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आईपी पर समर्पण: कभी वापस न लौटने की तरफ

सरकार ने बौद्धिक संपदा की सुरक्षा पर एक स्पष्ट दृष्टि तैयार करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा को एक अवसर के रूप में चुना है (कुछ हफ़्ते पहले इस कॉलम में रिपोर्ट के रूप में पेश किया था) और इस दौरे के तहत सरकार ने भारतीय आईपी प्रणाली में नए मौलिक परिवर्तन लाने का वायदा किया है। मज़े की बात है कि जब 2005 में संसद में भारत के पेटेंट कानून में संशोधन किया जा रहा था और उसे ट्रिप्स(TRIPS) के अनुकूल बनाया जा रहा था उस वक्त की भारतीय जनता पार्टी की समझ आज की समझ के विपरीत थी।

संसद में पेटेंट कानून में संशोधन पर बहस के दौरान भाजपा नेता वी.के. मल्होत्रा ने कहा था: "सरकार इस बिल के परिणामों और लोगों पर कठिनाइयों के बढ़ते बोझ के लिए अब पूरी तरह जिम्मेदार होगी"। भाजपा के वरिष्ठ नेता, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा ने आगे कहा कि 'उत्पाद पेटेंट' निजाम भारतीय जेनेरिक दवा उद्योग के लिए एक मौत का दरवाज़ा साबित  होगा, जिसके परिणामस्वरुप, कई अफ्रीकी देश भारत में कम लागत से बनी एड्स विरोधी दवाओं से वंचित रह जायेंगे। भाजपा, उस वक्त जब  'उत्पाद पेटेंट' निजाम पर और भारतीय जेनेरिक दवा उद्योग पर उसके प्रभाव और पेटेंट दवाओं की सस्ती दवाइयां न बना पाने पर जो अपनी चिंता व्यक्त कर रही थी, ने अब अपना रुख उस पर पूरी तरह बदल दिया है। उस वक्त विपक्ष में बैठी भाजपा की कथनी को यूपीए सरकार को शर्मिंदा करने की एक चाल के रूप में देखा जा सकता है। यूपीए ने हालांकि संसद में जिस अन्तिम पेटेंट कानून को पास कराया, उसने काफी हद तक ट्रिप्स समझौते के तहत कई 'स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों' को शामिल किया जिसमें (उच्च पेटेंट मानकों, अनिवार्य लाइसेंस, पूर्व और बाद के अनुदान के प्रति विरोध का प्रावधान, आदि) शामिल है और जिसके तहत भारत में गरीब मरीजों और कई अन्य विकासशील देशों पर ट्रिप्स के अनुरूप कानून के प्रभाव को कम करने के लिए बनाया गया था। वास्तव में, कई टिप्पणीकारों ने बाद में भारतीय पेटेंट कानून को एक  'मॉडल कानून' के रूप में माना।

2005 के भारतीय पेटेंट अधिनियम पर हमला

2005 का भारतीय पेटेंट अधिनियम, जब से बना है, बड़ी दवा उद्योगों और उनके देशों जिसमें उत्तरी अमरीका और यूरोप शामिल है से काफी आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओ का शिकार रहा है। अमरीका यकीनन अपनी फार्मा कंपनियों का सबसे शक्तिशाली और मुखर समर्थक रहा है, खासकर वह भारतीय कानून के खिलाफ जहर उगलने में विशेष रूप से सक्रिय रहा है। अपनी 'स्पेशल 301 की 2005 की रिपोर्ट में, अमरीका के व्यापार प्रतिनिधि ने कहा: “अमेरिका दवा उद्योग ने भारत के पेटेंट कानून में कमियों की रिपोर्ट किया है हमें उम्मीद है कि वे इसे दुरुस्त करेंगे। हम बारीकी से भारत के पेटेंट कानून में संशोधन के कार्यान्वयन की निगरानी करेंगे ।" भारत, वास्तव में, 1979 के बाद से USTR की 'प्राथमिकता की सूची' पर रहा है। 2014 की शुरुवात की कई रिपोर्टों में कहा गया कि भारत को USTR की 'प्राथमिकता विदेश देश सूची' में नीचे की ओर धकेला जाएगा और जिसके आधार पर (अपने घरेलू कानून के तहत) भारत के खिलाफ एकतरफा व्यापार प्रतिबंध लगाने की अनुमति होगी। हालांकि ऐसा नहीं हुआ, अमरीका बौद्धिक सम्पदा के जुड़े मुद्दों से विशेषतौर पर हाल ही के वर्षों में भारत से काफी नाखुश रहा है। 2013 की अपनी ‘स्पेशल 301’ रिपोर्ट में USTR ने दो मुद्दों पर काफी प्रतिकूल टिप्पणियां की – स्विस बहुराष्ट्रीय निगम नोवातिस को ल्यूकीमिया की दवाई(ग्लीवेक) का पेटेंट प्रदान न करने पर और भारतीय जेनेरिक कम्पनी NATCO को केंसर विरोधी दवाई (नेक्सावर) को बनाने के लिए अनिवार्य लाइसेंस को न देने पर। हाल ही में अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों ने अमेरिका के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आयोग के अंतर्गत भारत की कथित आईपी 'संरक्षणवाद' की जांच की मांग की है।

अमेरिकी सरकार और उसके दवा उद्योग के लगातार 'अमेरिकी हितों के विपरीत' होने की वजह

से उन्होंने भारत के पेटेंट कानून और उसकी प्रशासनिक प्रक्रियाओं में कई क्षेत्रों की पहचान की है। इसमें भारतीय अधिनियम में पेटेंट के उच्च मानक शामिल हैं - मौजूदा पेटेंट संरक्षण में धारा 3 (डी) जो मौजूद दवाओं में तुच्छ परिवर्तन भी बर्दाश्त नहीं करती है, बौद्धिक संपदा कानूनों की 'अपर्याप्त' प्रवर्तन, 'उदार' अनिवार्य लाइसेंस प्रावधानों, और परीक्षण डेटा की रक्षा के लिए कानून की कमी आदि शामिल है। विवादास्पद मुद्दा, भारतीय कानून है, इन सभी क्षेत्रों में, ट्रिप्स संगत है और इसलिए कानूनी तौर पर तर्कसंगत है। इसके अलावा, इन सभी आपत्तियों, पर अगर कार्यावाही की जाती है तो आगे चलकर लाखों गरीब रोगियों के लिए दवाओं का मिलना मुश्किल हो जाएगा।

नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ भारतीय पेटेंट अधिनियम पर हमला

अमेरिकी प्रशासन बौद्धिक संपदा संरक्षण पर अपने कानूनों और प्रक्रियाओं को बदलने के लिए भारत पर दबाव बनाना जारी रखे हुए है, और साथ ही भारत में आईपी संरक्षण के बारे में उसके कथन में एक निरंतर बदलाव आ रहा है। 2005 में भारतीय अधिनियम में स्वास्थ्य सुरक्षा उपायों का समावेश, अपने आप में आकस्मिक था – चूँकि उस समय यूपीए सरकार का वाम दलों पर निर्भरता का कारक मौजूद था। इस प्रकार, एक तरह से, भारत की अपेक्षाकृत 'प्रगतिशील' पेटेंट व्यवस्था, अपनी स्थापना के बाद से, भारत के दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति के साथ हाथ से निकल रहा है – ये भाजपा और कांग्रेस हैं जो इस कानून में बदलाव पर आमादा है जो बड़ी तेज़ी से नव-उदारवादी सुधार को लागू करना चाहते हैं। यूपीए सरकार जो पूरी तरह से खुद पर इस कानून को लादना नहीं चाहती थी, सरकार भारतीय अधिनियम में निहित लचीलापन के संभावित लाभ की पूरी वसूली कभी नहीं करना चाहती थी। इस प्रकार, पिछले नौ सालों में पेटेंट एकाधिकार को तोड़ने के लिए केवल एक अनिवार्य लाइसेंस ही जारी किया गया। जाम्बिया और जिम्बाब्वे जैसे देशों ने इस मामले में हमसे बेहतर किया है! उच्च अदालत के कुछ फैसलों ने सकारात्मक काम किया है और भारत के पेटेंट अधिनियम के बुनियादी सिद्धांतों को बरकरार रखा है, कथित आईपी उल्लंघन से जुड़े मामलों में जेनेरिक निर्माताओं के खिलाफ पक्षीय रोक देने वाले अदालतों के फैसले के खिलाफ एक बेचैन प्रवृत्ति पायी गयी है। भारतीय पेटेंट परीक्षकों और न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए अमेरिका और यूरोपीय संघ के पेटेंट कार्यालय के प्रतिनिधियों को आमंत्रित करना जारी रखने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। भारत में कई पेटेंट दिए जा रहे हैं, अगर भारतीय कानून को सही ढंग से पेटेंट परीक्षकों द्वारा व्याख्या की गई होती तो उनके द्वारा मस्टर पारित नहीं किया गया होता।है

                                                                                                                               

नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों के पिछ्लग्गुपन से औद्योगिक आचरण में परिवर्तन आ रहा है। विकसित देश में निर्यात बाजार में उनकी रुचि को देखते हुए, भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियों ने तेजी से विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ गठजोड़ किया हैं। स्वास्थ्य सेवा में खराब निवेश के चलते दवाओं के लिए घरेलू मांग में ठहराव आया है, बड़ी संख्या में भारतीय कंपनियों के लिए विस्तार का प्रमुख स्रोत यूरोपीय संघ और अमेरिका में इसका निर्यात बाजार है। हाल ही  में एक ताजा मामला आया है जिसके तहत भारत में  हेपेटाइटिस सी की दवा, सोराफेनिब के निर्माण और वितरण के लिए अमेरिका आधारित गिलाद विज्ञान के साथ सिप्ला समेत कई भारतीय कंपनियों ने स्वैच्छिक लाइसेंस के लिए हस्ताक्षर किए है। 13 साल पहले सिप्ला ने बड़ी फार्मा कंपनियों के खिलाफ महंगी दवाई बेचने का आरोप लगाया था और उसने खुद के नेतृत्व में एचआईवी-एड्स दवाओं को उन कंपनियों के मुकाबले 1/40 की कीमत की पेशकश की और दुनिया भर में एचआईवी-एड्स रोगियों के लाखों लोगों के भाग्य को बदल दिया था। सिप्ला ने 2014 में ऐसा करने से इनकार कर दिया और बड़ी फार्मा के साथ मिल गयी क्योंकि पिछले 15 वर्षों में देश में, कानूनी, आर्थिक और राजनीतिक माहौल में बड़ा परिवर्तन आया है।

भाजपा ने जन स्वास्थ्य को समर्थन करने का ढोंग छोड़ दिया

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, यह, कोई आश्चर्य के रूप में नहीं आना चाहिए कि नरेंद्र मोदी की राजग सरकार ने निर्णायक सार्वजनिक स्वास्थ्य लक्ष्यों के पालन को त्याग दिया है, जिसे यूपीए सरकार ने नाममात्र के लिए बरकरार रखा था। एक स्वयंभू शासन की एक निर्णायक शैली की वजह से, भाजपा ने अपने इरादों के बारे में सभी संदेहों को दूर कर दिया है। भाजपा की योजना के बारे में पहला संकेत उसका वाणिज्य मंत्री था, 8 सितंबर को निर्मला सीतारमण ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा: कि “भारत के पास बौद्धिक सम्पदा निजाम पर कोई नीति नहीं है। हम बौद्धिक सम्पदा निजाम की नीति पर पहली बार आ रहे हैं। हम आईपीआर में बहुत मजबूत हैं और हम निश्चित रूप से अपने हितों की रक्षा करना चाहते हैं। आईपीआर के नीतिगत मुद्दों को काफी लंबे समय से लटकाया गया है और अब नई नीति भारत के आईपीआर की सुरक्षा के संदर्भ में दिशा दे देंगी। अमेरिका के साथ हमारा (कुछ) मुद्दों पर टकराव है। भारत फार्मा के मामले में एक ब्रांड बन गया है। क्योंकि भारत की कोई भी नीति नहीं है, विकसित देश "भारत के आईपीआर कानूनों पर सवाल उठा रहे हैं”। अमरीका के साथ छोटी सी बात के अलावा, भारत में कोई आईपी नीति नहीं होने का मंत्री का संदर्भ तथ्यात्मक रूप से गलत है, उनकी मंशा काफी स्पष्ट थी - अमेरिका की भारत की आईपी नीति के बारे में उसकी चिंताओं को दूर करने और अपने पापों को धोने के लिए तैयार है ताकि अमेरिका को प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा से पहले यह संकेत मिल जाए कि हम सब साथ-साथ हैं। यह मानना कि एक ऐसी आईपी नीति नहीं होने के लिए अपने आपको दोषी मानना जिसे विकसित देश पसंद करें, यह स्पष्ट करता है कि भारत विकसित देशों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए बौद्धिक सम्पदा नीति को बदलने के लिए तैयार है।

भारतीय सरकार राजनीतिक रूप से शक्तिशाली अमेरिकी दवा उद्योग के पक्ष में होने पर  आमादा है, यह बहुत जल्दी स्पष्ट हो गया है। 22 सितंबर को, रसायन मंत्रालय ने पहले के एक आदेश (29 मई को जारी) को रद्द करने के लिए एक आंतरिक ज्ञापन जारी किया जिसके तहत राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) द्वारा कई दवाओं की कीमतों की वृद्धि पर रोक लगा दी गयी थी – जिससे कई अमेरिका आधारित कंपनियों सहित दवा कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर की जा रही मुनाफाखोरी को रोका गया था। अमेरिका दवा मूल्य नियंत्रण को सीधे अपनी दवा कंपनियों के व्यावसायिक हितों के लिए हानिकारक मानता है। मंत्रालय का आदेश विशेष रूप से उलझाने वाला है क्योंकि एनपीपीए के आदेश को भारत में (OPPI - विदेशी दवा कंपनियों के उद्योग लॉबी) दवा उत्पादकों के संगठन द्वारा चुनौती दी गई थी और वह  दिल्ली हाई कोर्ट में न्यायाधीन मामला है। सरकार, जल्दबाजी में प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा से पहले रास्ता साफ़ करने के लिए, अदालत में चल रही सुनवाई के मामले में अपनी ही स्थिति से समझौता करने के लिए भी तैयार थी।

अभी बहुत परते खुलना बाकी है। प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा के अंत में संयुक्त विज्ञप्ति में निम्नलिखित भाषा निहित है: "आर्थिक विकास और रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए, नई पद्धति बढ़ावा देने की आवश्यकता पर सहमत नेताओं को इस पर प्रतिबद्ध होना चाहिए कि व्यापार नीति फोरम "के भाग के रूप में उपयुक्त निर्णय लेने और तकनीकी स्तर की बैठकों के साथ एक वार्षिक उच्च स्तरीय बौद्धिक संपदा (आईपी) कार्य समूह की स्थापना की जाए। गौरतलब है, इस वाक्य को, आर्थिक वृद्धि खंड में अंतर्निहित, और जिससे मजबूत आईपी संरक्षण आर्थिक विकास को बढ़ावा की क्षमता हो, के रूप में देखना होगा। वास्तव में, आर्थिक और तकनीकी विकास के भारत के स्तर पर अन्य देशों के लिए, इसको विपरीत बताते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से, विकसित देशों ने आईपी संरक्षण के कम मानकों का इस्तेमाल किया है ताकि वे दूसरों के साथ पार पा सकें (यानी, अन्य विकसित देशों के साथ समता प्राप्त करने का प्रयास करना)अमेरिका ने, यूरोप, जापान के साथ अपनी प्रतियोगिता में उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के शुरू में इस चाल का इस्तेमाल किया था पिछले सहस्राब्दी के बीच में ताइवान और दक्षिण कोरिया ने बीसवीं सदी में वैसे ही किया। आईपी ​​संरक्षण के संबंध में भारतीय और अमेरिकी हितों, अलग होना जारी रहेगा क्योंकि आर्थिक और तकनीकी विकास के संबंध में दोनों देशों में बहुत भिन्नता है। अमेरिका हमेशा अमेरिकी हितों के अनुरूप बनाने के लिए संयुक्त कार्य समूहों का इस्तेमाल देशों पर दबाव डालने के लिए करता  है, और स्पष्ट है कि आईपी कार्यदल का उद्देश्य भी अमरीका के हित के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। संयुक समूह के गठन के लिए सहमत होने से भारत सरकार ने स्पष्ट रूप से कह दिया कि वह समझौता करने के लिए तैयार है। 35 वर्षों से USTR की हर स्पेशल 301 रिपोर्ट में भारत की आईपी प्रणाली की ‘चूक और पापों’ की विस्तृत जानकारी है। इस बात को समझने के लिए हमें किसी कार्यदल की जरूरत नहीं है। लेकिन अमेरिका को भारत पर अपने दबाव को तेज करने के लिए कार्य समूह की जरूरत है।

संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के माध्यम से मध्यस्थता के आधार पर भारत अगर बड़ी फार्मा के मंसूबों को मानता है तो वास्तव में दुनिया भर में लाखों लोगों के लिए एक दुखद दिन होगा। तीन महाद्वीपों के गरीब मरीज दांव पर हैं, वे आशा के साथ सस्ते और प्रभावी दवाओं के लिए भारत की ओर देख रहे हैं। सवाल यह है, क्या इतना दूर जा रहे हैं जहाँ से फिर वापसी न हो।

(अनुवाद- महेश कुमार)

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