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अनुच्छेद 370 को लेकर करगिल में असंतोष और बेचैनी

देश में जारी ज़्यादातर चर्चा करगिल में बढ़ते सामाजिक मनमुटाव की उपेक्षा कर रही हैं।
करगिल में असंतोष और बेचैनी
(बाएं से दाएं) असगर कर्बलाई, सैयद ऐनुल हुदा और अख्तर हुसैन।

राष्ट्रीय चर्चा या संवाद में ऐसा बताया जा रहा है कि जम्मू और कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र के सबसे दूरस्थ जिले करगिल में लोग राज्य के विभाजन पर काफी खुश हैं और ऐसा कर इसे केंद्र शासित प्रदेशों के छत्ते में डाल दिया गया। लेकिन यह कहानी जिस बात की उपेक्षा करती है वह यह कि करगिल और द्रास के शिया और लद्दाख के बाकी हिस्सों जहां बौद्ध आबादी ज्यादा है के बीच मनमुटाव बढ़ रहा है।

2011 की जनगणना के मुताबिक करगिल में 77 प्रतिशत मुस्लिम आबादी होने की रपट है। उनमें से ज्यादातर शिया मुसलमान हैं। करगिल की जनगणना बौद्ध और हिन्दू अनुपात क्रमशः 14 प्रतिशत और 8 प्रतिशत से कुछ ज्यादा दर्ज करती है। करगिल को छोड़कर लद्दाख में बौद्ध बहुमत में हैं, हालांकि वे इस क्षेत्र की कुल आबादी का लगभग 40 प्रतिशत हैं।

केंद्र सरकार द्वारा जम्मू और कश्मीर राज्य के विशेष दर्जे को रद्द करने के बाद के महीनों में, करगिल के शिया मुस्लिम कश्मीर में अपने भाइयों के साथ गठबंधन कर रहे हैं, जिसमें जनसांख्यिकी के हिसाब से मुस्लिम भारी बहुमत में है। निस्संदेह, बौद्ध लोग बड़े पैमाने पर केंद्र सरकार के 5 अगस्त के फैसले जिसमें उन्होंने राज्य का औपचारिक रूप से दो प्रदेशों में विभाजन किया है, का स्वागत कर रहे हैं। कुछ लेह निवासियों ने अनुच्छेद 370 पर रोक लगाने पर जश्न मनाया था, ऐसा उन्होंने भविष्य की अपनी आशंकाओं के बावजूद किया जबकि करगिल और द्रास की जनता विरोध करने के लिए सड़कों पर उतर आई थी।

लेकिन 31 अक्टूबर को, जिस दिन राज्य का विभाजन औपचारिक रूप से लागू हुआ करगिल को लद्दाख के तहत केंद्र शासित प्रदेश का हिस्सा बना दिया गया, इस सब को लेकर कश्मीर बंद रहा और लद्दाख बेचैन।

करगिल जिले में लोगों के बीच टकराव की जड़ें 5 अगस्त या 31 अक्टूबर के फैसलों में नहीं हैं। करगिल निवासियों की हमेशा से यह शिकायत रही है कि राज्य की पूर्व सरकारें या केंद्र सरकार दोनों ही करगिल की तुलना में लेह पर अधिक ध्यान देती रही हैं। उदाहरण के लिए, जब सरकार ने लद्दाख स्वायत्त हिल विकास परिषद बनाई, तो इसे सबसे पहले 1995 में लेह में स्थापित किया गया था। करगिल के लोगों के व्यापक प्रतिरोध के बाद ही करगिल में भी इसे बनाया गया था, लेकिन पूरी आठ साल के बाद यानी 2003 में।

आंशिक रूप से तो उपेक्षा के कारण, लेकिन अन्य मौजूद कारणों के चलते भी वर्षों से करगिल के लोगों का बौद्ध-बहुल लेह के साथ एक दुविधा पूर्ण संबंध रहा था। डॉ. शेख शौकात हुसैन ने बताया, “करगिल और लेह एक दूसरे के विरोधी हैं। दोनों के बीच हर बात एक मुद्दा है। बड़ी ही दुखद सच्चाई यह है कि करगिल के निवासियों को हमेशा दूसरी श्रेणी की प्राथमिकता दी जाती रही है, हालांकि लद्दाख कुल मिलाकर एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र है।”

करगिल के विशेष दर्जे को खत्म कर उसे “ज़बरन” लेह का हिस्सा बनाना वहाँ के लोगों को नागवार गुज़रा है। यहां के लोगों की भावना कश्मीरियों जैसी ही है: कि अनुच्छेद 370 और 35A करगिल के लोगों को उनके क्षेत्र से जुड़े मसलों और फैसलों को आवाज़ देने में मददगार थी और उन्हें लगता है कि सरकार ने यह भी उनसे छीन लिया है।

सिद्दीक वाहिद जो एक राजनीतिक विश्लेषक और इतिहासकार हैं और दिल्ली में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ विजिटिंग फेलो हैं, कहते हैं, "करगिल के लोगों के प्रति हमेशा लेह के बौद्ध और मुसलमानों के मुक़ाबले भेदभाव हुआ है। यहां कोई एक समान प्रतिक्रिया नहीं है, पूरी तरह से भ्रम, संदेह और संकोच की भावनाएं हावी हैं। हालांकि, हालत को साफ होने में वक़्त लगेगा।" वे कहते है कि यहां सभी की भावना कश्मीर के साथ रहने की है।

वर्ष 1979 में लोकप्रिय नेता शेख मुहम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली जम्मू-कश्मीर सरकार ने लद्दाख क्षेत्र को दो जिलों, बौद्ध बहुल लेह और मुस्लिम-बहुल करगिल में विभाजित किया था।

“दो समुदायों के बीच विभाजन ही हर बुराई की उत्पत्ति है। धार्मिक आधार पर लोगों को बांटने के लिए और मुस्लिम वोट (विशेषकर करगिल में) को कश्मीर के राजनेताओं के पक्ष में स्विंग करने के लिए यह कदम उठाया गया था।" उपरोक्त बातें ज़ैनब अख़्तर ने कहीं जो दक्षिण एशिया अध्ययन और विश्लेषण केंद्र (आईडीएसए) में शोधकर्ता और विश्लेषक हैं।

अख़्तर, करगिल के ज़ांस्कर क्षेत्र में रहते हैं, ऐसा क्षेत्र जिसे मुख्यधारा द्वारा अनदेखा किया जाता रहा है, वहाँ राजनीतिक शून्य के कारण संकट बढ़ रहा है। साधारण नागरिक भ्रमित हो रहे हैं। अख़तर कहते हैं "वे अपने आप को नेतृत्वहीन मानते हैं और भ्रमित महसूस करते हैं।" उन्होंने आगे बताया कि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता भी भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं या हो रहे हैं।

यदि आप केंद्र सरकार से पूछें, तो वे कहेंगे कि दो केन्द्र शासित प्रदेशों का निर्माण भारत के साथ घाटी और लद्दाख के "पूर्ण एकीकरण" की दिशा में एक शानदार कदम है। लेकिन अगर आप करगिल और घाटी के निवासियों से पूछते हैं, तो प्रतिक्रियाएं बहुत भिन्न होने की संभावना है। लद्दाख से विधानसभा के पूर्व सदस्य (एमएलए) असगर अली करबलाई कहते हैं कि "करगिल कभी भी विभाजन को स्वीकार नहीं करेगा और न ही घाटी, जम्मू-कश्मीर या भारत के धर्मनिरपेक्ष लोग भी आराम से नहीं बैठेंगे।" उन्होंने कहा कि करगिल के दर्जे को "1947 की स्थिति" पर बहाल किया जाना चाहिए। उस वर्ष यानी 1947 को 5,500 से अधिक करगिल परिवार पाकिस्तान और भारत के बीच विभाजित हुए थे। कर्बला कहते हैं, "अब हम धर्म, क्षेत्र या भाषा के नाम पर एक बार फिर से दो या तीन हिस्सों में नहीं बटेंगे।"

वे कहते हैं, "हम अब एक बेआवाज़ वाले लोग हैं और चाहते हैं कि हमारे अधिकार हर कीमत पर बहाल हों।"

‘विभाजन’

उन्होंने कहा कि यह धार्मिक आधार पर बँटवारे की शुरुआत थी, जिसे जम्मू-कश्मीर में सरकार द्वारा जानबूझकर किया गया था। उन्होंने कहा कि, "यह विभाजन 1989 में लेह शहर में बौद्ध और मुस्लिम युवकों के बीच मामूली हाथापाई के कारण बौद्धों और मुसलमानों के बीच हिंसक हो गया था।" इस घटना के बाद, लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन (एलबीए) ने बहिष्कार के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक सुधार का आह्वान किया और इससे केंद्र शासित प्रदेश की मांग का तीव्र पुनरुत्थान हुआ।

बौद्ध धर्म से जुड़े काफी लोगों ने इस्लाम में धर्मांतरण किया था और वैसे भी लद्दाख क्षेत्र में धर्म परिवर्तन की प्रथा कोई नई बात नहीं है। “नई राजनीतिक ताक़त के सत्ता में आने की वजह हमारे क्षेत्र में धर्मांतरण का मुद्दा एक राजनीतिक हथियार बन गया है। लद्दाख बौद्ध संघ, एक कट्टरपंथी बौद्ध समूह, इन सामूहिक धर्मांतरण के पीछे का दिमाग है। ज़ैनब अख़्तर कहते हैं कि यह समूह हमारे क्षेत्र में सोशल दरोगाई की तरह है।

बौद्धों और मुसलमानों के बीच वर्षों से आपसी धार्मिक संबंध, विशेष रूप से अंतर-धार्मिक विवाह के मुद्दे पर काफी खराब हो गए हैं। स्वीडन के उप्साला विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ पीस एंड कंफर्ट रिसर्च के प्रोफेसर अशोक स्वैन कहते हैं "लेकिन, यह आम तौर पर जल्दी से ठीक हो जाता है और वे ज्यादातर समय लोग शांति से रहते हैं।"

अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बाद लद्दाखी बौद्धों के बीच प्रारंभिक खुशी देखी गई, स्वैन को लगता है कि वह अब धीरे-धीरे आशंका में बादल रही है क्योंकि जिस तरह से विशेष दर्जे को खत्म किया गया है वह अचानक किया गया और निवासियों को विश्वास में भी नहीं लिया गया है। वे बताते हैं कि लद्दाखी अब इस बात से भी परेशान हैं क्योंकि उनके पास अब कोई विधानसभा नहीं है।

लद्दाख के बौद्धों और अन्य सामाजिक समूहों के बीच अब एक एहसास यह भी है कि उनका उपयोग "कश्मीर का खेल" खेलने के लिए किया जा रहा है। स्वैन कहते हैं, "उन्हें यानी लोगों को चिंता है कि उनकी पहचान और संस्कृति को हिंदुत्ववादी ताकतों से खतरा है और इस एहसास से लद्दाखियों और करगिलियों के बीच के शुरुआती मतभेद भी खत्म हो सकते हैं।"

नया 'फिलिस्तीन' बनने को है

करगिल स्थित नागरिक समाज और शिया कार्यकर्ता अख़्तर हुसैन कहते हैं कि "नई दिल्ली कश्मीर समस्या का हल वैसे ही चाहता है जैसे कि इज़राइल फिलिस्तीन में चाहता है।" करगिल में भी कश्मीर की तरह ही संभावित जनसांख्यिकीय परिवर्तन की आशंका है जो उनकी भूमि की जोतों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। उन्होंने कहा कि लोगों में यह भी एहसास है कि "वे हमारी संस्कृति, हमारी नौकरियों पर हमला करेंगे, और जब लोग बड़ी संख्या में हमारे यहां पलायन करेंगे, तो यहाँ संसाधनों की भारी कमी हो जाएगी।"

केंद्र ने भारत समर्थक लोगों की बड़ी तादाद को द्वेषपूर्ण और बेहाल स्थिति में छोड़ दिया है। करगिल स्थित नागरिक समाज के कार्यकर्ता सैयद ऐनुल हुदा कहते हैं, "वे आज़ादी विरोधी और पाकिस्तान विरोधी लोगों की भावनाओं के साथ खेले हैं और जम्मू-कश्मीर के लिए इसके नतीजे गंभीर होंगे।"

ऐसा प्रतीत होता है कि कश्मीर विवाद को हल करने के बजाय, जैसा कि वे दावा करते है, विडंबना यह है कि केंद्र सरकार ने पहले से ही अशांत क्षेत्र में एक और बवाल खड़ा कर दिया है।

(दानिश बिन नबी कश्मीर के स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Art 370: In Kargil, Stirrings of Dissent, Unease

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