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असम में भाषाई युद्ध, मिया मुस्लिमों ने उत्पीड़न का आरोप लगाया

मुस्लिमों के एक समूह ने बंगाली मुस्लिमों से कहा है कि आगामी जनगणना 2021 में बंगाली को अपनी भाषा बताएं। ये लोग दशकों से अपनी भाषा के रूप में असमिया भाषा दर्ज कराते रहे हैं।

असम में भाषाई युद्ध, मिया मुस्लिमों ने उत्पीड़न का आरोप लगाया

जातीय तथा भाषायी युद्ध 100 वर्षों से अधिक समय से असम की राजनीति की पहचान रहा है। इस बार, नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजनशिप (एनआरसी) का जारी होना और 26 जून को एक लाख से अधिक लोगों को बाहर करने की सूची के प्रकाशन के बीच, एक अन्य भाषाई लड़ाई और तेज़ हो गई है। जैसे जैसे डर बढ़ रहा है "चालो पलटाई -मिशन 2021" नाम के एक फ़्रिंज समूह ने ब्रह्मपुत्र घाटी के बंगाली मुसलमानों को आगामी जनगणना 2021 में अपनी भाषा और पहचान को असमिया से बंगाली में बदलने के लिए कहा है।

क्यों? क्योंकि वे असम में बांग्लादेशी घुसपैठिए या मिया कहे जाने से नाराज़ हैं। ये अक्सर असम के लोगों द्वारा उनकी पहचान बताने के लिए अपमानजनक शब्द के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

मिया शब्द के चलते 2 जुलाई को भाषायी युद्ध उस समय और तेज़ हो गया था जब असम के बीजेपी प्रभावी मंत्री हिमंत बिस्वा सर्मा के स्वामित्व वाले असम के एक अख़बार 'निओमिया बार्ता' ने कथित तौर पर एक "साहित्यिक आंदोलन" के ख़िलाफ़ एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस आंदोलन को "मिया कविता" कहा गया जिसे असमिया मुस्लिमों द्वारा शुरू किया गया था और कथित रूप से मध्य पूर्व से फ़ंड मिलने की बात कही गई थी।

दिलचस्प बात यह है कि विख्यात असमिया लेखक और पत्रकार होमेन बोर्गोहिन नियामिया बार्ता के प्रधान संपादक हैं जिन्होंने वर्ष 2015 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में "देश में बढ़ती फ़ासीवादी प्रवृत्ति" का हवाला देते हुए अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था।

मिया कविता तथा चालो पलटाई: प्रतिरोध तथा सम्मिलन एक साथ

चालो पलटाई समूह और मिया कविता लिखने वाले लोगों के बीच अंतर तथा समानताएं दोनों हैं। इस फ़ेसबुक समूह चालो पलटाई का नाम जिसका मतलब चलो परिवर्तन करें है, को वर्ष 2018 में त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव पूर्व प्रचार के दौरान एक लोकप्रिय बंगाली फ़िल्म से बीजेपी द्वारा लिया गया था। यह वस्तुतः 1951 की जनगणना के बाद से मिली अपनी इस पहचान को बदलने के लिए ब्रह्मपुत्र घाटी के बंगाली भाषी मुसलमानों द्वारा आह्वान किया गया आंदोलन है। वहीं, मिया कविता केवल एक साहित्यिक आंदोलन है जो उनकी पहचान और उनकी परेशानियों के बारे में लिखने पर ज़ोर देते हैं। चालो पलटाई के सदस्यों के विपरीत मिया कविता के लेखक अपनी असमिया पहचान को छोड़ना नहीं चाहते। वे असमिया समाज के साथ अपनी संस्कृति और साहित्य को आत्मसात करना चाहते हैं। वे असमिया समाज के हिस्से के रूप में जिन चीज़ों की वे मान्यता चाहते हैं- वे हैं अपनी भाषा और अपनी पहचान। उनकी भाषा जिसे मिया भाषा कहा जाता है, वो दरअसल वहमाइमेनसिंह बोली, असमिया और बंगाली का मिश्रण है और दशकों में विकसित हुई है तथा अपनी पहचान चाहती है।

सामान्य कारक और असहमतियां

ये सामान्य कारक जो किसी न किसी तरह दो अलग-अलग मुद्दों को जोड़ते हैं वे दोनों असमी समाज की मुख्यधारा के ख़तरों के रूप में माने जाते हैं और दोनों ब्रह्मपुत्र घाटी के बंगाली मुसलमानों द्वारा संचालित किए जाते हैं। लेकिन यहां जुड़ाव की कहानी समाप्त होती है। मिया कविता (मिया पोएट्री) के प्रमुख समर्थक और समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले सबसे प्रमुख साहित्यिक निकाय चार चापोरी साहित्य परिषद के प्रमुख डॉ. हफ़ीज़ अहमद चालो पलटाई आंदोलन के ख़िलाफ़ हैं। उन्होंने कहा, "हम चार चापोरी साहित्य परिषद इस बंगाली अति-राष्ट्रवादी आंदोलन के ख़िलाफ़ हैं। मूल बात यह है कि ये लोग 1899 से खुद को असमिया मानते रहे हैं और असमिया भाषा,संस्कृति और साहित्य के साथ खुद को शामिल कर लिया है। अब सौ वर्षों से अधिक समय के बाद ज्यादातर लोगों द्वारा हमें असमिया माना जाता है।”

उन्होंने आगे कहा, "वे 1951 में बड़े पैमाने पर असमिया को अपनी पहचान के रूप में स्वीकार करना शुरू कर दिया था और ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने उन्हें नाओव-एक्सोमिया (नव-असमिया) माइमेनसिंघिया कहा था। तब से समावेश (एसिमिलेशन) करने की प्रक्रिया चलती आ रही है। यह अब बहुत आगे बढ़ गया है। चार-चापोरी क्षेत्रों के लोगों ने असमिया भाषा के नाम पर अपनी जान भी गंवा दी है। मैं जो कहना चाहता हूं वह ये है कि हमें सद्भाव में रहने और अपने पूर्वजों द्वारा किए गए फ़ैसलों पर क़ायम रहने की ज़रूरत है। माइसिंग, तिवस और कारबीस विशाल असमिया समाज के हिस्से हैं। हम भी इसका हिस्सा हैं। अगर कुछ लोग हमें असमी नहीं मानते हैं तो यह हमारी चिंता का विषय नहीं है क्योंकि बिष्णु प्रसाद राभा ने हमारा साथ दिया है, ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने हमें असमिया माना है, हिरेन गोहैन ने हमें स्वीकार किया है। अगर कुछ लोग गंदी राजनीति करते हुए हमे असमिया नहीं मानते हैं तो मेरे पास उनके लिए कोई शब्द नहीं हैं।"

उन्होंने कहा, "कुछ युवा जो कुछ भी फ़ेसबुक पर कर रहे हैं वह मेरी चिंता का विषय बिल्कुल भी नहीं है। कुछ लोग चालो पलटाई के पक्ष में हैं लेकिन वे हमारे समाज के अलमबरदार नहीं हैं।"

चालो पलटाई का जवाबी तर्क

मिया की संस्थाओं मिया (एक्समोइया) परिषद ने चालो पलटाई समूह के साथ सार्वजनिक चर्चा के लिए गुवाहाटी प्रेस क्लब में बैठक बुलाई थी। अबू यूसुफ़ मोहम्मद रैहानुद्दीन चालो पलटाई फ़ेसबुक पेज के एक एडमिन हैं। रैहानुद्दीन ने 30 जून को गुवाहाटी प्रेस क्लब में कहा, "वे (असमी) हमें बंगाली मूल के मुस्लिम, बांग्लादेशी, गेडा (जिसका अर्थ मूल रूप से एक व्यक्ति होता है लेकिन अब मुस्लिम बंगालियों के लिए अपमानजनक शब्द के रूप में इस्तेमाल किया जाता है) कह रहे हैं और हमें इन सभी अपमानजनक ठप्पों को झेलना पड़ता है। इस ठप्पे को हिरासत शिविरों को भी झेलना पड़ता है। हिरासत शिविरों में कितने असमी हैं? सभी लोगों की एक बार फिर से हिरासत शिविरों में हम जांच करना चाहते हैं। आप पाएंगे कि 90% से अधिक लोगों को बिना किसी ग़लती के हिरासत में लिया गया है, सिर्फ़ नाम में मेल न खाने और इसी तरह की मामूली ग़लतियों के चलते वे हिरासत में हैं। आप इन शिविरों में केवल बंगाली भाषी मुस्लिम और हिंदू ही पा सकते हैं और इन सबके कारण अब हमारे सामने चालो पलटाई आंदोलन है जो हिंदू और बंगाली मुस्लिमों के जुनून और उत्पीड़न से उभर रहा है।"

असम के नागांव ज़िले के इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्यूनिकेशन इंजीनियर रैहान ने आगे कहा, "हिरासत शिविरों में ये लोग ज़्यादातर समाज के ग़रीब तबक़े से हैं जिनके पास क़ानून का कुछ भी ज्ञान नहीं है। उन्हें केवल इसलिए परेशान किया जा रहा है क्योंकि वे बंगाली बोलते हैं, इसके अलावा और कुछ भी नहीं। इसलिए जब तक अल्पसंख्यक समुदाय का इस तरह ग़ैरक़ानूनी उत्पीड़न बंद नहीं हो जाता है तब तक कोई भी ताक़त नहीं है जो कि चालो पलटाई को नियंत्रित कर सकती है या रोक सकती है।"

रैहान ने कहा, "हमें पता नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने असमिया पहचान को किन कारणों से अपनाया। दरअसल इस पहचान के कारण बंगाली अधिक प्रभावित होते थे। केवल 10 से 15% असमिया लोगों ने हमें राजनीति के लिए हिंदू और मुस्लिमों के बीच विभाजित किया है।" वे और उनके समूह हिंदू और मुस्लिम बंगालियों को एक साथ जोड़ रहे हैं। इस तरह की एकता से बंगालियों के राजनीतिक समूह की संख्या बढ़ेगी और इस तरह वे एक बड़ा समूह बन जाएंगे।

बीजेपी एक अलग खेल खेल रही है: यह हिंदू बंगालियों को नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 से लुभा रही है जबकि बंगाली मुसलमानों को बांटने और आपस में लड़ाने पर तुली है। बीजेपी का उद्देश्य हिंदू बंगालियों और असमियों को एक साथ जोड़ना और बंगाली मुसलमानों को अलग-थलग करना है। जैसा कि हालिया लोकसभा चुनावों के परिणामों में देखा गया है जहां बीजेपी ने असम में ज़्यादा सीटों पर क़ब्ज़ा किया है।बीजेपी ने यहाँ 14 में से 9 सीट पर जीत हासिल की है।

एक संक्षिप्त इतिहास

मुस्लिमों और हिंदू बंगालियों का असम में आने का इतिहास काफ़ी पुराना है। वर्ष 1826 की घटना है जब अंग्रेज़ों ने बंगाल प्रेसीडेंसी के साथ असम को मिला दिया था। बड़ी संख्या में बंगालियों को औपनिवेशिक शासकों द्वारा लिपिकीय नौकरियों (हिंदू बंगालियों) और नदी के किनारे (मुस्लिम बंगालियों) की खेती के लिए असम लाया गया था। बाद के चरण में मुस्लिम अप्रवासियों को पट्टे पर ज़मीन की पेशकश की गई। इससे ज़्यादातर मुस्लिमों ने असम की तरफ़ रुख किया जिसके परिणामस्वरूप बहुसंख्यक असमिया की भावना धीरे-धीरे मुसलमानों के ख़िलाफ़ होने लगी। मुख्य रूप से स्थानीय किसानों को मुस्लिम बंगाली किसानों को उनके ज़मीन हड़पने का विचार पसंद नहीं आया।

हिंदुओं को उच्च लिपिक पदों पर भर्ती किया गया था। इसलिए अल्पसंख्यक होने के छिपे डर की लहर और घृणा ज़्यादातर मुस्लिम किसानों के ख़िलाफ़ हो गई। हालांकि बारपेटा के धनीराम तालुकदार जैसे प्रख्यात असमिया बुद्धिजीवी थे जिन्होंने लोगों के आंतरिक भय को कम करने के लिए पहल शुरू की और बंगाली मुसलमानों से असमिया को अपनी भाषा के रूप में अपनाने की शुरुआत करने का आग्रह किया जिसको लेकर मुस्लिम इच्छुक थे। जोयनाथ बोरा ने 1925 में प्रकाशित एक्सोमोट बिदेशी नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में आने वाले नए लोगों से अनुरोध किया कि वे असमिया पहचान को अपनाएं। हिंदू बंगाली पहले से ही बेहतर स्थिति में थे और इसलिए उन्होंने ऐसे किसी भी अनुरोध या सोच को नहीं माना। उन्होंने अपनी शिक्षा और पहचान को हमेशा बंगाली रखा।

भय तथा घृणा की दूसरी लहर जिसने असमिया लोगों के ज़ेहन को भयग्रस्त तब कर दिया जब असम की सादुल्लाह मिनिस्ट्री (1937-41) ने "ग्रो मोर फ़ूड" (अधिक खाद्य उपजाओ) योजना के तहत बड़ी संख्या में बंगाली भाषी ग़रीब, भूमिहीन और शोषित मुस्लिम किसान पूर्वी बंगाल के पड़ोसी ज़िलों से असम पहुंचे और उन्हें उस समय के कामरूप, नागांव और दारंग में सुनियोजित तरीक़े से बसाया गया। विभाजन के बाद असम में विशेष रूप से गोलपारा ज़िले में बंगाली मुसलमानों और आने वाले नए हिंदुओं के बीच दंगा भड़क गया था। इस घटना ने कई मुसलमानों को नवगठित पूर्वी पाकिस्तान में भागने के लिए मजबूर किया। हालांकि, इनमें से ज़्यादातर लोग नेहरू-लियाक़त समझौते के बाद असम वापस आ गए। इस समझौते ने सीमा के दोनों ओर दोनों समुदायों के लिए सुरक्षा सुनिश्चित की थी। फिर बाद में बंगाली मुसलमानों ने असमिया को अपनी पहचान के रूप में अपनाना शुरू कर दिया।

चालो पलटाई को लेकर मुख्यधारा के असमी लोगों की प्रतिक्रिया

अब जबकि दो मुस्लिम समूह अब आपस में लड़ रहे हैं। असमी डरते हैं कि वे अल्पसंख्यक बन सकते हैं। मुसलमानों के साथ समीकरण बनाने के लिए असमी सोच समझकर क़दम उठा रहे हैं जो अभी भी अपनी मिया और असमी दोनों रूप में पहचान रखना चाहते हैं, ये एक घटी हुई पहचान है हालांकि असमी का समर्थन कर रही है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि असमिया अपने प्रमुख स्थान पर बने रहेंगे। इसीलिए, डॉ. हिरेन गोहैन एक एहतियाती संदेश भेजते हुए कहते हैं, "विभाजन से पहले के दशकों में स्थानीय और अप्रवासी मुसलमानों के बीच काफ़ी तनाव था क्योंकि उनमें से ज़्यादातर लोग पाकिस्तान के उग्रवादी समर्थक थे। विभाजन के बाद स्थानीय लोगों ने मांग की कि जो लोग विभाजन से पहले तीन दशकों में आए थे उन्हें अपने देश लौट जाना चाहिए था। वे बेहद असुरक्षा से ग्रसित थे।"

गोहैन ने आगे कहा, "कांग्रेस नेतृत्व ने समाधान निकाला था। अगर उन्होंने असमी को शिक्षा और आधिकारिक काम-काज की भाषा के रूप में स्वीकार किया तो उन्हें नागरिक के रूप में माना जाएगा। ऐसा करने से 80 के दशक से पहले स्थापित शांति को फिर से बहाल किया जा सकता है जिसे नेताओं के हिंसक सांप्रदायिक दुष्प्रचार द्वारा ख़त्म कर दिया गया था।"

गोहैन ने सचेत करते कहा, "लेकिन यह समझौता अभी भी दुष्ट लड़ाई के ख़िलाफ़ ढाल के रूप में काम कर रहा है। इसकी वापसी से हिंसा और अव्यवस्था को फिर से बढ़ावा मिलेगा।"

ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के सलाहकार डॉ. समुज्जल भट्टाचार्य ने भी लोगों से अपील की है कि वे चालो पलटाई आंदोलन पर बिल्कुल भी प्रतिक्रिया न दें। "वास्तव में इस मुद्दे पर किसी भी प्रतिक्रिया की आवश्यकता नहीं है। लेकिन आप पूछ रहे हैं, तो यह चालो पलटाई शब्द पहली बार त्रिपुरा चुनावों में इस्तेमाल किया गया था। अब हम पूरी स्थिति का बारीक़ी से देख रहे हैं। यह विभाजनकारी ताक़तों की साज़िश है। इसलिए हम लोगों से अपील कर रहे हैं कि वे ऐसी किसी साज़िश में न उलझें, लेकिन हम अपनी मातृभूमि में अपनी भाषा, संस्कृति, पहचान की रक्षा करने के लिए वचनवद्ध हैं।"

फ़ोरम फ़ॉर सोशल हार्मनी से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता हर कुमार गोस्वामी ने ब्रह्मपुत्र घाटी के बंगाली मुसलमानों के साथ सहानुभूति व्यक्त करते हुए इस मुद्दे पर कुछ अलग तरीक़े से प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा, "आज कल मिया मुस्लिम के एक हिस्से जिसमें युवाओं की ज़्यादा संख्या है उसने चालो पलटाई कार्यक्रम की शुरुआत की है। जहां तक मुझे पता है पहले से ही मुस्लिम समुदाय के भीतर ही बहस छिड़ी हुई है। कई लोग इसके ख़िलाफ़ हैं। कई लोग तो इसके पीछे राजनीतिक साज़िश को मान रहे हैं। ख़ैर, मैंने उन लोगों का एक वीडियो देखा जिन्होंने इस आंदोलन को शुरू किया था। अब यह उनका व्यक्तिगत मामला है कि वे होने वाली जनगणना में अपनी संस्कृति या अपनी भाषाई पहचान को कैसे बताएंगे। इसलिए एक बाहरी व्यक्ति के रूप में मुझे नहीं लगता कि मैं इस पर टिप्पणी करने वाला कोई व्यक्ति हूं।"

उन्होंने कहा, "उन्हें बंगाली या असमी के रूप में ख़ुद को पहचानने के लिए व्यक्तिगत अधिकार मिले हैं; उनके पास असमी या बंगाली होने के अलावा ख़ुद को मिया कहने का भी अधिकार है। लेकिन मैंने इस मुद्दे पर कई प्रतिक्रिया देखी है जिसे मैं नहीं समझता हूं कि एक अच्छा क़दम है। हालांकि 1950 के बाद से मुसलमान ख़ुद को असमी के रूप में बताते रहे हैं तो क्यों उन्हें 2021 की जनगणना में अपनी पहचान बदलने के बारे में सोचना चाहिए जो एक गंभीर सवाल है। हमें इस कारण पर गहराई से सोचने की ज़रूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है।"

आगे इस स्थिति का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा, "हमें बिना किसी संदेह के स्वीकार करने की आवश्यकता है कि भले ही मुसलमानों की बड़ी आबादी है, आज वे कई तरह के अन्याय का सामना कर रहे हैं। एनआरसी का ही उदाहरण लें जहां सभी दस्तावेज़ सही होने और उनके नामों को मसौदा सूची में सही होने के बावजूद उन्हें अपने एनरॉलमेंट पर बड़े पैमाने पर आपत्तियों का सामना करना पड़ा है। क्या यह उत्पीड़न नहीं है? कुछ लोग, भले ही एक छोटा समूह है, इन लोगों को परेशान करने में गुप्त रूप से शामिल हैं। लेकिन हम में से अधिकांश लोग इस मुद्दे पर ख़ामोश ही रहे। इस उत्पीड़न के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन होना चाहिए था जो नहीं हो रहा है। जिसको लेकर मुसलमान वंचित महसूस कर रहे हैं और ख़ुद को अलग-थलग पा रहे हैं। शायद यही कारण है कि इस प्रकार का आंदोलन उभर गया है।"

आंतरिक भय और ग़ुस्सा असमी और बंगाली दोनों ओर मंडरा रहा है लेकिन शायद यह असमी बुद्धिजीवियों और नेतृत्व के लिए सही समय है कि वे एनआरसी के नाम पर और हिरासत शिविरों में हो रहे कथित अन्याय को लेकर आवाज़ उठाएं। उन विभाजनकारी ताक़तों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं जो असम की अखंडता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं जिसको समूज्जल भट्टाचार्य महसूस करते हैं।

लेखक असम में स्वतंत्र कंटेंट मैनेजमेंट कनसल्टेंट हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी है।

 

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