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आज किस हाल में है भारतीय अर्थव्यवस्था?

क़रीब-क़रीब सभी एजेंसियों ने 2023-24 में भारत के लिए अपने विकास दर के अनुमानों को घटा दिया है।
Indian Econom

सरकारी अधिकारी बार-बार यह दोहराते हुए कभी नहीं थकते कि भारत इस समय, दुनिया की सबसे तेज़ी से विकास कर रही एक बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन, वे कभी इस बात का ज़िक्र नहीं करते हैं कि 2020-21 में, दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से जीडीपी में भी शायद सबसे भारी गिरावट भारत में ही दर्ज हुई थी, जो कि बेहद कठोर लॉकडाउन का नतीजा था। इसलिए, वर्तमान वृद्घि दर, एक बढ़े-चढ़े आंकड़े के रूप में सामने आ रही है, जो ठीक इसीलिए ज़्यादा नज़र आ रहा है क्योंकि तुलना का, आधार बहुत नीचे खिसका हुआ है।

वृद्धि दर: दावे और हक़ीक़त

इसलिए, अगर हम 2021-22 की जीडीपी की तुलना, लॉकडाउन से पहले के वर्ष, 2019-20 के जीडीपी के आंकड़े से करें तो, हमें सिर्फ 1.5 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दिखाई देती है। और चूंकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा भारतीय रिज़र्व बैंक, दोनों ने ही 2022-23 में जीडीपी में पिछले साल के मुकाबले 6.8 फ़ीसदी की वृद्घि का अनुमान लगाया है, इसका अर्थ यह हुआ कि 2019-20 के मुकाबले 2022-23 में जीडीपी, सिर्फ 8.4 फ़ीसदी ही ज़्यादा रहने वाली है। इस तरह, 2019-20 से 2022-23 तक के तीन वर्षों में सालाना चक्रवृद्घि विकास दर, बीच के वर्षों में वृद्घि दर में आई शुद्घ गिरावट को अगर हम गिनती से छोड़ भी दें तब भी, सिर्फ 2.7 फ़ीसदी ही बैठेगी! पुन: जीडीपी में शुद्घ गिरावट के बाद हुई यह आर्थिक बहाली भी, टिकती नज़र नहीं आ रही है। 2023-24 में वृद्घि दर, 2022-23 के मुकाबले घटकर ही रहने का अनुमान है।

क़रीब-क़रीब सभी एजेंसियों ने 2023-24 के लिए वृद्घि दर के अपने अनुमानों को नीचे खिसका दिया है और क़रीब-क़रीब सभी एजेंसियों ने यह अनुमान, 2022-23 की वृद्घि दर के अनुमान से नीचे ही रखा है। मिसाल के तौर पर आइएमएफ (IMF) ने 2023-24 में भारतीय अर्थव्यवस्था के 5.9 फ़ीसदी वृद्घि करने का अनुमान लगाया है, जोकि 2022-23 के लिए वृद्घि दर के 6.8 फ़ीसदी के अनुमान से काफी नीचे है। वास्तव में अगर किसी चीज़ का महत्व है तो इस वृद्घि दर में गिरावट का ही महत्व है, जिसका सब अनुमान लगा रहे हैं, न कि वृद्घि दर की उस कोरी संख्या का, जिसका न तो अवधारणात्मक रूप से कोई महत्व है और न सांख्यिकीय रूप से।

वृद्धि दर में और गिरावट के आसार

वास्तव में, खुद केंद्र सरकार के ही एक पूर्व-मुख्य आर्थिक सलाहकार ने तो इसका भी इशारा किया है कि भारत के वृद्घि दर के सारे आंकड़े ही - जिसमें जीडीपी पर केंद्रित आंकड़े भी शामिल हैं, जो खुद ही एक त्रुटिपूर्ण अवधारणा पर टिके होते हैं - वृद्घि दर को उल्लेखनीय रूप से बढ़ा-चढ़ाकर दिखाते आए हैं। इस सूरत-ए-हाल में वह आर्थिक सुस्ती या वृद्घि दर में गिरावट महत्वपूर्ण हो जाती है, जिसका अनुमान अब आम तौर पर सभी लगा रहे हैं। इस गिरावट का महत्व इस बात से और भी बढ़ जाता है कि वृद्घि दर में यह गिरावट तब आने वाली है, जबकि लॉकडाउन से आर्थिक बहाली तो पहले ही पूरी तरह से कुंठित बनी रही है।

वास्तव में प्रत्याशित वृद्घि दर तो एक नए डेवलेपमेंट के चलते उक्त अनुमान से भी कम ही रहने वाली है। यह नया डेवलेपमेंट है - ओपेक+ द्वारा तेल उत्पादन में 10 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती की घोषणा। यह कटौती 1 मई से लागू होने जा रही है और यह कटौती भी, पिछले साल अक्टूबर में घोषित 20 लाख बैरल प्रतिदिन की कटौती के ऊपर से हो रही होगी। इसका भारत की वृद्घि दर पर कम से कम दो अलग-अलग तरीके से प्रभाव पड़ेगा। पहला तो यह कि इन कटौतियों से अमरीका में मुद्रास्फीति पर नियंत्रण पाना और भी मुश्किल हो जाएगा। यह उसे ब्याज की दरों में और बढ़ोतरी करने के लिए मजबूर करेगा, जिससे डॉलर के मुकाबले रूपये का मूल्य घट जाएगा और भारत में मुद्रास्फीति और बढ़ जाएगी। भारत से वित्त के आउटफ्लो तथा इससे रूपये के मूल्य में गिरावट को रोकने के लिए, भारत में भी ब्याज की दरों को बढ़ाना होगा और इसका असर वृद्घि दर के और नीचे खिसकने के रूप में सामने आएगा। दूसरे, अमरीका के रास्ते होकर पड़ने वाले उक्त प्रभाव को अगर छोड़ भी दिया जाए तब भी, तेल की कीमतों का सीधे-सीधे वृद्घि दर को घटाने वाला असर पड़ेगा। तेल के दाम पढ़ने से, तेल का आयात बिल बढ़ जाएगा और आयात बिल में इस बढ़ोतरी के चलते, शुद्घ निर्यात आय घटेगी और इससे राष्ट्रीय उत्पाद पर आधारित खर्च की धारा में, कमी हो जाएगी।

लेकिन, अगर तेल की कीमतों में ताजातरीन बढ़ोतरी को छोड़ भी दिया जाए, तब भी वृद्घि घटने वाली है। वास्तव में, रिज़र्व बैंक के अनुमान के अनुसार, 2022-23 की चौथी तिमाही की वृद्घि दर भी, तीसरी तिमाही के मुकाबले घटकर ही रहने वाली है। चौथी तिमाही में यह दर 4.2 फ़ीसदी रहेगी, जबकि तीसरी तिमाही में 4.4 फ़ीसदी रही थी। इसलिए, सवाल यह है कि महामारी के दौर में उत्पाद में जो गिरावट आई थी, उससे भारत में आई मामूली आर्थिक बहाली भी, और भी कमज़ोर क्यों पड़ती जा रही है?

नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में निहित है मंदी

इसके बुनियादी कारण का संबंध, नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की प्रकृति से ही है। इस तरह की अर्थव्यवस्था में आय असमानता बढ़ती ही जाती है और इसके चलते, उत्पाद के अनुपात के रूप में निजी उपभोग घटता ही जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो उपभोग आय से स्वतंत्र होता है, उसे छोड़ दिया जाए तो, ऐसी अर्थव्यवस्था में निजी उपभोग, आयवृद्घि के लिए उत्प्रेरण मुहैया ही नहीं कर सकता है। दूसरी ओर निजी निवेश, उपलब्ध बाज़ार के आकार में वृद्घि की प्रत्याशा पर निर्भर करता है, और अर्थव्यवस्था की वास्तविक वृद्घि दर, इसके लिए संकेतक का काम करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि निजी निवेश भी वृद्घि के लिए स्वतंत्र उत्प्रेरण मुहैया नहीं करा सकता है। आय के अनुपात के रूप में सरकारी खर्च भी सीमित ही रहता है क्योंकि जीडीपी के अनुपात के रूप में, राजकोषीय घाटे पर भी सीमा लगी हुई होती है। इसलिए, सरकार आर्थिक वृद्घि के लिए स्वतंत्र रूप से उत्प्रेरण तब तक मुहैया ही नहीं करा सकती है, जब तक वह धनवानों पर कर लगाने के ज़रिए, कर-जीडीपी अनुपात को ऊपर नहीं उठाती है। लेकिन, ऐसा हो, यह वैश्विक वित्तीय पूंजी को पसंद नहीं आएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि नवउदारवादी व्यवस्था में आर्थिक वृद्घि के लिए उत्प्रेरण सिर्फ दो स्रोतों से आ सकता है। शुद्घ निर्यात में वृद्घि से और परिसंपत्ति मूल्य बुलबुलों से, जो आय से स्वतंत्र रूप से उपभोग में बढ़ोतरी कर सकते हैं।

लेकिन, आज की विश्व अर्थव्यवस्था में, जहां आम तौर पर आर्थिक गतिरोध की स्थिति है और यहां तक कि मंदी की ओर ले जाने वाली प्रवृत्ति ही मौजूद है, जिसे हर जगह पर मुद्रास्फीति की काट करने वाले उपाय के रूप में आगे बढ़ाया जा रहा है, निर्यात बढ़ने की तो बात दूर रही, उनकी वृद्घि दर में गिरावट ही आने जा रही है। रही बात परिसंपत्ति मूल्य की तो, इस तरह के बुलबुले हमारी अर्थव्यवस्था के अंदर अतिरिक्त उपभोग पैदा करने के लिए, वैसे भी खास मददगार नहीं हैं। इस तरह के बुलबुले ज़्यादा से ज़्यादा एक छोटे से अमीरों के संस्तर की ही दौलत को बढ़ाने का काम करते हैं और इस तबके की उपभोग मांग का काफी हिस्सा वैसे भी रिसकर, देश से बाहर चला जाता है। इसका मतलब यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्घि दर में बढ़ोतरी होने की उम्मीद करने का कोई कारण नहीं बनता है। उल्टे वृद्घि दर में गिरावट की ही प्रवृत्ति देखने को मिलेगी और यह होगा निवेश में वृद्घि के धीमा पड़ने, और बढ़ती आय असमानता के चलते उपभोग में सुस्ती आने के कारण।

यहां तक कि आइएमएफ तक ने, भारतीय आर्थिक वृद्घि के धीमी पड़ने के अपने आकलन के लिए, उपभोग तथा निवेश, दोनों में निजी खर्च के सुस्त रहने को और विश्व अर्थव्यवस्था में आम गतिरोध को, जो निर्यात वृद्घि को धीमा कर रहा है, ज़िम्मेदार माना है। ऐसे में सरकारी खर्चे में वृद्घि, जो अपने आप में फीकी सी ही है, उपरोक्त कारकों से पैदा होने वाली मंदी की काट नहीं कर सकती है।

मेहनतकशों को हस्तांतरण खर्च का बेहतर विकल्प

लेकिन, अपनी समग्र सीमाओं के बावजूद, एक रास्ता है जिससे सरकार अर्थव्यवस्था को उत्प्रेरित कर सकती थी। यह रास्ता है, सरकारी खर्च के गठन या संरचना को बदलने का। इस पॉइंट को समझने के लिए, इसकी कल्पना करें कि सरकार मिसाल के तौर पर 100 रूपये खर्च करने के लिए दो अलग-अलग तरीके अपना सकती है। एक तरीका तो यह है कि वह इतनी रकम हस्तांतरणों के माध्यम से मेहतनकशों के हाथों में पहुंचा दे। दूसरा तरीका यह है कि इस रकम को आधुनिक ढांचागत परियोजनाओं पर खर्च करे, जोकि 2023-24 का संघीय बजट करने जा रहा है। अब अगर ये 100 रूपये मेहनतकशों के हाथों में हस्तांतरित कर दिए जाते हैं, तो वे क़रीब-क़रीब यह पूरी राशि ही खर्च कर डालेंगे। और राशि, ऐसे मालों तथा सेवाओं को खरीदने पर, खर्च की जा रही होगी, जिनका उत्पादन मुख्य रूप से लघु-उत्पादन के क्षेत्र में होता है, जिसमें मुनाफे आम तौर पर अपेक्षाकृत कम होते हैं और इसलिए, इन सबसे पैदा होने वाली आय की हरेक इकाई में से बचत का हिस्सा, अपेक्षाकृत कम रहता है। दूसरी ओर, अगर उसी राशि को आधुनिक ढांचागत परियोजनाओं में लगाया जाता है, तो शुरूआत में भी तथा इस शुरूआती खर्चे से पैदा होने वाले खर्चे के उत्तरोत्तर चक्रों में भी, यानी हरेक चरण में, खर्च की जाने वाली राशि, पिछले चक्र से घटकर होगी। हरेक चक्र में खर्च की जाने वाली राशि का कहीं बड़ा हिस्सा बचतों तथा आयातों में जाने के ज़रिए, इस चक्र से बाहर निकलता जाएगा। इसका अर्थ यह है कि आधुनिक बुनियादी ढांचे पर किए जाने वाले खर्च के ‘‘मल्टीप्लायर’’ प्रभाव, मेहनतकशों के हाथों में हस्तांतरण पर खर्चे के प्रभावों से घटकर ही होंगे।

इसका अर्थ यह हुआ कि अगर सरकार का खर्च नहीं भी बढ़ाया जा सके तब भी, इसे ठीक-ठीक किस तरह से खर्च किया जाता है, उसका असर इस खर्च से पैदा होने वाली सकल मांग पर और इसलिए अर्थव्यवस्था की वृद्घि दर पर पड़ेगा। और जो सार्वजनिक खर्च मेहनतकश जनता के हाथों में हस्तांतरण का रूप लेता है या मेहनतकशों के लिए कल्याणकारी व्यवस्थाओं को बढ़ाता है, उसका आर्थिक वृद्घि के लिए मल्टीप्लायर प्रभाव, किसी भी अन्य काम पर किए जाने वाले सार्वजनिक खर्च के मुकाबले बढ़कर होता है।

गोदी पूंजीपतियों के लिए फायदे का है ढांचागत खर्च?

यहां दो स्पष्टीकरण ज़रूरी हैं। पहला यह कि यह तर्क उस सूरत में लागू नहीं होगा, जहां अर्थव्यवस्था आपूर्ति पक्ष से बाधित हो। मिसाल के तौर पर ढांचागत सुविधाओं की ऐसी तंगी हो, जिसकी वजह से वृद्घि दर रुक रही हो। लेकिन, भारत में इस समय ऐसी कोई स्थिति नहीं है। आइएमएफ तक यह मानता है कि हमारी अर्थव्यवस्था मांग के पहलू से ही बाधित है। दूसरे, ऐसा सोचा जा सकता है कि गरीबों या मेहनतकशों के हाथों में किसी भी हस्तांतरण से, खाद्यान्नों की ही मांग बढ़ेगी और इस मांग की पूर्ति के लिए अनाज के सरकारी गोदामों को ही खाली किया जा रहा होगा। इसलिए, इस तरह के हस्तांतरण का कोई मल्टीप्लायर प्रभाव नहीं होगा। बहरहाल, आज के हालात में तो इस तर्क का वज़न, पहले के हालात के मुकाबले भी घट जाता है क्योंकि महामारी की पृष्ठभूमि में सरकार को अनेक गरीब परिवारों को अनाज मुहैया कराना पड़ा है और इसके चलते, इस समय अनाज की भूख उतनी नहीं है, जितनी हमारे यहां सामान्य रूप से रहती है। इसका मतलब यह है कि आज के हालात में मेहनतकश जनता के हाथों में कोई भी हस्तांतरण, ऐसे मालों तथा सेवाओं की मांग ही ज़्यादा पैदा करेगा, जिनके उत्पाद में इस मांग के चलते बढ़ोतरी हो सकती है और इसका मल्टीप्लायर प्रभाव उल्लेखनीय रूप से ज़्यादा होगा, जैसाकि हम पीछे बता आए हैं।

मल्टीप्लायर प्रभाव ज़्यादा होने का मतलब है, ज़्यादा रोज़गार पैदा होना। इसलिए, कुल मिलाकर यह कि नवउदारवादी व्यवस्था, जीडीपी के अनुपात के रूप में सरकार के खर्चे पर जो सीमा लगाती है, और यह यह सीमा अमीरों पर कर बढ़ाने या राजकोषीय घाटा बढ़ाने, दोनों का ही रास्ता रोकने के ज़रिए लगाती है, उस सीमा के बावजूद सरकार के खर्च की दिशा बदलने के ज़रिए वृद्घि दर को बढ़ानेे की थोड़ी-बहुत गुंजाइश तो फिर भी रहती ही है। सरकार के खर्च की दिशा में इस तरह के बदलाव से न सिर्फ आय में बढ़ोतरी की जा सकती है तथा इसलिए वृद्घि दर में गिरावट को पलटा जा सकता है, बल्कि इससे कहीं ज़्यादा रोज़गार भी पैदा होगा, जोकि खुद ही अभीष्ट है और इससे मेहनतकश जनता को राहत भी मिलेगी, जो इस समय आर्थिक संकट के बोझ के तले दबी कराह रही है। लेकिन, मोदी सरकार को तो सिर्फ अपने गोदी पूंजीपतियों की पड़ी है। मेहनतकश जनता की तो उसे फिक्र ही नहीं है।

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