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बैंक सार्वजनिक ही होने चाहिए

"पूंजीवाद को अपनी उचित कार्यप्रणाली के लिए सार्वजनिक रूप से स्वामित्व वाली बैंकिंग प्रणाली की आवश्यकता होती है।"
BOI

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) की हालिया खस्ता हालत ने निजी कंपनियों और उनके संगठनों ने भारतीय बैंकिंग प्रणाली के निजीकरण के लिए अपनी माँग को दोबारा से उठाने बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया है। ऐसी मांगें तब आ रही हैं जबकि हालांकि यह देखने से स्पष्ट है कि वे निजी बैंक ही है जो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तुलना में विफलता की अधिक संभावना है। तथ्य यह है कि 1969 के बाद से भारत में कुल 36 निजी बैंक विफल हुए हैं।

सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की मांग भी भारत के प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कारणों की अनदेखी करते हैं। इस मामले में तथ्य यह है कि निजी बैंक उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर रहे थे जिसमें बैंकिंग प्रणाली को भारत जैसे विकासशील देश में सेवा करने वाली होनी चाहिए थी।

ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सेवाएं देने में और किसानों और लघु उद्योगों को ऋण देने में निजी बैंक हमेशा से विफल रहे थे। निजी बैंक भी एक अभूतपूर्व दर पर तबाह हो रहे थे - राष्ट्रीयकरण के दो दशक पहले 736 बैंक विफल हुए थे या उन्हें अन्य बैंकों द्वारा अधिग्रहित आकर लिया गया था।

राष्ट्रीयकरण के बाद ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा ग्रामीण बैंकिंग नेटवर्क का विस्तार किया गया था, और तब से भारत में ग्रामीण और अर्ध-शहरी बैंकों की संख्या में बड़ी वृद्धि हुई है। जैसा कि हेमन्द्र हजारी ने हाल ही के अपने एक लेख में बताया:

"जून 1969 में, राष्ट्रीयकरण से पहले, केवल 1,833 ग्रामीण और 3,342 बैंकों के अर्ध-शहरी कार्यालय थे। मार्च 1991 तक, यह आंकड़े 35,206 ग्रामीण कार्यालयों और 11,344 अर्द्ध-शहरी कार्यालयों तक पहुंच गया । इस अवधि के दौरान कुल कार्यालय 8,262 से बढ़कर 60,220 हो गए और बैंक की शाखाओं में इस तरह के बड़े पैमाने पर विस्तार हुआ, जो कि अर्थव्यवस्था के बकाया क्षेत्रों को बैंकिंग तक पहुंचने के लिए काफी हद तक निजी स्वामित्व के तहत नहीं हो सका था, क्योंकि निजी निवेशक अपेक्षाकृत कम अवधि के अक्र्ज़ के जरिए बड़े मुनाफे की उम्मीद रखते थे। यह केवल सरकार ही थी जो बैंकों को एक व्यापक विकास कार्यसूची का पालन करने का निर्देश दे सकती थी। "

ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक बैंकिंग नेटवर्क के विस्तार का मतलब है कि अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की कुल संख्या में ग्रामीण शाखाओं का हिस्सा 1969 में 22 प्रतिशत से बढ़कर 1990 में 58 प्रतिशत हो गया।

यह राष्ट्रीयकरण ही था जिसने सरकार को उन क्षेत्रों को कुल ऋण का एक हिस्सा देने की इजाजत दी जो कि इसे प्राथमिकता वाले क्षेत्रों जैसे कि कृषि और लघु उद्योग के रूप में माना गया था। ये ऐसे क्षेत्र थे जो प्राइवेट बैंकों द्वारा व्यावहारिक रूप से नजरअंदाज कर दिए गए थे। राष्ट्रीयकरण के बाद, कुल ऋण में लघु स्तर और अन्य प्राथमिकता वाले क्षेत्रों की भागीदारी 1972 के अंत में 22 प्रतिशत से बढ़कर 1979 के अंत तक 45 प्रतिशत हो गई।

बैंक के राष्ट्रीयकरण ने यह भी सुनिश्चित किया कि बैंकिंग प्रणाली अपेक्षाकृत स्थिर बनी रहे, भले ही पश्चिम के उन्नत देशों में कई बैंक 2008 के बाद से दुनिया भर में आर्थिक संकट के असर से गिर गए।

यह कोई दुर्घटना नहीं है, और व्यक्तिगत निजी बैंकों की ओर से कुप्रबंधन का ही केवल एक मुद्दा नहीं है। मुद्दा यह भी है कि निजी बैंकों का वर्चस्व वाली बैंकिंग सिस्टम संरचनात्मक रूप से अधिक अस्थिर होगा।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन और योजना केंद्र के प्रोफेसर सीपी चंद्रशेखर,, ने 2009 के एक पत्र में इसके लिए कारणों की रूपरेखा बताई है, जिसमें उन्होंने अमेरिका के संकट की जड़ों को उस देश के बैंकिंग ढांचे में संक्रमण के रूप में देखा।

1933 के ग्लास-स्टीगल अधिनियम ने वाणिज्यिक बैंकिंग और निवेश बैंकिंग के बीच एक दीवार खड़ी की थी। यह प्रणाली अत्यधिक विनियमित थी, और बैंकिंग संरचना "खरीद और धारण" रणनीति के आधार पर थी, जैसा कि चंद्रशेखर कहते हैं। सरल शब्दों में, इसका मतलब यह हुआ कि बैंकों ने जमा राशि ली और ऋण दिया और शुद्ध ब्याज मार्जिन बैंकों के रिटर्न के मुख्य स्रोत थे। रिटर्न की दर अपेक्षाकृत छोटी थी।

इस प्रणाली ने दूसरे विश्व युद्ध के अंत से और 1970 के दशक तक उच्च विकास के स्वर्ण युग के दौरान अच्छी तरह से अमेरिका की सेवा की, लेकिन विनियमन से एक विरोधाभास उभरा। बैंकिंग प्रणाली पर निजी बैंकों का प्रभुत्व था, और वे गैर-बैंकिंग क्षेत्रों के बराबर अधिक रिटर्न चाहते थे। इस तरह के उच्च रिटर्न तब तक संभव नहीं थे जब तक कि इस तरह के तंग नियमों को लागू नहीं किया गया था और इसलिए निजी बैंकों ने अविनियमन के लिए दम लगाना शुरू कर दिया। एक बार जब सरकार ने इस तरह के दबावों का जवाब दिया और अविनियमन के बारे में बताया, तो बैंकिंग ढांचे को एक "उत्पत्ति और बिक्री" रणनीति में बदल दिया गया था, जिसमें "क्रेडिट जोखिम को प्रतिभूतिकरण की एक स्तरित प्रक्रिया के माध्यम से स्थानांतरित किया गया जिससे तथाकथित विषाक्त संपत्ति को पैदा किया"। बैंकों को अधिक जोखिमपूर्ण गतिविधियों में शामिल कर दिया गया, जो वित्तीय गतिविधियों के साथ-साथ हेरफेर के मामले में अतिसंवेदनशील हो गए थे।

इसलिए, जब एक बार यह पहचान कर ली गयी कि बैंकिंग प्रणाली वित्तीय क्षेत्र का मुख्य केंद्र है, और यह कि अर्थव्यवस्था की भलाई के लिए इसकी स्थिरता जरूरी है, इसे स्वीकार करना होगा कि बैंकों को एक उच्च विनियमित वातावरण में कार्य करना चाहिए जो उन्हें कमाई करा सकें और जिसका रिटर्न अपेक्षाकृत कम होगा।

लेकिन अबदले में, इसका मतलब होगा कि बैंकिंग प्रणाली को सार्वजनिक करना होगा, ताकि नियमों को खत्म करने के दबाव से बचा जा सके।

चंद्रशेखर कहते हैं, "इसलिए पूंजीवाद को अपने स्वयं के उचित कामकाज के लिए सार्वजनिक रूप से स्वाधिकृत बैंकिंग प्रणाली की आवश्यकता होती है,"

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