अगर इजाज़त हो तो हम रोज़ी-रोटी के मुद्दे पर बात कर लें!

भारत-पाकिस्तान के बीच भीषण तनाव का एक दौर बीत चुका है, हालांकि ये अभी ख़त्म नहीं हुआ है। हमारे विंग कमांडर अभिनंदन घर आ चुके हैं और हमारे नेता एक बार फिर चुनाव में जुट गए हैं। हालांकि बीजेपी और प्रधानमंत्री मोदी ने इस दौरान कभी भी एक पल के लिए भी चुनाव प्रचार रोका नहीं। इसके बीच सवाल उठता है कि इस सब का हासिल क्या रहा? और अब आगे क्या?
सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ सुरक्षा की बारीकियों पर बात करेंगे।
एयर स्ट्राइक में तीन सौ मरे या तीन ये सवाल भी हम नहीं पूछेंगे।
हां, ये सवाल आज भी हमारे लिए बना हुआ है कि पुलवामा हमले का ज़िम्मेदार कौन है, आख़िर किस की लापरवाही या कमी की वजह से हमनें अपने 40 जवानों को खो दिया, जबकि 48 घंटे पहले खुफिया इनपुट मिल चुका था कि इस तरह का कोई हमला हो सकता है।
ये हम पूछेंगे कि वो कौन था जिसने सीआरपीएफ के इतने बड़े काफिले जिसमें दो से ढाई हज़ार जवान और 70-72 गाड़ियां थीं किसने एक साथ मूव करने का आदेश दिया था। हम ये भी पूछेंगे कि कई बार सिफारिश के बाद भी क्यों भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने ऐसे मौकों पर जवानों को एयरलिफ्ट करने की अनुमति नहीं दी।
सर्जिकल स्ट्राइक पार्ट-2 या बालाकोट में एयर स्ट्राइक में वाकई कोई आतंकी मारा गया भी है या नहीं, ये सवाल हम पक्ष और विपक्ष दोनों के लिए छोड़ देते हैं, कि वे क्या पूछते हैं और क्या जवाब देते हैं। हालांकि अब बहुत से आम लोग भी इसको लेकर सवाल पूछ रहे हैं कि एयर स्ट्राइक का नतीजा क्या वाकई चार पेड़ और एक कौवा की मौत ही रही! अब तो एक केंद्रीय मंत्री एसएस अहलुवालिया ने ही कह दिया है कि मौत का आंकड़ा हमारे पास नहीं है। उनका कहना है कि संख्या को लेकर सरकार ने कभी कोई दावा नहीं किया। वायुसेना भी ऐसा ही कह रही है और विदेश मामलों की संसदीय समिति के सामने पेश हुए विदेश सचिव विजय गोखले ने भी ऐसा ही जवाब दिया। हालांकि ये सच है कि 26 फरवरी को बालाकोट पर हमले के बाद की गई प्रेस कॉन्फ्रेंस में विदेश सचिव ने कोई निश्चित संख्या तो नहीं बताई थी लेकिन एक लार्ज नंबर यानी हताहतों की बड़ी संख्या होने का जिक्र ज़रूर किया था। उन्होंने कहा कि “आज सुबह-सुबह, भारत ने बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के सबसे बड़े प्रशिक्षण शिविर पर प्रहार किया। इस ऑपरेशन में, बहुत बड़ी संख्या में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी, वरिष्ठ कमांडर, प्रशिक्षक और आतंकी हमलों के प्रशिक्षण के लिए आये हुए जिहादियों के समूहों को समाप्त कर दिया गया। बालाकोट की इस आंतकी प्रशिक्षण संस्था का नेतृत्व जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अज़हर के साले मौलाना यूसुफ अज़हर उर्फ उस्ताद गौरी कर रहे थे। विदेश सचिव का ये बयान विदेश मंत्रालय के मीडिया सेंटर पर भी उपलब्ध है।
इसके बाद “ऑफ द रिकार्ड” या “सूत्रों” के बहाने बड़ी संख्या में मौतों का दावा बाहर आया। सूत्र बताते हैं कि ये भी सरकारी सूत्रों और नेताओं की ओर से ही ‘लीक’ किया गया था। युद्धप्रेमी और सरकार परस्त कई चैनल पहले दिन और पहले घंटे से ही चीख रहे हैं कि बालाकोट में हुई एयर स्ट्राइक में 300 से लेकर 350 तक जैश के आतंकी मारे गए। कई उत्साही चैनलों ने ये संख्या 600 के पार कर दी थी। ख़ैर ये चैनल अपने दावों और ऐलानों पर अब खेद नहीं जताएंगे। वे तो जैश का सरगना मसूद अज़हर के मारे जाने को लेकर नई स्टोरी बुनने में व्यस्त है कि वो जिंदा या मारा गया। मारा गया तो बीमारी से मरा या भारत की एयर स्ट्राइक में। वगैहरा...वगैहरा। इसी तरह नेता भी खासतौर से सत्तारूढ़ दल के नेता आज भी संख्या को लेकर ऐसे ही बढ़ा-चढ़ाकर दावा कर रहे हैं।
मैं खुश हूं कि जंग के बादल फिलहाल छंट गए। लेकिन मोदी समर्थक ही निराश हैं। मुझसे कुछ मोदी समर्थकों ने ही कहा कि लग रहा है कि “खाया-पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारा आना!” बदला-बदला चिल्लाने वाले ही कुछ ‘दोस्त’ अफसोस में हैं कि हमने ही पुलवामा में अपने 40 जवान खोए, हमने ही अपना एक मिग विमान खोया और हमारे ही विंग कमांडर अभिनंदन को पाकिस्तान ने पकड़ लिया और छोड़कर एहसान जता दिया। फिर हमारी कैसी जीत हुई? आख़िर इस हमले का उद्देश्य क्या था, मकसद क्या था।
तो मकसद तो मोटा-मोटा यही समझ में आता है कि दोनों देशों की जनता दुखी है और अपने-अपने यहां अच्छे दिन चाहती है। हमारे देश में साढ़े चार पहले बाकायदा इसका वायदा किया गया था लेकिन वो अच्छे दिन कभी आए नहीं। अब अच्छे दिन आए नहीं, काला धन वापस आया नहीं, 15 लाख एकाउंट में पहुंचे नहीं। रोज़गार है नहीं, बेरोज़गारी अपने रिकार्ड स्तर पर है। तो सरकार के सामने बड़ा संकट था।
पिछले कुछ समय से युवा, छात्र, किसान, मज़दूर लगातार सड़क पर उतर रहे थे। बीते साल में किसानों के कई बड़े आंदोलन हुए और अभी 29-30 नवंबर, 2018 को देशभर के किसानों ने दिल्ली में धावा बोला। इसी तरह औद्योगिक मज़दूरों ने 8-9 जनवरी, 2019 को दो दिन की बड़ी हड़ताल की। इसमें संगठित-असंगठित क्षेत्र के करीब 20 करोड़ मेहनतकश मज़दूर और कर्मचारी शामिल हुए। इस सबके अलावा स्कीम वर्कर आशा, आंगनबाड़ी, मिड-डे मील वर्कर आदि लगातार आंदोलन कर रहे हैं।
युवा-छात्रों ने अभी बीती 7 फरवरी में “यंग इंडिया अधिकार मार्च” और उसके बाद छात्रों और शिक्षकों ने 17-18 फरवरी को संसद मार्च किया।
इसी सबके बीच पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने तीन बड़े राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपनी सत्ता गंवा दी।
मंदिर आंदोलन चला नहीं, पहले एससी-एसटी एक्ट में बदलाव तो अब उच्च शिक्षा संस्थानों में 13 प्वाइंट रोस्टर जैसे फैसलों ने दलित-पिछड़ों, अध्यापकों और बुद्धिजीवियों को सरकार के खिलाफ खड़ा कर दिया।
इस बीच रफ़ाल के मामले ने भी सरकार को खूब कठघरे में खड़ा किया। “चौकीदार ही चोर है” जैसा नारा जनता के बीच काफी दूर तक पहुंच गया तो फिर अब आख़िरी रास्ता क्या था?
राजनीति के जानकारों का कहना है कि पाकिस्तान से एक सीमित युद्ध या युद्ध जैसा माहौल ही इस सरकार के लिए ज़रूरी था। वे तो काफी समय से इसी की आशंका जता रहे थे और अंत में वही हुआ।
कुछ जानकारों का तो यहां तक कहना है कि दोनों ही सरकारों यानी भारत और पाकिस्तान के बीच एक समझौते के तहत ये सब कारनामा हुआ है। वहां इमरान ख़ान अभी सरकार में आए हैं और यहां नरेंद्र मोदी जा रहे हैं दोनों को अपनी छवि मज़बूत करनी है तो दोनों के बीच युद्ध-युद्ध के खेल से बेहतर कौन सा खेल हो सकता है! हालांकि इस बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। और ऐसे मामले में अपनी सरकार पर इस तरह शक करना ठीक नहीं लगता लेकिन देशहित में कुछ सवालों पर गहराई से सोचने की तो ज़रूरत है ही कि कहीं देश के नाम पर देश से तो ही नहीं खेला जा रहा।
कहने वाले कह रहे हैं कि ये तय था कि पुलवामा से उठे गुस्से को शांत करने के लिए कुछ तो करना पड़ेगा। पुलवामा हमले के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जिम कार्बेट पार्क में डिस्कवरी चैनल के लिए फिल्म की शूटिंग करने और एक चुनाव सभा को संबोधित करने की ख़बरें बाहर आने के बाद हुई शर्मिंदगी से तो ये बहुत ज़रूरी हो गया था कि कुछ “कड़ा जवाब” दिया जाए। इसलिए ये तय हुआ कि पहले भारत एयर स्ट्राइक कर सुनसान में बम-वम गिरा ले और फिर पाकिस्तान अपने बचाव में ऐसा ही कुछ जवाब दें। फेस सेविंग के लिए दुनिया में कई बार ऐसे खेल हुए हैं। इसके बाद दोनों देशों के मीडिया ने जिस तरह वार हिस्टीरिया पैदा किया उसने भी बड़ा डर और शक पैदा किया।
बीजेपी को जानने वाले, बीजेपी को चाहने वाले भी अब ये सवाल करने लगे हैं। विंग कमांडर के पाकिस्तान की गिरफ़्त में होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का “मेरा बूथ-सबसे मज़बूत” कार्यक्रम करने से तो कई बड़े और कड़े बीजेपी समर्थक भी निराश हुए।
और अब जब बीजेपी समर्थकों के बीच ये ख़बरें पहुंच रही हैं कि आतंकवादियों या पाकिस्तान को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है तो वे और निराश हैं। हालांकि इससे डर ये भी है कि फिर हताशा में कोई और ख़तरनाक़ कदम न उठा लिया जाए जिससे जंग की संभावना एक बार फिर बढ़ जाए, क्योंकि सीमाओं पर अभी भी गोलाबारी जारी है।
ख़ैर इससे आगे निकलें तो कूटनीति स्तर पर भी दुनिया में भारत की स्थिति कोई मज़बूत नहीं हुई है। अबूधाबी में हुए इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी के सम्मेलन में भारत को ज़रूर पाकिस्तान की कीमत पर बुलाया गया, हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को अतिथि बनाया गया लेकिन उसके बाद में जारी किए गए सयुंक्त बयान से भारत का पक्ष मजबूत नहीं होता, बल्कि इसमें जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर कई नसीहते दी गई हैं। कांग्रेस भी इस पर सवाल उठा रही है। इतना ही नहीं अमेरिका तो हमारे मामलों में हस्तक्षेप कर ही रहा था, जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बातों से भी जाहिर था, क्योंकि उन्होंने एयर स्ट्राइक से पहले ही कह दिया था कि भारत कुछ बड़ा करने वाला है और विंग कमांडर को छोड़े जाने के ऐलान से पहले ही घोषणा कर दी थी कि भारत-पाकिस्तान के बीच से कोई अच्छी ख़बर आने वाली है। इससे लग रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप को पहले ही इस सबकी खबर थी और उनकी ही इजाजत से ये सब हुआ है, लेकिन अब तो अमेरिका की शह पर सऊदी अरब जैसा छोटा देश भी भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्ता करने की बात कर रहा है। पता चला है कि सऊदी के क्राउन प्रिंस ने दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों से बात की और अब सऊदी के विदेश राज्यमंत्री भारत-पाकिस्तान का दौरा करने की भी ख़बरे हैं। रूस और चीन भी इस सब मामलें में निगाह रखे हैं और लगातार सलाह दे रहे हैं।
तो क्या हमने सिर्फ चुनाव के लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाई है? ये सवाल अब गांव स्तर तक जा रहा है। बीजेपी के ही नेता बीएस येदियुरप्पा तो इन एयर स्ट्राइक और शहादतों से सीटों के नफा-नुकसान भी लगा चुके हैं। हालांकि इसके बाद उन्होंने अपने बयान पर सफाई भी दी।
अब जब चुनावी राजनीति तेज़ हो रही है और बाकायदा चुनाव घोषित होने वाले हैं तो क्या अब हमें यानी मीडिया को जनता के बुनियादी सवालों और सरोकारों पर नहीं लौट आना चाहिए। हमारी जनता को भी क्या अब एक बार फिर पूरी मज़बूती से अपने रोज़ी-रोटी के सवालों को नहीं उठाना चाहिए। पूछा ही जाना चाहिए कि कहां हैं हमारे हिस्से के अच्छे दिन? कहां है हमारा रोटी-रोज़गार? इसी में हमारा-आपका और हमारे देश का भला है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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