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आज़ादी के बाद भारत में बैंकों का सफ़र

हाल ही में बैंकिंग सेक्टर में सुधार करने के नाम पर कई बड़े निर्णय लिए गए हैं। इसी सिलसिले में हम आज़ादी के बाद से भारत में बैंकिंग सेक्टर में हुए विभिन्न सुधारों पर नज़र डाल रहे हैं। और ये भी देख रहे हैं कि बैंकों में हो रहे सुधारों से जनता का कितना भला हो रहा है।
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बैंक का मतलब क्या होता है? मोटे तौर पर समझा जाए तो ऐसी वित्तीय संस्था जहाँ जनता पैसा जमा करती है और उस पैसे का इस्तेमाल कर आम जनता को कई तरह के क़र्ज़ दिए जाते हैं। क़र्ज़ दी गई इस राशि पर जो ब्याज़ मिलता है, उससे बैंकों की कमाई होती है। लेकिन यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होती है। व्यक्ति, समाज और देश से जुड़े सभी आर्थिक हित अपने वित्तीय लेने-देन के लिए बैंकों का ही इस्तेमाल करते हैं। इसलिए बैंकिंग का सबसे महत्वपूर्ण काम यह होता है कि वह इन सभी हितधारकों के बीच संतुलन बिठाकर अर्थव्यवस्था की गाड़ी को सही तरह से खींचती रहे। और ऐसा करते वक़्त बैंकों का मक़सद जन कल्याण  का ही रहे।

अभी तीन हफ़्ते पहले ही बैंकिंग क्षेत्र में बहुत बड़े क़दम उठाये गए जिसे बैंकिंग क्षेत्र में सुधार का नाम दिया गया। 10 पब्लिक सेक्टर बैंकों को आपस में मिलाकर 4 बैंकों में बदल दिया गया। बैंकिंग सेक्टर के लिए उठाया गया यह क़दम बेशक नरेंद्र मोदी के इस शासन काल में हुआ है लेकिन इसकी सिफ़ारिश साल 1991 में नरसिंहम समिति द्वारा की जा चुकी थी। केवल नाम के तौर देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि यह क़दम नरसिंहम समिति की सिफ़ारिश पर उठाया गया है लेकिन दरअसल उस भावना से यह क़दम नहीं उठाया गया है, जिस भावना से नरसिंहम समिति ने इस तरह के क़दम उठाने की बात की थी। इस पर बात करने से पहले मोटे तौर पर एक बार यह समझा जाए कि आज़ादी के बाद से लेकर अब तक भारत में किस तरह से बैंकिंग सुधार होते आ रहे हैं?

बैंकिंग सेक्टर को राज्य दो तरह से देख सकता है - पहला कि इसे पूरी तरह से जनता की भलाई के मक़सद से इस्तेमाल किया जाए, दूसरा इसे एक ऐसी वित्तीय संस्था के रूप देखा जाए जिससे मुनाफ़ा कमाया जा सके। चूँकि राज्य एक जन कल्याणकारी संस्था है इसलिए हम मानकर चलते हैं कि राज्य के वह सब नज़रिये उपयुक्त नहीं हैं, जिससे जन कल्याण संभव नहीं हो।

आज़ादी के बाद बैंको का राष्ट्रीयकरण बैंकिंग सुधार के लिए उठाया गया सबसे बड़ा क़दम था। साल 1969 और 1970 में हुए इन बैंकिंग सुधारों से जन कल्याण का मक़सद पूरा भी हुआ था। इसी के बदौलत बैंक कुछ शहरी इलाक़ों को छोड़कर गाँव तक भी पहुँच पाए थे। ठीक इसी तरह साल 1950 और 1960 में डेवलपमेंट फ़ाइनेंशियल इंस्टीटूशन की स्थापना की गयी। इसके बाद साल 1975 में रीजनल रूरल बैंक की स्थापना की गई।

इनका मक़सद था आम जनता तक पहुँचना, अमीरों के अलावा ग़रीबों तक भी बैंकों को पहुँचाना, ग़रीबों के लिए क़र्ज़ मुहैया करवाना, पब्लिक इन्वेस्टमेंट को मज़बूत कर आर्थिक विकास के लिए पैसा इकठ्ठा करना औरअगर यह काम करने में बैंक असफल होते हैं तो समय-समय पर सरकार द्वारा रिकैपिटलाइज़ेशन(पुनर्पूंजीकरण) कर बैंकों की आर्थिक मदद करना। डेवेलपमेंट फ़ाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन्स की वजह से उद्योग धधों के लिए पैसा मुहैया कराने का ज़रिया गाँव भी बन सके थे। रीजनल रूरल बैंक की वजह से बैंक भारत के पश्चिम और दक्षिण के क्षेत्रों के अलावा अन्य हिस्सों में भी पहुँच पाए।  

इस दौरान सरकार बैंकों के पोर्टफ़ोलियो बंटवारे को भी तय करती थी। यानी यह तय करती थी कि किस क्षेत्र में कितना क़र्ज़ दिया जाएगा। जिन क्षेत्रों तक बैंक की सेवाएं पहुँच नहीं पाती थीं या कम रहती थीं, वहां तक सरकार द्वारा बैंकों के प्रोटफ़ोलियो बंटवारे की वजह से सेवाएं पहुँच पाईं। जैसे कि कृषि, सूक्ष्म और मझोले उद्योगों के पास। इनको दिए गए क़र्ज़ पर सरकार द्वारा ही ब्याज़ को नियंत्रित किया जाता था।

साल 1991 के बाद बैंकों के बारे में सोचने का राज्य का नज़रिया बदल गया। उदारीकरण का दौर आया और राज्य को लगा कि बाज़ार से बचकर और दुनिया से ख़ुद को अलग-थलग करके वह विकास के रास्ते पर नहीं चल पाएगा। इसलिए 1991 में नरसिंहम समिति द्वारा दी गई सलाहों को लागू किया गया। इन सिफ़ारिशों की वजह से बैंकों का पूरा चरित्र बदल गया। जो बैंक सार्वजनिक उद्देश्य से काम करते थे, उन्हें पूरी तरह से बाज़ार के लिए खोल दिया गया। बैंकों का उद्देश्य सार्वजनिक उद्देश्य की बजाए मुनाफ़ा कमाना हो गया।

नरसिंहम समिति की सिफ़ारिशों  के मुताबिक़ सरकार को बैंकों को स्वायत्तता देनी थी। यानी बैंकों को पूरी छूट दी जाए कि वह अपना प्रशासन ख़ुद तय करें और उस पर सरकार का हस्तक्षेप कम हो। सरकार ने बैंकों को स्वायत्तता दी भी। लेकिन बैंकों का मालिकाना हक़ अपने पास रखा। सरकार का यह निर्णय सही था क्योंकि बैंकों को जनता की भलाई के काम की तरफ़ मोड़ने के लिए यह ज़रूरी था कि सरकार के पास  बैंको का मालिकाना हक़ रहे।

लेकिन सरकार ने इस हक़ का इस्तेमाल जनता की भलाई लिए कम और अपने कॉरपोरेट दोस्तों के लिए ज़्यादा किया। इस दौर में क्रोनी कैपिटलिज़्म का जमकर उभार हुआ। यानी जो सरकार के जितना नज़दीक था, उन्हें क़र्ज़ उतनी ही आसानी से मिल जाता था। इस तरह से नरसिंहम समिति की सिफ़ारिशों का बिलकुल उल्टा प्रभाव पड़ा। बैंकों को स्वायत्तता इसलिए दी जाने की बात की गयी थी कि उनके काम-काज में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होगा तो अच्छे ढंग से काम करेंगे। अर्थव्यवस्था की गाड़ी अच्छे ढंग से चलेगी। लेकिन हुआ उल्टा, सरकार ने बैंकों को अपने ढंग से इस तरह से इस्तेमाल किया, जिसमें जनता की भलाई कम हुई और क्रोनी का उभार ज़्यादा हुआ।  

साल 2003 के पहले राजकोषीय घाटा होने पर सरकार सीधे पैसे छापकर घाटा पूरा करने की कोशिश करती थी। जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था का कई बार संतुलन बिगड़ा। इसके बाद साल 2003 में फ़ाइनेंशियल रिस्पांसिबिलिटी एंड बजटरी मैनजेमेंट क़ानून पास किया गया ताकि राजकोषीय घाटे पर लगाम लगाने की तरफ़ बढ़ा जाए। इसकी  वजह से बैंको का प्रबंधन तो सुधरा, राज्य राजकोषीय घाटा कम दिखाने में भी सफल रहा लेकिन जनता की भलाई का मक़सद सरकार के नज़रिये से हट गया।

राज्य यह सोचने लगा कि जब वह राजकोषीय घाटे के समय पब्लिक फ़ाइनेंसिंग करेगा तो राजकोषीय घाटा और अधिक होगा। अर्थशास्त्री जयति घोष तो कहती हैं, "राजकोषीय घाटे की फ़ाइनेंसिंग को अपराध मन लिया गया है। यह बहुत ग़लत है। मैं नहीं मानती कि जब लोगों को रोज़गार नहीं मिल रहा हो, कमाई कम हो और बाज़ार में मंदी छाई हुई हो तो उस समय अधिक पैसा छापकर लोगों की जेब भर देने से महंगाई से बढ़ सकती है।"

इसके बाद प्रायोरिटी सेक्टर लेंडिंग के तहत पहले ग्रामीण इलाक़े में पब्लिक सेक्टर बैंक को तकरीबन 40 फ़ीसदी क़र्ज़ देना ज़रूरी था, इसे कम कर 10 फ़ीसदी कर दिया गया। यह क़र्ज़ भी बड़े और लघु उद्योग को मिलने लगा। फिर भी यह पूरी तरह से लागू नहीं हुआ।  

एनपीए को कंट्रोल करने के लिए एसेट्स रिकंस्ट्रक्शन कंपनी बनाई गयी थी। कंपनियों का दिवाला निकल जाने पर उनसे उधारी का उगाहन करने के लिए इन्सॉल्वेंसी एक्ट बनाया गया। ये सब बैंकिग सेक्टर में हुए अच्छे सुधार थे, लेकिन इनका कोई ऐसा मक़सद नहीं था कि इनसे सार्वजनिक उद्देश्य की पूर्ति हो। यह बैंकों के प्रबंधन को पुख्ता करने के लिए उठाए गए क़दम थे। इन सब सुधारों के साथ बैंकों का मालिकाना हक़ सरकार के पास ही रहा और सरकार ने जमकर बैंकों के संचालन में हस्तक्षेप किया। 1991 के बाद सरकार यह मानकर चलने लगी कि कमर्शियल ओर्गनइज़ेशन को बढ़ावा देकर ही विकास किया जा सकता था, इसलिए उद्योगपतियों को आसानी से क़र्ज़ मिल जाए, इसे भी सरकार सही मानकर चलती थी।

अब बात करते हैं पब्लिक सेक्टर बैंकों के मर्जर की। क्या इसे सुधार कहा जा सकता है? आर्थिक सुधार के नाम पर बैंकों का मर्जर कर दिया गया है। और कह दिया गया है कि नरसिंहम समिति के सुझावों के अनुसार यह किया गया है। लेकिन ऐसा सुधार तभी होना चाहिए, जब यह सही तरह से हुआ हो और सही प्रक्रिया अपनाकर किया गया हो। यहां पर सरकारों ने बैंकों का मर्जर कर दिया जबकि इस प्रक्रिया की पहल बैंकों की तरफ़ से होनी चाहिए थी। बैंकों को यह फ़ैसला करना चाहिए था कि उनका मर्जर होगा कि नहीं।

क्योंकि बैंकों को ही पता होता है कि उनकी हैसियत क्या है? उनकी पहुँच कहाँ तक है? उनके ग्राहकों की स्थिति क्या है? वे किस तरह के मानकों का इस्तेमाल कर रहे हैं? उनका मानव संसाधन कैसा है और कैसे मानव संसाधन की उनको ज़रूरत होती है? इस तरह के फ़ैसले  पूरी तरह से पेशेवर सूझ-बूझ की मांग के बाद क़दम उठाने के मांग करते हैं, जिसे बैंक बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के करे। इस तरह से सरकार द्वारा अख़बारी ख़बर बनाने के नाम पर उठाया गया यह क़दम आगे चलकर बहुत बड़ी परेशानी का सबब बन सकता है। जिन बैंकों को आपस में मिला दिया गया है, वह सभी अभी एक दूसरे की बैलेंस शीट देख रहे हैं और एक दूसरे की हानि को एक दूसरे पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं।

द हिन्दू अख़बार में एसबीआई लाइफ़ इन्श्योरेंस के एन कृष्णमूर्ति लिखते हैं, "नरसिंहम समिति ने सिफ़ारिश करते हुए मर्जर के समय यह सावधानी बरतने को कहा था कि कमज़ोर बैंकों का मर्जर न किया जाए और ऐसे समय में बैंकों का मर्जर न किया जाए, जब बैंकों की स्थिति बहुत ख़राब हो। लेकिन इस समय मर्जर किया जा रहा है जब  बैंकों की बैलेंस शीट की स्थिति ठीक नहीं है। इस समय किये गयी मर्जर की सबसे बड़ी ख़ामी है कि इसके पीछे कोई तर्क नहीं है। बहुत सारे बैंक रिज़र्व बैंक के प्रांप्ट करेक्टिव एक्शन के तहत अभी निगरानी में हैं। और इस समय इनका मर्जर किया जा रहा है। ऐसे समय में परेशानियां बहुत अधिक आएँगी। क्योंकि इसके लिए बैंक ख़ुद तैयार नहीं होते हैं। यह मर्जर साल 2017 में एसबीआई के पांच बैंकों के मर्जर की तरह है। वह मर्जर प्रभावी रहा क्योंकि इसके लिए एसबीआई बहुत दिनों से काम कर रही थी।"

भारतीय प्रबंधन संस्थान के सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी रिसर्च के प्रोफ़ेसर एम श्रीराम ने लाइव मिंट में लिखा है, "पब्लिक सेक्टर बैंक सार्वजनिक उद्देश्य से बनाये गए थे। यानी जनता के भलाई के लिए। इनसे यही काम करवाना चाहिए। इनपर सरकार का मालिकाना हक़ ज़रूर हो लेकिन सरकार का संचालन में हस्तक्षेप न हो। संचालन की आज़ादी पूरी तरह से बैंकों के पास हो। बैंकों पर रेगुलेशन का काम बैंक बोर्ड और रिज़र्व बैंक करें न कि मालिक होने के नाते सरकार द्वारा सर्कुलर जारी किये जाएँ और बैंकों के काम में हस्तक्षेप किया जाए। बैंकों का मर्जर बैंको के सलाह पर हो, अगर बैंक नहीं चाहते हों तो मर्जर न हो।

जिन ग्रामीण इलाक़ों में बैंक नहीं हैं, उन इलाक़ों में लाइसेंस की प्रक्रिया के तहत ही ब्रांच खोले जाएँ। प्राइयोरिटी सेक्टर लेंडिंग का बैंक पूरी तरह इस्तेमाल करें, यानी कृषि और मझोले उद्योगों को उतना क़र्ज़ दिया जाए, जितना देने का नियम है। भले ही यह घाटे का सौदा हो लेकिन पब्लिक सेक्टर बैंक शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि ज़रूरी सार्वजनिक अवसंरचना पर जितना इन्वेस्ट करें, उतना बढ़िया होगा क्योंकि जन कल्याण ही पब्लिक सेक्टर का प्राथमिक उद्देश्य है। और सबसे बड़ी बात पब्लिक सेक्टर बैंक के फ़ील्ड के मैनेजर ग्राहकों के साथ अधिक संपर्क बनाएँ और अपना 90 फ़ीसदी से अधिक समय फ़ील्ड में दें।"

वरिष्ठ पत्रकार सुबोध वर्मा कहते हैं, "बैंकों का मुख्य उद्देश्य ही यह है कि पैसे और वित्त का इस तरह से संचालन किया जाए कि आम जनता की भलाई हो पाए लेकिन नवउदारवादी नीतियों के बाद बैंकों ने इस मक़सद से अपना पल्ला झाड़ लिया है। सरकार अभी भी बैंकों की मालिक है और हमेशा उसे ही बैंकों की मालिक होना चाहिए लेकिन सरकार ने ख़ुद बैंकों को वित्त के व्यापार में झोंक दिया है। सरकार ख़ुद चाहती है कि बैंक इन्वेस्टमेंट करने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियों में पैसा लाभ कमाएँ। यह बैंकों का उद्देश्य नहीं था। बैंक जनता की भलाई के लिए ही बने थे और उन्हें यही काम करना चाहिए।"

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