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अधूरी लड़ाई को समेटने आज होते सैक्रामेंटो में अम्बेडकर और चम्बल में मार्टिन लूथर किंग

वह दोनों आज अन्याय के खिलाफ लड़ते, अपराधियों को सजा दिलाते और इसी के साथ रंग और नस्ल और जाति से ऊपर उठकर सभी मेहनतकशों की एकता बनाने की अथक कोशिश करते। 
baba saheb

व्यक्तियों की पहचान अंततः उनके उन उद्देश्यों से जुडी होती है जिनके लिये किये गए संघर्ष उनके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं, उनकी शख्सियत में रंग भरते हैं । पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध में डॉ. भीमराव अम्बेडकर और उत्तरी गोलार्ध में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ऐसे ही दो व्यक्ति हैं : संघर्षों के मूर्तमान व्यक्तित्व । एक ने अस्पृश्यता और जातिभेद के उत्पीड़न के खात्मे में अपनी जिंदगी खर्च की थी तो दूसरे ने अपनी जान की आहुति देकर अमरीका में जारी कुत्सित रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई की ज्वाला को तेज किया । 4 अप्रैल 2018 को मार्टिन लूथर किंग जूनियर की शहादत को 50 वर्ष पूरे हुये - 14 अप्रैल को डॉ. अंबेडकर (जिनके लिए  "बाबा साहब" का लोकप्रिय संबोधन उनके संघर्षों के अभिन्न कम्युनिस्ट साथी कामरेड आर बी मोरे ने दिया था ) की 127 वीं जन्मतिथि हैं ।

याद करने का सही तरीका सामयिक परिस्थितियों में व्यक्तियों की उपस्थिति से जोड़कर देखना होता है । जैसे यह तलाशना कि ये दोनों यदि आज होते तो कहाँ होते ? क्या कर रहे होते ?

बाबा साहब, मार्टिन लूथर किंग के  संयुक्त राज्य अमरीका के सैक्रामेंटो शहर में कालों और रँगभेदविरोधी गोरों के जलूस की अगुआई कर रहे होते और मार्टिन लूथर किंग, अम्बेडकर के हिन्दुस्तान में मुरैना के उत्तमपुरा-भिंड के मछंड-ग्वालियर के गल्ला कोठार और भीम नगर में दलितों और उनके अधिकारों के लिए लड़ने वाले गैर दलित नागरिकों-कामरेडों के साथ सडकों पर पैदल मार्च कर रहे होते : उस मिशन को पूरा करने के लिए जो क़ानून की किताबों में तो दर्ज हो गया मगर असली जिंदगी में अभी भी आभासीय बना हुआ है ।

उन घटनाओं के खिलाफ आवाज उठा रहे होते  जिन्होंने एक बार पुनः साबित किया है कि वास्तविक जिंदगी और यथार्थ की तो छोड़िये, अभी क़ानून और न्यायप्रणाली की नज़रों में भी समानता हासिल करने के लिए संयुक्त राज्य अमरीका और भारत दोनों को बहुत काफी करना बाकी है ।

बाबा साब 22 साल के युवा स्टीफ़न क्लार्क के लिए इन्साफ मांग रहे होते जिसे 18 मार्च को सैक्रामेंटो के उसकी दादी के आँगन में एक गोरे पुलिसिये ने धड़ाधड़ एक के बाद एक 8 गोलियां - छह पीठ में, एक एक गर्दन और जांघ में - मारकर हलाक़ कर दिया था । पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक 3 से 10 मिनट में स्टीफन के प्राण निकल गए थे । उसे अस्पताल ले जाते तो शायद वह बच जाता । 
उसके हाथ में हथियार होने की पुलिस की कहानी का सच यह निकला कि जिसे वह पिस्तौल समझे थे वह मोबाइल फ़ोन था । बाबा साब इस युवा के हत्याकांड के खिलाफ लड़ाई में होते, जरूरी होता तो काला कोट पहन कर अमरीका की अदालत में खड़े होते । उन अमरीकी अदालतों में जिनका शर्मनाक रिकॉर्ड गोरे और रंगभेदवादी पुलिसियों और हत्यारों को आमतौर से बरी कर देने का है ।

मार्टिन लूथर किंग जूनियर चम्बल आते और अपनी यात्रा की शुरुआत ग्वालियर के गल्ला कोठार से करते जहां 2 अप्रैल को ठीक स्टीफन क्लार्क की उम्र 22 साल के दीपक जाटव को गोली से उड़ा दिया गया। वे दीपक के परिजनों के साथ सड़क पर दरी बिछाये बैठे सीपीएम सांसद सोमप्रसाद टीम के साथ होते।  

क्लार्क और दीपक को मारने वाली हिंसा के पीछे की विचार-कुत्सा एक जैसी थी। फर्क इतना भर था कि दीपक को मारने वाले की सुरक्षा का बंदोबस्त उस पर गैर इरादतन ह्त्या की दफा 308 लगाकर पुलिस ने अदालत पहुँचने से पहले ही कर दिया था। एक और फर्क यह था कि दीपक अकेला नहीं था - उस जैसे 8 और हैं जिन्हे जातिदंभ के मनोरोगियों ने ग्वालियर, मुरैना और भिंड में भून डाला।  नीयत अभी भी नहीं भरी है इसलिए मुरैना के उत्तमपुरा से लेकर भिंड के मछंड तक से डरावनी तैयारियों की खबरें आ रही हैं। हाँ, एक गुणात्मक अंतर और था ; स्टीफन क्लार्क को मारने वाला सार्जेंट गोली चलाते समय 'लॉन्ग लिव जीसस क्राइस्ट' के नारे नहीं लगा रहा था।  जबकि इधर गोली के धमाके, मृत्यु के आर्तनाद के बीच जय श्रीराम के नारों का सिंहनाद भी था। 

विज्ञान और समाज के इतने आगे बढ़ जाने के बाद भी अमरीका में रंगभेद और हिन्दुस्तान में जातिभेद की मुखर होती तीव्रताएँ अनायास नहीं हैं।  इनका आधार से अटूट रिश्ता है।  उधर ट्रम्प जब अमरीकी मेहनतकशों की पगारों-नौकरियों-सुविधाओं और चिकित्सा सहूलियतों में कटौती थोपते हैं, रोजगार और जीवन दशाओं में सुधार करने में नाकामयाब रहते हैं तो उन्हें जनता के साझे प्रतिरोध को बिखेरने के लिए रंग-नस्ल और नागरिकता के विभाजनों को उभारना बहुत काम की चीज लगती है।  इधर खोखले जुमलों के बबंडर पर सवार होकर अवतरित हुए चौतरफा असफलताओ के अंधड़ से घिरे मोदी जब फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट थोपते हैं, किसानों की आत्महत्याओं की फसल को खाद-पानी देते हैं और रोजगार अवसरों पर कार्पोरेटी  मुनाफे का बुलडोकर चलाते हैं तो प्रभावितों को गुमराह करने के लिए कमण्डल जनेऊ और तलवार - धर्म की पूंछ और जाती श्रेष्ठता की मूंछ ही दिखाई देती है। 

हालांकि विरोधों की चौंध इस तरह के कुहासों से कमजोर नहीं पड़ती। इस बार भी ऐसा ही होगा।  बहरहाल यहां मसला यह भी है कि वे किस तरह के होने चाहिए। 

प्रतिरोध की दिशा और आयाम इस बात से तय होते हैं कि हमले किस तरह के हैं। इसके लिए डॉ. अम्बेडकर और मार्टिन लूथर किंग जूनियर को उस तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए, जिस तरह उनके हत्यारे या दुश्मन पढ़वाना चाहते हैं।  बल्कि उस तरह से पढ़ा जाना चाहिए जिस तरह इन दोनों ने जीकर बताया ; मनसा, वाचा और कर्मणा, हर प्रकार से। 

बाबा साहब को महज दलितों का मसीहा और कुछ अत्युत्साही चतुरों द्वारा उन्हें सवर्ण विरोधी बना देने से वह लड़ाई कभी नहीं जीती जा सकती जिसे उन्होंने शुरू किया था।  ऐसा करने का मतलब महाराष्ट्र ब्राह्मण सभा के अध्यक्ष के उस जाल में फंस जाना होगा जो उन्होंने अम्बेडकर  द्वारा मनुस्मृति के दहन के समय फैलाया था और बाबा साहब उसमे नहीं फंसे थे।  इस डेढ़ सयाने अध्यक्ष ने मनुस्मृति दहन के समय स्वयं उपस्थित रहने की पेशकश की थी मगर शर्त राखी थी कि खुद अम्बेडकर आग लगाएं। अपने आजीवन सहयोगी सहस्रबुद्दे से न लगवाएं। डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि लड़ाई ब्राह्मणवाद नामक शासनप्रणाली से है, उसके विचार से है - इसे जातियों को एक दूसरे के विरुध्द खड़ा करके,लड़ा करके  नहीं जीता जा सकता, जातियों का ध्वंस और विनाश करके ही इसे मुकाम तक पहुंचाया जा सकता है।  1936 में अपनी पहली राजनीतिक पार्टी - इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी - बनाते समय बाबा साहब ने इसे और समग्र तरीके से सूत्रबध्द किया था।  उन्होंने आर्थिक शोषण और सामाजिक शोषण दोनों से एक साथ मिलकर लड़ने की बात की थी। इसलिए आज डॉक्टर साब का अमरीका के सैक्रामेंटो में होना तय था। 

इसी तरह मार्टिन लूथर किंग सिर्फ अश्वेतों के नेता भर नहीं थे।  उन्होंने मेम्फिस के सैनिटेशन वर्कर्स (सफाई मजदूरों) के बीच बोलते हुए कहा था कि "अमरीकी अश्वेतों - अफ्रीकन अमेरिकन्स -की मांगे और जरूरतें वही हैं जो सभी मजदूरों की हैं ; समुचित वेतन, बेहतर कार्यदशाएँ, रहने योग्य आवास, बुढ़ापे की सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य तथा कल्याणकारी सुविधाएं, ऐसे हालात जिनमे परिवार उन्नति कर सकें, खुद पढ़ सकें अपने बच्चों को पढ़ा सकें, समाज में सम्मान प्राप्त कर सकें। " 

जैसा कि अम्बेडकर ने कहा था उसे किंग जूनियर के शब्दों में कहें तो "अंतिम विजय अनेक छोटी छोटी मुठभेडों का संचित जोड़ होती है। " 

अंतिम जीत के इन्तजार में रोजमर्रा की भिड़ंतों और प्रतिरोधों की अनदेखी दोतरफा चूक है।  एक ; यह जनता को खुद होकर लड़ने से हासिल आत्मविश्वास और इस दौरान बनी एकता से वंचित कर देती है।  दूसरे ; यह रोजमर्रा के टकरावों के महत्त्व और उन्हें और सौद्देश्य तथा बहुआयामी बनाने के अवसर से वंचित कर देती है , 

मार्टिन लूथर किंग आज चम्बल के इन तीनों जिलों और डॉ. बी आर अम्बेडकर सैक्रामेंटो में बैठकर यही कर रहे होते ; अन्याय के खिलाफ लड़ते, अपराधियों को सजा दिलाते और इसी के साथ रंग और नस्ल और जाति से ऊपर उठकर सभी मेहनतकशों की एकता 
बनाने की अथक कोशिश करते। 

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