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आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18: भारत एक और आवाज की प्रतीक्षा में

सरकार की अर्थव्यवस्था की समीक्षा वास्तविक अर्थव्यवस्था में समस्याओं को छिपाने के सिवाय और कुछ नहीं है।

Jaitley
Newsclick Image by Nitesh Kumar

लोकसभा में 29 जनवरी को पेश किये गए आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के लेखक अरविंद सुब्रमण्यम, भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। चूंकि वित्त मंत्री अरुण जेटली सुब्रह्मण्यम द्वारा लिखित आर्थिक सर्वेक्षणों की प्रशंसा करते हैं, इसलिए यह माना जा सकता है कि ये दस्तावेज़ सरकार के विचारों का प्रतिनिधित्व करता हैं। लेकिन वास्तव में यह सर्वेक्षण डरावना है।

आर्थिक सर्वेक्षण ने दो उन सबसे बड़े संकटों का सामना करता है, जो संकट भारतीय नागरिकों के लिए जीने और मरने के प्रश्न बन गए हैं। यह हैं: कृषि संकट और रोजगार संकट। सुब्रह्मण्यम ने सर्वेक्षण के प्रस्ताव में कवि टीएस ईलियोट को उद्धृत करते हुए कहा: "पिछले साल के शब्द पिछले साल की भाषा के हैं। और अगले साल का शब्द एक और आवाज़ के इंतजार में है।" केवल उम्मीद की जा सकती है कि अगले साल, जब चुनाव हो जाएंगे, देश सत्ताधारी शासकों से मुक्त होगा और एक अलग आवाज़ असंतुलित अर्थव्यवस्था का मार्गदर्शन करेगी।

पिछले साल देश के किसानों के बीच एक शक्तिशाली किरण पैदा हुई क्योंकि उन्होंने कृषि उत्पाद की कीमतों के गिरने और ऋणग्रस्तता के विरुद्ध ज़बरदस्त लड़ाई लड़ी थी। एक दर्जन से अधिक राज्यों में विरोध हुआ, दिल्ली में संसद के सामने एक विशाल 'महापड़ाव' का आयोजन हुआ था। इतना ही नहीं, विभिन्न चुनावों में, ग्रामीण इलाकों में यह असंतोष सत्ताधारी पार्टी के गिरते समर्थन में परिलक्षित हुआ।

भारतीय अर्थव्यवस्था की किसी भी समीक्षा के लिए यह विश्लेषण करने के लिए अनिवार्य होगा। आखिरकार, भारत के रोज़गार का लगभग 49 प्रतिशत कृषि खाते से आता हैं। लेकिन सर्वेक्षण ने बहुत पुरानी चाल का सहारा लिया है। आप सुई कहाँ छिपाते हैं? घास के ढेर में इसलिए, सर्वे इन दोनो संकटों के फ्लेमिंग मार्करों को कई शब्दावालियों में छुपाता है, 500 पेजों में कहीं यहाँ ज़िक्र तो कहीं वहाँ, एक बिखरे हुए अंदाज़ में। इस धोखे को पूरा करने के लिए, कृषि के मौजूदा संकट पर कोई पूरा अध्याय ही नहीं है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के कारण आगामी संकट के बारे में बात करता है।

सर्वेक्षण पहले अध्याय में ही स्वीकार करता है कि "पिछले चार वर्षों में, वास्तविक कृषि जीडीपी और वास्तविक कृषि राजस्व का स्तर निरंतर ठहरा हुआ है, जिसके लिए पिछले दो वर्षों का कमज़ोर मॉनसूनों भी जिम्मेदार रहा है"। बाद में, यह भी स्वीकार करता है कि पिछले कुछ सत्रों में उत्पादन में वृद्धि के बावजूद कई फसल का राजस्व घट गया है और बाजार की कीमतों में गिरावट आई है और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी नीचे गिर गया है। यह सर्वेक्षण यह भी मानता है कि बोये जाने वाले क्षेत्र में कमी से बेरोज़गारी बढ़ गई है।

यह भी मानता है कि कृषि में वास्तविक मज़दूरी पिछले चार वर्षों में स्थिर हो गई है, जिसमें  2016 में भारी गिरावट हुई और 2017 में पिछले स्तर पर आ गयी।

फिर भी सर्वेक्षण में सामान्य शब्दों में कोई भी समाधान नहीं है। सर्वेक्षण की नज़रों में प्रगति का मतलब है कि लोग खेती को छोड़ गैर-कृषि रोज़गार में स्थानांतरित हो रहे हैं जबकि उसकी  यह मानने की हिम्मत नहीं हो रही है कि विनिर्माण या सेवाओं में कोई वैकल्पिक रोज़गार नहीं है।

रोज़गार के मोर्चे पर एक भद्दा मज़ाक किया गया है कि कैसे 'औपचारिक' रोज़गार अपेक्षा से परे बढ़ रहे हैं और जिसका स्वीकृत संख्याओं द्वारा मूल्यांकन किया जाता है। यह साबित करने के लिए, कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) और कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) के डेटा और जीएसटी पंजीकरण आंकड़ों के पंजीकरण का उपयोग का सहारा लेता है।

ये आंकड़े जो कि सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैंI IIM बैंगलोर के दो अर्थशास्त्री पुलक घोष और एसबीआई के सौम्य कांति घोष ने हाल ही में उनका विश्लेषण किया था ओर उनके मुताबिक़ औपचारिक क्षेत्र में सभी गैर-कृषि रोज़गार का लगभग 31 प्रतिशत का योगदान करता है। इस प्रक्रिया के ज़रिए घोष और घोष ने 'औपचारिक' रोज़गार का पूरा अर्थ आसानी से बदल दिया है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन अनौपचारिक नौकरियों को परिभाषित करता है कि "कर्मचारी को अनौपचारिक काम करने के लिए तब माना जाता है यदि उनके रोजगार का संबंध, कानून में या व्यवहार में, राष्ट्रीय श्रम कानून, आयकरधन, सामाजिक सुरक्षा या कुछ रोज़गार लाभों के लिए पात्रता के अधीन नहीं है (जिसमें अग्रिम नोटिस बर्खास्तगी, पृथक्कीरण वेतन, भुगतान वार्षिक या बीमारी की छुट्टी आदि)।"

यह अच्छी तरह से ज्ञात है कि बड़ी संगठित औद्योगिक इकाइयों में भी अनौपचारिक काम हो सकते हैं। राज्य चलाने वाले उद्यमों सहित भारतीय उद्योग ने नियमित नौकरियों को अनौपचारिक बनाने के साधन के रूप में ठेकेदारों को आउटसोर्सिंग का प्रचुर उपयोग किया है। इन मामलों में, अनौपचारिक श्रमिकों से जुड़ी संस्थाएँ जीएसटी के साथ पंजीकृत हो सकती हैं, या ऐसे श्रमिकों के ठेकेदार भी स्वास्थ्य कवरेज या भविष्य निधि लाभ प्रदान कर सकते हैं। क्या यह उन्हें 'औपचारिक' श्रमिक बनाते हैं? नहीं, क्योंकि कई अन्य राष्ट्रीय श्रम कानून जो सेवा की सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं, न्यूनतम मजदूरी आदि अभी भी उनके लिए लागू नहीं हैं।

किसी भी मामले में, सर्वेक्षण - और सरकार - 'औपचारिक' नौकरियों में तथाकथित वृद्धि के बारे में भावुक रूप से वैक्सिंग के द्वारा वास्तविक मुद्दे से पीछा छुडाने जैसा है। लगभग 12 करोड़ लोग भारत में हर साल श्रम शक्ति में शामिल होते हैं। लेकिन, जैसा कि श्रम ब्यूरो और अन्य संस्थानों द्वारा लगातार सर्वेक्षणों ने दिखाया है, कि पिछले कुछ सालों से नौकरी की वृद्धि 1 प्रतिशत से भी कम है। चाहे वह औपचारिक या अनौपचारिक हो, सवाल यह है कि कोई नौकरी ही नहीं है।

आर्थिक सर्वेक्षण ने देश की अर्थव्यवस्था को ख़त्म करने वाली और लोगों को बर्बाद करने वाली सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं से आँख मूँद ली है। यह भविष्य में अपने नवोदर नुस्खे के अनुरूप ही है – जिसमें अधिक निजी निवेश, अधिक निर्यात की बात की गयी है। इन दोनों नुस्खों को कई देशों ने इस्तेमाल किया है और वे शानदार रूप से विफल रहे हैं। भारत में, इस सरकार और पिछली सरकारों ने भी इसके इस्तेमाल की कोशिश की और असफल रहे। लेकिन सुब्रमण्यम और जेटली इस दिवालिया हो निति से पंगा लेने से बाज़ नहीं आना चाहते हैं जिससे देश को अपरिहार्य नुकसान हो रहा है।

हमें उम्मीद है कि अगले साल वास्तव में एक और आवाज़ आएगी। भारत को इसकी बहुत ज़रूरत है।

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