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क्या भाजपा का एकरंगी नज़रिया असम और मिज़ोरम के तनाव को कम कर पाएगा?

केंद्र, असम और मिजोरम तीनों जगह भाजपा और भाजपा की सहयोगी सरकार है। भाजपा जैसे पार्टी “वन इंडिया” के विचार में पूरे भारत को रंगना चाहती है, इसलिए वह पूर्वोत्तर को कभी नहीं संभाल पाएगी।
क्या भाजपा का एकरंगी नज़रिया असम और मिज़ोरम के तनाव को कम कर पाएगा?

असम और मिजोरम अपनी सीमाओं पर एक दूसरे से लड़ पड़े। 5 जवान शहीद हो गए और 50 से अधिक लोग घायल हो गए। इतनी भयानक स्थिति के बाद जो होना चाहिए था वह नहीं हुआ। तनाव कम करने के काम नहीं हुए बल्कि तनाव और अधिक भड़काने के काम हुए। असम के मुख्यमंत्री की तरफ से बयान आया कि वह अपनी जमीन का एक इंच भी मिजोरम को नहीं देंगे। मिजोरम से जुड़ने वाली असम की सीमाओं पर 4000 कमांडो तैनात करेंगे। बात की हनक ऐसी है जैसे मिजोरम से जुड़ी परेशानी का समाधान नहीं करना बल्कि किसी दूसरे देश पर हमला करने की योजना बनाना है।

जबकि हकीकत यह है कि केंद्र, असम और मिजोरम तीनों जगह भाजपा और भाजपा की सहयोगी सरकार है। भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में बने नॉर्थ ईस्ट डेवलपमेंट अल्ल्यांस का हिस्सा असम और मिजोरम दोनों है। असम के मुख्यमंत्री खुद नॉर्थ ईस्ट डेवलपमेंट अलायंस के कन्वेनर हैं। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा और मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरांगाथमा भी कोई आजकल के नेता नहीं बल्कि पूर्वोत्तर के इतिहास में मौजूद सबसे महत्वपूर्ण संघर्षों से जुड़े नेता है। हेमंता बिस्वा शर्मा का नाम भी उल्फा जैसे संगठनों के साथ लिया जाता है तो जोरांगथामा मिजोरम के संघर्ष से जुड़े सबसे बड़े नेता लालडेंगा के सेक्रेटरी रह चुके हैं।

यानी अशांति की स्थिति को संभालने वाले जिम्मेदारी के सारे पद भाजपा के हाथों में होने के बावजूद भी असम और मिजोरम की सीमा पर ऐसा हिंसक संघर्ष देखने को मिला जिसमें देश के अपने ही पुलिस बल एक दूसरे के साथ लड़ते हुए शहीद हुए। 

इन सभी बातों का इशारा इसी तरह है गृह मंत्री के तौर पर अमित शाह फिर से एक बार फेल हुए हैं। भाजपा पूर्वोत्तर को संभालने पूरी तरह से नाकामयाब हुई है। तकरीबन हर राजनीतिक जानकार यही बात कर रहा है कि भाजपा, भाजपा की सहयोगी सरकार और पूर्वोत्तर के सबसे कद्दावर नेताओं पक्ष में होने के बावजूद भी यह दुर्घटना घटी इसका मतलब है कि राजनीति पूरी तरह से नाकामयाब रही है। तो राजनीति कहां फेल हुई है इसे समझने के लिए अतीत में चलते हैं।

पूर्वोत्तर भारत में शुरुआत का अधिकतर इलाका ग्रेटर असम के अंतर्गत आता था। इसके अलावा संघ शासित क्षेत्र के तौर पर मणिपुर और त्रिपुरा की मौजूदगी थी।

बाद में पूर्वोत्तर के सभी राज्य असम से निकलकर बने हैं। असम के अंदर कई तरह के आदिवासी समूह रहते थे। सभी का अस्मिता और पहचान को लेकर के एक दूसरे से संघर्ष जारी रहता था। एक आदिवासी समुदाय दूसरे आदिवासी समुदाय से खुद को सर्वश्रेष्ठ बताता था। यही वह बीज है जिसकी वजह से पूर्वोत्तर में अधिकतर संघर्ष होते आए हैं और असम से निकलकर दूसरे राज्य बने हैं। 

साल 1957 से लेकर 1963 के खूनी संघर्ष के बाद सबसे पहले नागालैंड का उदय हुआ। नक्शे में सीमा रेखाएं तो उतार दी गई लेकिन जमीन पर इनका कोई महत्व नहीं था। आदिवासी समुदाय के लोग वहां तक अपना हक मानते थे जहां तक उनके रिश्ते नाते जुड़े हुए थे। इसलिए संघर्ष हमेशा जारी रहा। वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता बहुत लंबे समय तक पूर्वोत्तर भारत के रिपोर्टर है चुके हैं। वह बताते हैं कि असम मैदानी क्षेत्र में पड़ता है।इसलिए यहां पर संरक्षित वनों का बहुत बड़ा हिस्सा था। स्थानीय लोगों के बीच संरक्षित वनों पर अधिकार और कटाई को लेकर ढेर सारे झगड़े हुए। साल 1979 से लेकर 1985 का दौर ऐसी कई सारे हिंसक झड़पों का गवाह है। 

रिसर्च स्कॉलर सिद्धांत सैकिया कहते हैं कि बहुत कीमती और मजबूत पेड़ों को काटकर सीधी लकड़ी उद्योग से जुड़े कारखानों में भेज दिया जाता था। यहां पर शासन और प्रशासन से ज्यादा स्थानीय लोगों की चलती थी। इसलिए हक की लड़ाइयां हमेशा जारी रही। असम से लगते मिजोरम और नागालैंड के सीमा क्षेत्रों में तो वन अधिकार को लेकर और भी ज्यादा हिंसक झड़पें होती आईं है। 

असम की भौगोलिक स्थिति उसे पूर्वोत्तर में सबसे खास बना देती है। अगर मानचित्र उठा कर देखा जाए तो किसी को भी अगर नागालैंड मिजोरम और मणिपुर जाना है तो वह असम से होकर ही जाएगा। यह ऐसी स्थिति है जहां पर पूर्वोत्तर का सब कुछ जाकर असम पर ही आश्रित हो जाता है।पूर्वोत्तर में स्वास्थ्य केंद्र पढ़ाई लिखाई के संस्थान हवाई अड्डे रेलवे स्टेशन जैसे जितने भी विकास के मजबूत परिचायक होते हैं उनका अधिकतर हिस्सा असम में मौजूद है। असम चाहे तो शेष पूर्वोत्तर को पूरे भारत से काट दे। पिछले ही साल मिजोरम तक जाने वाली सड़क पर चक्का जाम कर दिया गया था।

असम की कुल आबादी तकरीबन 3 .5 करोड़ है जबकि मिजोरम की महज 13 लाख है। ऐसे में असम से थोड़ी उदारता की उम्मीद की जाती है। लेकिन या उदारता अभी नहीं दिखाई दे रही है।

इंडिया टुडे के पूर्वोत्तर मामलों के डिप्टी एडिटर कौशिक डेका कहते हैं कि असम और मिजोरम की सीमा संघर्ष की जड़े सीमा निर्धारण से ही जुड़ी हुई है। मिजोरम साल 18 75 में अंग्रेजो के द्वारा असम और लुशाई हिल्स के बीच खींची गई सीमा की वकालत करता है। मिजोरम का आधिकारिक तौर पर कहना है कि जब 1875 में सीमा खींची गई थी उस वक्त सीमा निर्धारण से जुड़ी बातचीत में मीजो समुदाय के लोग भी भागीदार थे। इसलिए 1875 के आधार पर ही असम और मिजोरम की सीमा तय होनी चाहिए। जबकि असम साल 1933 में अंग्रेजों द्वारा असम और मिजो समुदाय के बीच खींची गई सीमा की वकालत करता है। जिसे भी जो समुदाय के लोग यह कहकर नहीं मानते हैं कि उनकी तरफ से इस सीमा के निर्धारण में किसी ने हिस्सेदारी नहीं की थी। इसलिए मिजोरम के भूभाग का बंटवारा साल 1933 की सीमा रेखा के तहत नहीं हो सकता। राजनीतिक तौर पर नक्शे में भले ही सीमा रेखा खींच दी गई हो लेकिन स्थानीय लोग इसे नहीं मानते हैं। लोकल लोगों की आवाजाही सीमा के दोनों तरफ होती रहती है। वह पूरा इलाका जंगल का इलाका है। संसाधनों पर हक जमाने की मारामारी है।

राजनीतिक तौर पर चाहे कुछ भी कहा जाए लेकिन परंपरागत तौर पर आदिवासी जिसे अपना मानते हैं उसके लिए संघर्ष करते हैं। जब तक सीमा को लेकर मानसिकता नहीं बदलती तब तक इस संघर्ष को रोकना मुश्किल है। भले ही इस बार की घटना में पुलिस बल के संघर्ष सामने आए हो लेकिन हकीकत यह है कि यह स्थानीय लोगों का बहुत पुराना संघर्ष है। 


शिलांग टाइम्स की एडिटर पैटीरिशिया मुखिम कहती हैं कि अगर असम के नेता की तरफ से यह कहा जा रहा है कि वह मिजोरम को 1 इंच भी नहीं देने वाले और मिजोरम के नेता की तरफ से यह कहा जा रहा है कि जब तक पुलिस नहीं जाएगी तब तक लोग नहीं मानेंगे तो इसका मतलब यह है कि दोनों नेता मुद्दा नहीं सुलझा रहे बल्कि अपने लोगों को बता रहे हैं कि वह उनके साथ खड़े हैं। इस तरह से परेशानियों का हल नहीं निकलता है। 24 जुलाई को जब अमित शाह के साथ बैठक हुई थी तो यही बात सामने आई थी कि कुछ लेनदेन होने के बाद ही असम और मिजोरम का सीमा संघर्ष सुलझेगा। लेकिन इसके कोई आसार नहीं दिख रहे हैं। 

एक समय था कि संघर्ष के इस पूरे इलाके को स्पेशल इकोनामिक जोन में बदल देने की बात चल रही थी। लेकिन उस पर कोई काम नहीं हुआ। इन सबके अलावा संघर्ष का इतिहास तो हमेशा जारी रहता है। असमिया लोग का असमी भाषा थोपना, ऐसे बड़े भाई के तौर पर व्यवहार करना जो छोटे भाई को धिक्कारता है, इन सब कारणों से एक तरह के अलगाव की भावना पहले से मौजूद है। अभी फिर से असम मवेशियों पर प्रतिबंध लगाने से जुड़ा कानून लेकर आ रहा है। जबकि असम ही पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों के लिए लिंक के तौर पर काम करता है। यानी अगर असम में मवेशी प्रतिबंध से जुड़ा कानून बनेगा तो सभी राज्य में प्रभाव पड़ेगा। इसका गुस्सा तो कहीं ना कहीं से बाहर निकल कर आना ही है।

सुशांत सिंह इंडियन एक्सप्रेस के राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर धाकड़ पत्रकार रह चुके है। इनका कहना है कि यह मोदी सरकार की असफलता को दिखता है। भाजपा जैसे पार्टी जो “वन इंडिया” के विचार में पूरे भारत को रंगना चाहती है, इसलिए वह पूर्वोत्तर को नहीं संभाल पाएगी। पूर्वोत्तर का समाज एक कई तरह की नृजातीय भावनाओं और आदिवासी अस्मिताओं में रचा एक पुलरल समाज है। केंद्र का ताकतवर हाथ इसे नहीं हांक सकता। इसे संभालने के लिए सहज होना होगा। जिस तरह की कोशिश कर हिंदी बेल्ट में हिंदू मुस्लिम बंटवारा किया जाता है वह पूर्वोत्तर में बहुत अधिक घमासान ही पैदा करेगा। इस बात की दुर्घटना बहुत अहम है। मोदी सरकार के प्रशानिक अधिकारियों का यह तिकड़म लगाकर की भारत के दूसरे इलाकों में भी ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं, इससे अपनी नाकामयाब नहीं छुपा सकती।

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