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भारत के शिक्षित बेरोज़गार निजी के बजाय सरकारी नौकरी को प्राथमिकता देते हैं: सर्वे

सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज़ के सर्वेक्षण के ज़रिये दिल्ली, जयपुर और इलाहाबाद में सरकारी नौकरी के इच्छुक उम्मीदवारों से बात करने पर कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए।
बेरोज़गारी

जैसे-जैसे बेरोज़गारी बढ़ रही है, हर साल लाखों शिक्षित युवा सरकारी नौकरियों के छोटे होते आकार और सिकुड़ते अवसरों के बावजूद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते रहते हैं और बाक़ायदा परीक्षा भी देते हैं।
6 मई को जारी सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज़ (सीईएस) द्वारा दिल्ली, जयपुर और इलाहाबाद, यानी तीन उत्तर भारतीय शहरों में शिक्षित बेरोज़गारों की समस्याओं को लेकर एक नया सर्वेक्षण किया गया – इस सर्वेक्षण में विशेष रूप से सरकारी नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाले युवाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया था।

यह सर्वेक्षण मुख्यतः तीन शहरों के 515 उत्तरदाताओं के बीच किया गया था जो सरकारी नौकरियों के लिए न केवल तैयारी कर रहे थे बल्कि प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोचिंग भी कर रहे थे।

इस "आकांक्षा और निराशा के बीच: सरकारी नौकरी और शिक्षित बेरोज़गारों का भविष्य" शीर्षक से प्रकाशित, सर्वेक्षण रिपोर्ट का मुख्य मक़सद "अनुभव, चुनौतियों, सामाजिक पृष्ठभूमि, निवेश (समय और धन का) और शिक्षित बेरोज़गार लोगों की अपेक्षाओं को बेहतर ढंग से समझना था। "
कुल उत्तरदाताओं में से 72 प्रतिशत स्नातक थे जबकि 19 प्रतिशत स्नातकोत्तर थे।

सर्वेक्षण में यह ख़ास तौर पर पता चला है कि शिक्षित बेरोज़गारों में अधिकांश न केवल निजी रोज़गार की तुलना में सरकारी नौकरियों को प्राथमिकता देते हैं, बल्कि वास्तव में वे निजी क्षेत्र को बड़े ही नकारात्मक रूप से देखते हैं – जिसे वे कम सुरक्षित, अधिक शोषक, और लंबे समय तक काम करने के मुक़ाबले कम भुगतान करने वाला क्षेत्र मानते हैं।

“निजी क्षेत्र में नौकरियों की धारणा मुख्य रूप से नकारात्मक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्व में निजी क्षेत्र में काम करने वाले कई उत्तरदाताओं ने अपनी कामकाजी परिस्थितियों को अवांछनीय रूप से शोषणकारी और कम वेतन वाली बताया।

इस रिपोर्ट के हवाले से इलाहाबाद का किशोर नाम का एक नौजवान निजी उद्योग में काम करने के अपने अनुभव के बारे में कुछ इस तरह से ज़िक्र करता है:
“पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा लेने के बाद, मैं एक प्लांट में काम करने के लिए चेन्नई चला गया था। हम में से 20-25 लोग थे जो एक साथ वहाँ गए थे। लेकिन वहाँ पहुँचने के बाद हमें जो स्थितियाँ मिलीं वे वैसी नहीं थी जैसा कि हमें बताया गया था। यहाँ हमें बहुत कम वेतन मिलता और 12 घंटे काम करना पड़ता था।”

उन्होंने कहा कि जो लोग आर्थिक रूप से कठिन हालत का सामना कर रहे थे उन्हें छोड़कर, बाक़ी लोग एक सप्ताह के भीतर ही संयंत्र छोड़कर चले गए। किशोर ने महसूस किया कि उनका तीन साल का डिप्लोमा "बेकार" हो गया। जैसा कि रिपोर्ट कहती है, “यह डिप्लोमा केवल ग़ैर-मानवीय नौकरियों को पाने के लिए था। और इसलिए उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए तैयारी शुरू की। ”

साथ ही, शिक्षित बेरोज़गार इस बात से सहमत नहीं हैं कि निजीकरण देश में बढ़ती बेरोज़गारी का जवाब है – यहाँ हमें हाल ही में लीक हुए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट को नहीं भूलना चाहिए जिसमें पाया गाया था कि देश में 45 साल में आज सबसे उच्च बेरोज़गारी की दर है।

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि, "शहर दर शहर हम अपने उत्तरदाताओं में बड़े पैमाने पर पैदा हुई उस नकारात्मक धारणा को पाते हैं जिसे निजीकरण के रूप में प्रचलित नौकरी संकट का समाधान बताया जाता रहा है।" 
"इसके बजाय, उनमें से एक बड़ा हिस्सा मानता है कि बेरोज़गारी को दूर करने के लिए रिक्तियों को भरना और राज्य में नौकरियों को आगे बढ़ाने के तरीक़े पर विचार किया जाना चाहिए।"

दरअसल, जैसा कि हाल की रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि अकेले केंद्र सरकार विभागों में 24 लाख नौकरियाँ ख़ाली पड़ी हैं।
साथ ही, युवाओं ने "शहरी नौकरी की गारंटी या स्नातकों के लिए रोज़गार की गारंटी को क़ानूनी जामा पहनाने की प्राथमिकता की बात कही है।"
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सर्वेक्षण किए गए शिक्षित युवाओं में से 71 प्रतिशत का सोचना है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर्याप्त संख्या में रोज़गार पैदा करने में विफ़ल रही है, जबकि 18 प्रतिशत का इसके विपरीत मानना था और 11 प्रतिशत अनिश्चित थे।

सर्वेक्षण इस तथ्य को भी रेखांकित करता है कि किसी को नौकरी पाने की मजबूरी में जिस तरह की नौकरी मिलती है, उसे ज़्यादा लंबे समय तक किया नहीं जा सकता है। पिछले साल याद कीजिए जब हज़ारों शिक्षित युवाओं (54,230 स्नातकों; 28,050 स्नातकोत्तर और 3,740 पीएचडी धारकों) ने यूपी पुलिस में मैसेंजर यानी चपरासी के 62 पदों के लिए इतनी बड़ी संख्या में आवेदन किया था?
सर्वेक्षण बताता है कि हाल के वर्षों में परीक्षाओं को पास करने और नौकरी हासिल करने में सफ़लता की दर में गिरावट आयी है - यहाँ तक कि चयन और भर्ती प्रक्रियाओं में लोगों का विश्वास कम हो गया है। इसके लिए जिन कारणों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है, उनमें "मुख्य रुप से घोटालों और नियमित लीक साथ ही पारदर्शिता में कमी, आदि शामिल हैं" यहाँ पिछले साल कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) परीक्षा पेपर लीक घोटाला और उसके बाद हुए विरोध प्रदर्शनों को याद करें?

सर्वेक्षण में, 39 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने दावा किया कि चयन प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं थी (21 प्रतिशत ने कहा कि  बिल्कुल उचित नहीं थी जबकि 18 प्रतिशत निष्पक्ष रहे)।

रिपोर्ट में एक कोचिंग प्रशिक्षक के हवाले से लिखा गया है कि आम लोगों का "निष्पक्ष मूल्यांकन में विश्वास 2014 के बाद से उठ गया है और 2016 के बाद से इसमें सेंध लगी है।"
इसके अलावा, उत्तरदाताओं में से 65 प्रतिशत ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे, उन्होंने महसूस किया कि "ग्रामीण क्षेत्रों के प्रतियोगी होने के नाते उन्हें अपनी तैयारी के दौरान ज़्यादा नुक़सान का सामना करना पड़ता है।" केवल उन परिवारों के छात्र जो आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत बेहतर हैं, वे परीक्षा तैयारी के लिए बड़े शहरों में जा सकते हैं। 

सर्वेक्षण में दिल्ली, जयपुर और इलाहाबाद में प्रतियोगियों की वर्ग संरचना में व्यापक बदलाव पाया गया।
ऊपरी आय वर्ग से संबंधित प्रतियोगी दिल्ली में सबसे अधिक थे, जयपुर में कम थे और इलाहाबाद में और भी कम थे।
ग्रामीण पृष्ठभूमि में वर्ग के बीच ओवरलैप भी है। सर्वेक्षण से पता चलता है कि "दिल्ली में सबसे कम 50 प्रतिशत जबकि जयपुर में 87 प्रतिशत और इलाहाबाद में 92 प्रतिशत ग्रामीण पृष्ठभूमि से प्रतियोगियों का अनुपात आता है।"

उत्तरदाताओं में से कुल 37 प्रतिशत ने कृषि को परिवार की आय का प्राथमिक साधन बताया। दिल्ली में यह 22 प्रतिशत था जबकि जयपुर और इलाहाबाद में यह क्रमशः 55 और 71 प्रतिशत था।
सर्वेक्षण में पाया गया कि "उच्च जाति और ओबीसी पूरे नमूने का प्रत्येक का 40 प्रतिशत  प्रतियोगियों के रैंक पर हावी होने वाला विशाल हिस्सा हैं।"

उच्च जातियों के उम्मीदवारों का अनुपात दिल्ली में सबसे अधिक 52 प्रतिशत था, यह जयपुर में 24 प्रतिशत और इलाहाबाद में उससे कम 15 प्रतिशत था।

ओबीसी का अनुपात दिल्ली में 33 प्रतिशत से बढ़कर जयपुर में 47 प्रतिशत और इलाहाबाद में 58 प्रतिशत हो गया है। इस बीच, अनुसूचित जातियों (एससी) का केवल 9.5 प्रतिशत नमूना मिला, जबकि अनुसूचित जनजातियों से सिर्फ़ 8 प्रतिशत रहा।

सरकारी नौकरी के इच्छुक उम्मीदवारों में प्रतियोगी परीक्षा में बैठने वालो के बीच मुसलमानों का प्रतिनिधित्व काफ़ी कम है, सर्वेक्षण के मुताबिक़ नमूने में उनका अनुपात मात्र 4.66 प्रतिशत था।

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