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गुजरात की पर्दापोशी करने के लिए कुपोषण सर्वे के आंकड़े दबाए

एनडीए की सरकार विवादों और घोटालों से तो पहले ही घिरी हुई थी। उसने अब एक और नायाब कारनामा कर दिखाया है। हाल में हुए रहस्योद्ïघाटन, जिनकी खबर सबसे पहले पत्रिका द इकॉनमिस्ट में आयी थी, यह बताते हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार ने बाल स्वास्थ्य पर, यूनिसेफ द्वारा भारत सरकार के सहयोग से किए गए एक सर्वे को दबाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगायी थी। याद रहे कि उक्त सर्वे, जिसे रैपिड सर्वे ऑन चिल्ड्रन (आर एस ओ सी) का नाम दिया गया था, पिछली यूपीए सरकार द्वारा कराया गया था। सर्वे 2013-14 के दौर पर केंद्रित है।

सामान्यत: सर्वे के आंकड़ों को निर्णय प्रक्रिया के लिए एक महत्वपूर्ण औजार की तरह देखा जाना चाहिए था। यइ इसलिए और भी ज्यादा है कि यह बाल कुपोषण पर पहला ही राष्टï्रव्यापी सर्वे है। ऐसा सर्वे करीब एक दशक के बाद हुआ था। बाल कुपोषण पर जानकारियों का इससे पहले तक सबसे ताजा स्रोत 2005 का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एन एफ एच एस) था। इस सर्वे के आंकड़ों का दबाया जाना इसलिए और भी अजीब लगता है कि कुल मिलाकर, यह सर्वे अच्छी खबर ही देता है और देश के पैमाने पर पिछले एक दशक में बाल कुपोषण की दरों में उल्लेखनीय गिरावट दिखाता है। इसके बावजूद, जैसी कि द इकॉनमिस्ट पत्रिका ने पिछले ही दिनों खबर छापी थी, इस सर्वे के आंकड़े कभी सार्वजनिक किए ही नहीं गए, जबकि सर्वे की अंतिम रिपोर्ट 2014 के अक्टूबर से ही सरकार के पास थी।

यूनिसेफ के सर्वे का सच बाल कुपोषण घटा

इस सर्वे के नतीजे पिछले एक दशक में, कुल मिलाकर देश के  पैमाने पर बाल कुपोषण की दर में उल्लेखनीय गिरावट ही दिखाते हैं।

तालिका-1

बाल कुपोषण सूचकों में कमी

इन दो सर्वेक्षणों के बीच स्टंटिंग, वेस्टिंग तथा अंडरवेट की समस्याओं के अनुपात में क्रमश: 9, 5 तथा 14 फीसद अंक की गिरावट दर्ज हुई है, जो 1998-99 में हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-2 और 2005-06 के बीच हुए राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे के बीच इन्हीं मानकों में हुई कमी से ज्यादा है। वास्तव में उक्त दो परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षणों के बीच अगर स्टंटिंग तथा अंडरवेट के अनुपात में क्रमश: 6 तथा 3 फीसद अंकों की गिरावट दर्ज हुई थी, इसी दौरान वेस्टिंग की दर में वास्तव में 3 फीसद की बढ़ोतरी ही दर्ज हुई थी। बहरहाल, राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़ों और यूनिसेफ के आरएसओसी के आंकड़ों की तुलना करते हुए, एक सीमा का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए। ये ऐसे सर्वेक्षण हैं जो अलग-अलग आबादी नमूनों का तथा संभवत: भिन्न पद्घतियों का भी उपयोग करते हैं और इसलिए उन्हेंं पूरी तरह से तुलनीय नहीं माना जा सकता है। इसके बावजूद, आरएसओसी के आंकड़ों में पिछले एक दशक के दौरान अगर बाल कुपोषण में भारी गिरावट दिखाई देती है, शायद इसे बाल कुपोषण की दर में वास्तविक कमी का ही संकेतक माना जाएगा।

हालांकि उक्त तीनों संकेतक--स्टंटिंग, वेस्टिंग तथा अंडरवेट--बाल कुपोषण का ही माप प्रस्तुत करते हैं, इन तीनों से हमें कुपोषण के कारणों को लेकर अलग-अलग अंतर्दृष्टिïयां भी मिलती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार (कंट्री प्रोफाइल इंडीकेटर्स, व्याख्या गाइड, विश्व स्वास्थ्य संगठन) आयु के अनुपात में कम ऊंचाई वाले बच्चों का अनुपात (स्टंटिंग) जन्म के समय से तथा यहां तक तक जन्म से पहले से भी (यानी इसमें माता का कुपोषण भी शािमल है) कुपोषण के समेकित दुष्प्रभाव को दिखाता है। इसलिए, इस पैमाने को बच्चे के विकास के लिए माहौल के ही प्रतिकूल होने या बच्चे की विकास क्षमताओं पर दूरगामी अंकुश लगे होने का ही संकेतक माना जाएगा। दूसरी ओर, अपनी आयु के मुकाबले कम वजन वाले (अंडरवेट) बच्चों का अनुपात, वेस्टिंग (ऊंचाई के अनुपात में कम वजन) का भी संकेतक हो सकता है। यह वजन में भारी कमी या स्टंटिंग या दोनों का ही संकेतक हो सकता है। इस तरह, अंडरवेट का पैमाना, वास्तव में एक मिला-जुला पैमाना है, जिसमें स्टंटिंग तथा वेस्टिंग, दोनों आ जाते हैं। इनमें स्टंटिंग को लंबे समय से चले आते न्यून-पोषण का कहीं बेहतर संकेतक माना जाएगा जबकि वेस्टिंग को अपेक्षाकृत फौरी कारणों से कुपोषण का संकेतक माना जाएगा, जैसे आहार की कमी या गंभीर रुग्णता आदि।

फिर भी सबसे घटकर है भारत का प्रदर्शन

आरएसओसी सर्वे की रिपोर्ट वाकई एक अच्छी खबर है और पिछले एक दशक में जरूर कुछ सही किया गया होगा जो ऐसी खबर सुनने को मिली है। फिर भी, इसे लेकर बहुत ज्यादा फूलकर कुप्पा होने से पहले, एक बात को जरूर ध्यान में रखा जाना चाहिए। अगर सुधार के उक्त आंकड़ों को हम सही भी मान लें तब भी भारत, बाल कुपोषण के मामले में दुनिया के सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों की श्रेणी में ही आता है। पुन:, बाल कुपोषण के मोर्चे पर यह खराब प्रदर्शन, वृहत्तर व्यवस्थागत विपलताओं का भी संकेतक है। इसमें पर्याप्त स्वास्थ्य रक्षा सुविधाएं व अन्य सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने में विफलता, सुरक्षित पीने का पानी तथा सेनिटेशन सुविधाएं मुहैया कराने में विफलता, कृषि नीति की विफलता और गरीबी पर अंकुश लगाने तथा उसे मिटाने में विफलता शामिल हैं। अगर हम बच्चों को पर्याप्त पोषण मुहैया नहीं करा पाते हैं तो यह एक समाज के रूप में हमारी विफलता है और बाकी कोई भी चीज इस उपेक्षा को ढांप नहीं सकती है।

हालात के इस पहलू से अब भी गंभीर बने होने का अंदाजा तब लगता है जब हम भारत में बच्चों के बीच स्टंटिंग के अनुपात की तुलना (आरएसओसी के आंकड़े को ही सही मानें तो) दुनिया के सबसे गरीब इलाके, उप-सहारावी अफ्रीका के स्टंटिंग के ही अनुपात से करते हैं। सचाई यह है कि भारत के लिए स्टंटिंग का अनुपात, जो 39 फीसद के स्तर पर है, उप-सहारावी अफ्रीका के 2013 के स्टंटिंग के 38 फीसद औसत के मुकाबले कुछ न कुछ ज्यादा ही है। साथ में दी जा रही तालिका (तालिका-2) से उप-सहारावी अफ्रीका के डेढ़ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले देशों और भारत की स्टंटिंग के पैमाने से तुलनात्मक स्थिति को देखा जा सकता है।

तालिका-2

भारत और उप-सहारावी अफ्रीका में स्टंटिंग की तुलनीय दरें

स्रोत: यूनेस्को, एजूकेशन फॉर ऑल ग्लोबल मॉनीटरिंग रिपोर्ट,

सब-सहारन अफ्रीका: ओवरव्यू: 2015

जैसाकि इस तालिका से हम देख सकते हैं, स्टंटिंग के मामले में भारत की स्थिति, सब-सहारावी अफ्रीका के भी कम से कम 11 देशों से बुरी है और सिर्फ 8 देशों से ही बेहतर है। यह इसके बावजूद है कि भारत की प्रतिव्यक्ति आय (दक्षिण अफ्रीका तथा अंगोला के अपवादों को छोडक़र) इस क्षेत्र के ज्यादातर देशों के मुकाबले दो से पांच गुनी तक बैठती है। खासतौर पर एक ऐसे देश के लिए, जो दुनिया की प्रमुख ‘‘उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं’’ में से एक होने का दावा करता है और दुनिया की सबसे तेजी से वृद्घि करने वाली अर्थव्यवस्था बनने के रास्ते पर (बहुत से लोगों के अनुसार आंकड़ों के हेर-फेर के जरिए ही इस मुकाम का दावा किया जा रहा है) चल पड़ा है, यह स्थिति बहुत खुश होने की इजाजत नहीं देती है। इस कठोर सचाई को तो हमें स्वीकार करना ही होगा कि अपने बच्चों को हम कैसा पोषण दे पाते हैं, इसके लिहाज से हमारा देश दुनिया के अधिकांश बहुत ही गरीब देशों से भी पीछे है।

वामपंथ का प्रभाव और कल्याणकारी कार्यक्रम

फिर भी आरएसओसी सर्वे के आंकड़े दिखाते हैं कि बाल कुपोषण के मामले में हम सही रास्ते पर हैं और इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण सुधार हासिल किए जा सकते हैं। इसलिए, इसकी पड़ताल करना भी उपयोगी रहेगा कि ये सुधार किस तरह से हासिल किए गए हैं। पिछले एक दशक के दौरान देश में यूपीए की सरकार थी। बेशक, यह सरकार ऐसी नवउदारवादी नीतियों पर ही चल रही थी जो कार्पोरेटों तथा बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाती थीं। फिर भी गनीमत यह थी कि उसी सरकार ने कुछ ऐसी नीतियों तथा कार्यक्रमों को भी शुरू किया था, जो नवउदारवादी सुधारों के बदतरीन प्रभावों से जनता का बचाव करते थे। बेशक, यह न तो किसी संयोग का नतीजा था और न ही कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार के जनता के कल्याण के प्रति उदारता का। यह हुआ था तो सिर्फ वामपंथ के दबाव के  चलते और यूपीए-प्रथम की सरकार पर, जो बाहर से वामपंथ द्वारा दिए जा रहे समर्थन पर निर्भर थी, यह दबाव असर दिखा सकता था। इसी दबाव के चलते राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम शुरू किया गया था और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की भी शुरूआत की गयी थी। इसके अलावा बच्चों की पोषण संबंधी जरूरतें पूरी करने से जुड़ी एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम (आइ सी डी एस) तथा दोपहर भोजन योजना, जैसे प्रयासों पर भी इस दौर में ध्यान दिया गया था।

यहां तक कि यूपीए-द्वितीय के दौर में सरकार के लिए वामपंथी पाॢटयों का समर्थन हट जाने के बाद भी, इन प्रयासों द्वारा तब तक पकड़ी गयी गति और नीचे से जनांदोलनों के दबाव के चलते, इनमें से ज्यादातर कार्यक्रम चलते रहे थे। बेशक, इनमें से किसी भी योजना के लिए और अन्य कल्याणकारी कदमों के लिए भी, पर्याप्त संसाधन कभी भी मुहैया नहीं कराए गए। फिर भी इन कार्यक्रमों ने पिछले एक दशक में नवउदारवादी सुधारों के दुष्प्रभावों कम करने का काम जरूर किया था। यह ऐन मुमनिक है कि इन्हीं कल्याणकारी कदमों का असर, जिन्हें पूंजीवादी प्रैस ‘पोपूलिस्ट’ कहकर गरियाने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देती है,आज बाल कुपोषण की दरों में गिरावट के रूप में सामने आ रहा है।

लेकिन, जिस गुत्थी के जिक्र से हमने यह टिप्पणी शुरू की थी, वह तो अब भी रहती ही है। अगर किसी सर्वे के आंकड़े देश की नकारात्मक तस्वीर सामने लाते हैं, तब तो फिर भी सरकार के ऐसे आंकड़ों को दबाने की कोशिश करना समझा जा सकता है, हालांकि उसका भी अनुमोदन हम नहीं करेंगे। लेकिन, कोई सरकार जान-बूझकर ऐसे आंकड़े क्यों दबाना चाहेगी जो एक ऐसे क्षेत्र में कुछ सुधार दिखाते हैं, जो पिछले कई दशकों से भारत के लिए शर्मिंदगी का कारण बना रहा है। अगर आंकड़े यह दिखा रहे हैं कि बाल कुपोषण के मोर्चे पर कुछ सुधार हो रहा है, तो ऐसे आंकड़ों को सरकार क्यों छुपाना चाहेगी?

गुजरात का कडुआ सच छुपाने की चाल

इस सवाल का जवाब हमें राज्यवार पृथक्कृत आंकड़ों में मिलेगा। जब हम राज्यवार आंकड़ों पर नजर डालते हैं, एक नतीजा खासतौर पर अपनी ओर ध्यान खींचता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य गुजरात, जिस पर बारह साल तक उन्होंने बेरोक-टोक शासन किया था, बाल कुपोषण में कमी के सभी मानकों पर, राष्ट्रीय औसत से पीछे नजर आता है। इतना ही नहीं, इस मामले में गुजरात का प्रदर्शन तो परंपरागत रूप से सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े माने जाते रहे राज्यों जैसा तथा कुछ मामलों में तो उनसे भी बदतर नजर आता है। साथ में दी जा रही तालिकाएं (तालिका-3 तथा तालिका-4) इस मामले में तुलनात्मक स्थिति सामने लाती हैं।

 तालिका-3

बाल कुपोषण मानकों की तुलनात्मक स्थिति--सर्वोत्तम राज्य

 तालिका-4

बाल कुपोषण मानकों की तुलनात्मक स्थिति--कुछ पिछड़े

राज्यों की तुलना में गुजरात की स्थिति

इस मामले में गुजरात का प्रदर्शन या कहना चाहिए कि प्रदर्शन का अभाव इसलिए खासतौर पर ध्यान खींचने वाला है क्योंकि वह राज्य के प्रति व्यक्ति सकल राज्य उत्पाद के लिहाज से, भारत के सबसे संपन्न राज्यों में से है। जैसाकि तालिका-4 से साफ हो जाता है, बाल कुपोषण के तीनों मानकों पर गुजरात का प्रदर्शन राजस्थान से भी खराब रहा है, जबकि दो मानकों पर मध्य प्रदेश तथा ओडिशा से खराब रहा है और एक मानक पर बिहार, झारखंड तथा मध्य प्रदेश से खराब रहा है। जहां तक वेस्टेड बच्चों का सवाल है, गुजरात का प्रदर्शन सभी राज्यों में सबसे खराब रहा है।

सर्वे के आंकड़ों में सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के संबंध में भी जानकारी मौजूद है। साथ में दी जा रही तालिका (तालिका-5) से टीकाकरण की तुलनात्मक स्थिति सामने आ जाती है। यह तालिका दिखाती है कि गुजरात में टीकाकरण का कवरेज मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश को अपवादों को छोडक़र, देश के सभी राज्यों में सबसे खराब है। पुन: टीकाकरण के कवरेज में बीच में टीकाकरण छोडऩे वालों की भी सबसे ऊंची दर गुजरात में ही है।

इस तरह, असली नीयत का पूरी तरह से खुलासा हो गया है। गुजरात ही तो नवउदारवादी सुधारों का भाजपा और नरेंद्र मोदी को आदर्श है। गुजरात ही भाजपा की प्रयोगशाला बना रहा है और भाजपा ने पूरे देश में ‘विकास का गुजरात मॉडल’ लाने का ही वादा किया था। विकास का यह गुजरात मॉडल वास्तव में इस देश में देखने में आया नवउदारवादी नीतियों का सबसे आक्रामक रूप है और इसका योग कायम किया गया है ऐसी संकीर्ण विभाजनकारी राजनीति के साथ, जो समाज के पहले ही हाशिए पर पड़े तबकों को और भी बाड़ों में धकेलने तथा और भी कंगाल बनाने का काम करती है। यूनिसेफ के सर्वे के आंकड़े गुजरात में नरेंद्र मोदी के राज में वास्तव में जो कुछ हुआ है, उसकी असलियत में झांकने का एक मौका तो देते ही हैं।

तालिका-5

टीकाकरण कवरेज: गुजरात तथा कुछ चुनिंदा राज्यों की तुलनात्मक स्थिति

स्रोत: राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-2005 तथा आरएसओसी के आंकड़े द इकॉनमिस्ट की रिपोर्ट में उद्यृत।

नवउदारवादी नीतियों के बचाव के लिए

फिर भी आरएसओसी के दबाने के पीछे मोदी सरकार की मजबूरियां सिर्फ गुजरात को असुविधाजनक सवालों से बचाने पर ही खत्म नहीं हो जाती हैं।  जैसाकि हम पहले ही कह आए हैं, यूनिसेफ के इस सर्वे के नतीजे उन कार्यक्रमों पर भी गंभीरता से नजर डालने का तकाजा करते हैं, जिनसे बाल कुपोषण के मोर्चे पर सुधार में मदद मिली हो सकती है। समस्या यह है कि मोदी सरकार अपने राज के पिछले एक साल में तो ठीक इन्हीं नीतियों में सुनियोजित तरीके से कतरब्योंत करती आयी है। हाल के संघीय बजट में समाजिक सुरक्षा तथा कल्याण को आगे बढ़ाने वाले सभी कार्यक्रमों में भारी कटौतियां की गयी हैं। जाहिर है कि भाजपा के पैरोकारों को ऐसे कोई साक्ष्य मंजूर नहीं हैं जो नवउदारवादी सुधारों के आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाए जाने के औचित्य पर ही सवाल खड़े करते हों।

लेकिन, भाजपा तथा उसकी एनडीए सरकार के दुर्भाग्य से, यूनिसेफ के सर्वे के मुख्य निष्कर्ष तो पहले ही आम जनकारी में आ चुके थे। ऐसे में सरकार को देर से ही सही, कम से कम यह तो जरूर स्वीकार करना पड़ा है कि यूनिसेफ की ऐसी कोई रिपोर्ट आयी भी है। बहरहाल, उसने इस रिपोर्ट के दबाए जाने को इस दलील के जरिए सही ठहराने की कोशिश की है कि सर्वे रिपोर्ट के राज्यस्तरीय आंकड़ों में कुछ पद्घतिगत समस्याएं हैं। सरकार ने तो इसका भी एलान कर दिया है कि एक कमेटी का गठन कर दिया गया है, जो इस सर्वे से जुड़े पद्घतिगत मुद्दों की पड़ताल करेगी। साफ है कि सरकार अपनी मजबूरी को छुपाने के लिए तरह-तरह के बहाने ढूंढ रही है।       

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

 

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