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परमाणु दायित्व कानून और अंकल सैम की मनमानी

ओबामा के दौरे के दौरान अमरीका और भारत सरकार ने परमाणु दुर्घटना से उत्पन्न होने वाली तबाही में जिम्मेदारी तय करने के लिए परमाणु नुकसान कानून 2010 के अंतर्गत रास्ता खोज निकालने की घोषणा की है। बजाये इसके कि अपने द्वारा सप्लाई की जाने वाली परमाणु सामग्री की जिम्मेदारी अमरिकी परमाणु सप्लायर्स खुद उठाते, अब इस घोषणा के बाद सारी जिम्मेदारी भारत की होगी। इस फैसले से इस कानून के महत्व को ठेस पहुंची है। घटिया या खराब सामग्री की सप्लाई की वजह से होने वाली किसी भी परमाणु दुर्घटना के मामले में सप्लायर के नुकसान का खामियाजा 1500 करोड़ के बीमा पूल से पूरा किया जाएगा। भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियाँ इसके लिए अपनी ओर से 750 करोड़ रूपए देंगी और बाकी का 750 करोड़ रुपया भारत सरकार देगी। 

इस पर भी शायद सहमती हो चुकी है कि मोदी सरकार इसके लिए कानून का ज्ञापन लाएगी ताकि इस कानून के अनुच्छेद 46 में अपनी मर्जी के मुताबिक़ संसोधन कर सके।संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को कार्यकारी द्वारा परिभाषित करना और उसे गलत ठहराना गैरकानूनी हरकत है। केवल संसद या न्यायपालिका कानून को परिभाषित कर सकती है; यह सरकार के विशेषाधिकार में नहीं आता है। यह सही है कि इन समझौतों में में कोई पारदर्शिता नहीं है, हमें यह सब आधिकारिक “लीक्स” से पता चल रहा है।

                                                                                                                                         

2010 में परमाणु दायित्व कानून ने ऑपरेटर के उपर किसी भी परमाणु दुर्घटना के सम्बन्ध में 300 मिलियन एस.डी.आर. (जो करीब 450 मिलियन डॉलर होता है) या फिर 1500 करोड़ भारतीय रूपए की सीमा तय की थी। कानून के 17वें अनुच्छेद में इस बारे में स्पष्ट किया गया है कि अगर दुर्घटना घटिया सामग्री या खराब माल की वजह से हुयी है तो ऑपरेटर का यह हक है कि वह इस खामियाजे का भुगतान सप्लायर से करवाए। खामियाजे का दावा करने के अधिकार की सीमा उस अदायगी तक है जोकि ऑपरेटर द्वारा अदा की गयी है, और वैसे भी इसकी उपरी सीमा 1500 करोड़ रूपए है, जोकि ऑपरेटर के लिए अधिकतम सीमा है।

2010 में इस अनुच्छेद पर संसद की विज्ञान और तकनीक, पर्यावरण और जंगलात मंत्रालयों की स्टैंडिंग समिति में काफी विस्तार से चर्चा हुयी थी। इस सम्बन्ध में उस वक्त सही ही सोचा गया था कि भारत अरबों डॉलर के परमाणु यंत्रो के सप्लायरों को बे-नकेल नहीं छोड़ सकता है। परमाणु रिएक्टर की कीमत के मुकाबले सप्लायर्स के दायित्व की क्या कीमत होगी? विदेशों में परमाणु प्लांट के हाल ही में हुए करारों में, वेस्टिंगहाउस रिएक्टर जोकि 1,000 मेगावाट का है, की कीमत करीब 50 अरब डॉलर होगी। यह केवल रिएक्टर की कीमत है न कि पूरे प्लांट की।

50 अरब डॉलर की इस कीमत के विरुद्ध इस कानून के तहत वेस्टिंगहाउस का दायित्व 450 मिलियन डॉलर से भी कम होता; अन्य शब्दों में कहें तो यह कुल समझौते की कीमत का 1% है! वेस्टिंगहाउस यह छोटी सी जिम्मेदारी भी लेने को तैयार नहीं है, वह इसलिए कि इस कम्पनी के सी.ई.ओ. डेनी रोड़ेरिक कहते हैं कि “उनके रिएक्टर दुनिया के सबसे सुरक्षित रिएक्टर हैं”। अगर दुसरे शब्दों में कहा जाए तो वे अपने पैसे का कोई भी रिस्क नहीं उठाना चाहते हैं।

दायित्व न लेने की इच्छा की शुरुवात अमरिकी परमाणु निजाम से हुयी जहाँ सप्लायर्स को इस दायित्व से मुक्त कर दिया गया था। यह 50 और 60 के दशक की बात होती तो कुछ समझ में आने वाली चीज़ होती – क्योंकि उस वक्त परमाणु उद्योग अपेक्षाकृत छोटा और काफी ज़ोखिम भरा काम था। तब से अब हालात काफी बदल चुके हैं और ,इसी रौशनी में  भारतीय संसद ने दायित्व तय किया था, चाहे फिर परमाणु सप्लायर पर यह दायित्व छोटा ही क्यों न हो।

मोदी सरकार द्वारा सप्लायर्स के दायित्व को अपनी ओर स्थानातरित करने से वे उन्हें किसी भी तरह के घटिया माल या खराब परमाणु यंत्रों की सप्लाई का दायित्व न लेने के लिए पूर्णत: मुक्त कर रहें हैं। सप्लायर पर किसी भी कि तरह का दायित्व का न होना सप्लायर के लिए एक बड़ा इनाम है ताकि वे घटिया प्लांट बनाए और भारत के लोगों जिंदगी को खतरे में डाल दे। जिस देश ने 1984 में दुनिया में भोपाल गैस त्रासदी जैसी सबसे बड़ी बर्बादी वाली औद्योगिक दुर्घटना का सामना किया है, उस देश की सरकार द्वारा इस तरह की हरकत या तो पागलपन लगती है या फिर उनके भीतर देश की जनता के लिए कोई अपनापन नहीं है।

फुकुशीमा त्रासदी के कीमत 100 डॉलर के आर्डर पर आधारित है, जिसका ज़िम्मा पूरी तरह जापान सरकार ने उठाया है। इससे यह पता चलता है कि किस तरह परमाणु उद्योग के सारे दायित्व अपने उपर लेकर सरकार इन्हें एक तरह की सब्सिडी प्रदान कर रही है। अमरिकी परमाणु सप्लायर्स द्वारा जो दूसरी चिंता बतायी गयी है वह है कानून अनुच्छेद 46। यह बताता है कि अन्य कानून (उदहारण के तौर पर, अपराधी का दायित्व), का कोई भी इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन इस कानून के तहत कुछ भी कवर नहीं किया जाएगा। अगर सप्लायर जानबुझकर परमाणु दुर्घटना करता है, तो उन्हें मौजूदा कानूनों के तहत सज़ा दिलाई जा सकती है फिर चाहे वह परमाणु दायित्व कानून के तहत कवर है या नहीं है। यह एक स्टैण्डर्ड कानून का हिस्सा है जोकि किसी भी खतरनाक उद्योग पर लागू होता है, लेकिन यह परमाणु उद्योग ही है जो इन कानूनों को भी मानने के लिए तैयार नहीं है।

क्या भारत के पास कोई अन्य उपाय नहीं है? भारत के पास साधारण सा उपाय है कि वह अपनी तकनीक और डिजाईन के आधार पर परमाणु प्लांट खुद बनाए। भारत के परमाणु यंत्र सप्लायर्स ने इस मुद्दे को उठाया और कहा कि उनके देशज परमाणु प्लांट्स की कीमत 450 मिलियन डॉलर से भी कम है और वे परमाणु दायित्व कानून को भी मानने के लिए तैयार है। एक बीमा पूल जोकि इनके कॉन्ट्रैक्ट के कीमत के आधार पर तय दायित्व के उपर के नुकसान कि भरपाई के लिए होता तो इस चिंता को समझा जा सकता था, और यह उनके दायित्व को कॉन्ट्रैक्ट की कीमत तक सिमित कर सकता था।

अमरिकी परमाणु सप्लायर्स के कॉन्ट्रैक्ट कि कीमत कई सौ बिलियन डॉलर की है जोकि भारतीय सप्लायर्स से काफी भिन्न है। यहाँ तक की उनके कई सौ बिलियन डॉलर के कॉन्ट्रैक्ट की कीमत के विरुद्ध मात्र 450 मिलियन डॉलर का दायित्व भी उन्हें रास नहीं आ रहा है। इसके विपरीत वे पिछले चार सालों से बिना-दायित्व का निजाम चाह रहे थे जिसे कि मोदी सरकार ने  कायरतापूर्वक तरीके से स्वीकार कर लिया है।

 

(अनुवाद:महेश कुमार)

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

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