इस इलाक़े के आस-पास कोई सरकारी स्कूल नहीं है। जो स्कूल हैं वो कई किलोमीटर दूर हैं, ऐसे में इन अस्थाई स्कूलों के सहारे ही यहां के बच्चों की शिक्षा मिल रही है।
Yamuna khadar

इस हफ़्ते राजधानी दिल्ली में सियासत के कई मुद्दे हावी रहे लेकिन एक मुद्दा जो शायद ज़रूरी होकर भी ज़रूरी नहीं समझा गया वो था, यमुना नदी के किनारे बने वनफूल स्कूल का बुलडोज़र से ढहा दिया जाना। ये स्कूल सरकारी या प्राइवेट नहीं था बल्कि पूर्वी दिल्ली में डीएनडी और मयूर विहार के नज़दीक यमुना खादर में बारापुला फ्लाईओवर पुल के नीचे बांस और लकड़ियों से बना अस्थाई स्कूल था, जिसे एक मध्यवर्गीय परिवार के नौजवान नरेश पाल कुछ ग़ैर-सरकारी संगठनों की मदद से चलाते थे। उनका मक़सद इस इलाक़े में रहने वाले ग़रीब मज़दूर-किसानों के बच्चों को शिक्षा के ज़रिए आगे बढ़ाना था, जिससे उन्हें अपने परिवार वालों की तरह दिहाड़ी मज़दूरी नहीं करनी पड़ी। ये स्कूल कोरोना महामारी के दौरान काफ़ी चर्चा में रहा था।

बता दें कि 11 जनवरी को लोक निर्माण विभाग यानी पीडब्ल्यूडी के आदेश पर इस स्कूल को बुलडोजर से तोड़ दिया गया। यहां क़रीब 200 मज़दूरों-किसानों के बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। स्कूल चलाने वाले लोगों का आरोप है कि पुलिसवालों ने बिना नोटिस के सब कुछ बर्बाद कर दिया। इस पूरी कार्रवाई पर पीडब्ल्यूडी का कहना है कि सरकारी ज़मीन को लेकर किसी को नोटिस देने की ज़रूरत नहीं होती है। बहरहाल, इस मामले में क़ानून क्या सही है, क्या ग़लत ये तब बेमानी हो जाता है जब यहां पढ़ने वाले बच्चे शिक्षा से महरूम हो जाते हैं। इस इलाक़े के आस-पास कोई सरकारी स्कूल नहीं है। जो स्कूल हैं वो कई किलोमीटर दूर हैं, जिसके चलते लड़कियों और छोटे बच्चों को तो लोग डर के मारे नहीं भेजते। हाईवे रोड की वजह से दुर्घटना का डर अलग से है। इसके अलावा यहां रास्तों से बच्चा-चोरी के भी केस हो चुके हैं। ऐसे में नरेश पाल जैसे ही एक-दो लोगों के सहारे यहां के बच्चों को शिक्षा मिल रही है।

क्या है पूरा मामला?

मयूर विहार फेज-1 मेट्रो से सटे इस इलाक़े में ज़्यादातर लोग किसानी और मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करते हैं। यहां हज़ारों ग़रीब परिवार दशकों से बिना मूलभूत सुविधाओं के अपना गुज़र-बसर कर रहे हैं। यहां रह रहे लोगों के पास वोट देने के लिए वोटर आईडी कार्ड तो है लेकिन पानी, बिजली, स्कूल, शौचालय और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं। लोग यहां अस्थाई झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं और बाढ़ आने पर मयूर विहार की सड़कों पर भूखे-प्यासे बैठने को मजबूर हो जाते हैं। यहां के कई निवासियों को राशन कार्ड, आधार कार्ड होने के बावजूद राशन और सरकारी मदद नहीं मिल पा रही है।

शिक्षा हमारे देश में मूलभूत अधिकार है, लेकिन संसद और दिल्ली विधानसभा से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बसा ये इलाक़ा शिक्षा से पूरी तरह महरूम है। नरेश पाल जिनका स्कूल ढाहा गया वो मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बदायूं के रहने वाले हैं। मयूर विहार इलाक़े में रहकर ही उन्होंने बीए और मास्टर्स की पढ़ाई की और फिलहाल, राजस्थान की सिंघानिया यूनिवर्सिटी से सोशल वर्क में पीएचडी भी कर रहे हैं।

पुलिस ने सामान ख़ाली करने का भी समय नहीं दिया

इस पूरे प्रकरण पर उन्होंने मीडिया को बताया कि वनफूल पाठशाला को उन्होंने ग़रीब बच्चों के लिए शुरू किया था। स्कूल अस्थाई और सरकारी ज़मीन पर था, इसलिए इसे बांस, टिन-शेड और नट-बोल्ट से बनाया गया था, ताकि जब कभी भी हमें ख़ाली करने को कहा जाए तो इसे आसानी से ख़ाली किया जा सके। लेकिन प्रशासन ने इसे तोड़ने से पहले हमें कोई भी लिखित जानकारी नहीं दी। जिसके चलते स्कूल में रखा लाखों का सामान भी बर्बाद हो गया। ये सामान अलग-अलग एनजीओ और व्यक्तिगत फंडिंग से मिले थे। स्कूल में कोविड राहत से जुड़े कुछ सामान भी थे, जो उन्होंने महामारी के दौरान लोगों को बांटने के लिए जुटाए थे।

नरेश का आरोप है कि पुलिस ने उन्हें 5 मिनट का भी समय नहीं दिया और स्कूल को गिराना शुरू कर दिया। उन्होंने पुलिस वालों से 2 घंटे का समय मांगा, लेकिन उनकी एक भी नहीं सुनी गई और पुलिसवालों ने सिर्फ़ इतना कहा कि इस जगह पर व्यवसायिक गतिविधि हो रही है। नरेश कहते हैं कि उनके अलावा कुछ दूसरे लड़के और लड़कियां भी यहां अपने पॉकेट ख़र्च पर पढ़ाया करते थे। ऐसे में व्यावसायिक गतिविधि का कहां सवाल है।

यमुना किनारे बसे इस इलाक़े के कुछ लोगों ने न्यूज़़क्लिक को बताया कि ये स्कूल 1993 से यहां चल रहा था। हालांकि पहले ये स्कूल एक पेड़ के नीचे चल रहा था लेकिन कोविड के दौरान कई लोगों और एनजीओ की मदद से स्कूल को रीकंस्ट्रक्ट कर छोटे-छोटे क्लासरूम की शक्ल दी गई ताकि बच्चों को मौसम की मार से भी बचाया जा सके और एक परंपरागत स्कूल का अनुभव बच्चे कर सकें।

इस इलाक़े में रहने वाली सावित्रि देवी कहती हैं, “सरकार एक स्कूल तो खोल नहीं रही हमारे बच्चों के लिए और जो यहां चल रहा है, उसे भी बंद करने पर तुली है। क्या करे हम लोग, कहां जाएं। बच्चे अभी नहीं पढ़ेंगे तो बड़े होकर इनको भी हमारे जैसे मेहनत मज़दूरी ही करनी पड़ेगी।"

सरकारी स्कूल के सवाल पर सावित्रि बताती हैं कि सरकारी स्कूल यहां से दो-तीन किलोमीटर दूर है, ऐसे में बच्चों को वहां तक अकेला कैसे छोड़े, फिर स्कूल के समय के बाद काम-काज छोड़कर वापस लेकर कैसे आएं। हम मज़दूर-किसान के पास इतना कहां समय है, जो इन बच्चों को इतनी दूर ले जाए-ले आएं। पास में होता स्कूल तो अकेले भी बच्चा को छोड़ दें, आस-पास वाला भी मदद कर दे।

अगर वनफूल जैसे स्कूल गिराए जाने लगेंगे, तो यहां के बच्चे कैसे पढ़ेंगे?

अमेंद्रपाल इस इलाक़े में कई सालों से खेती करते हैं और अपने परिवार के साथ झुग्गी में गुज़र-बसर करते हैं। वो कहते हैं कि इस बार के नगर-निगम चुनाव में यहां के लोगों ने स्कूल का मुद्दा उठाया था। पार्टियों ने वादा भी किया था कि जीतने के बाद इस दिशा में काम करेंगे। 15 साल से एमसीडी में बीजेपी थी, अब केजरीवाल जी आ गए। यहां भी आप की प्रत्याशी जीतीं लेकिन स्कूल का मुद्दा सुलझाने के बजाय और गहराता दिखाई दे रहा है। अगर वनफूल जैसे स्कूल गिराए जाने लगेंगे तो यहां के बच्चे कैसे पढ़ेंगे।

ग़ौरतलब है कि राजधानी दिल्ली का ये इलाक़ा यमुना किनारे बसा हुआ है और लगभग हर साल बाढ़ की चपेट में आता है। कई जानकार बताते हैं कि इसका ज़्यादातर हिस्सा डीडीए यानी दिल्ली विकास प्राधिकरण के क्षेत्र में आता है, जिसके चलते यहां झुग्गी-झोपड़ी अवैध निर्माण हैं और कई बार बुलडोज़र भी चलाने की कोशिश हुई है। और शायद यही वजह है कि यहां के लोग बुनियादी सुविधाओं के वंचित रह जाते हैं। हालांकि अगर यही यहां की समस्याओं का मूल कारण है फिर एक सवाल और महत्वपूर्ण हो जाता है कि इन लोगों को यहां का वोट बैंक कैसे बना दिया गया, मतदाता पहचान पत्र इस इलाक़े का कैसे बना और अगर ये सब हुआ तो फिर इन्हें सुविधाएं क्यों नहीं मिलीं। क्या यहां के लोग सिर्फ़ वोट के काम आते हैं, नेता उनके किसी काम नहीं।

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