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बिहार चुनाव : मक्का किसानों को लागत से कम मिलता है दाम 

पिछले साल 2019 के मुक़ाबले जब मक्का की फसल उगाने वाले किसानों ने अच्छा लाभ कमाया था, इस बार लॉकडाउन की वजह से उन्हें उसका आधा दाम ही मिल पाया है। मक्का की फसल के मामले में बिहार भारत का का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
बिहार चुनाव

मुरलीगंज/बिहारीगंज: "लाभ की बात छोड़िये, इस साल मक्‍का की लागत भी नहीं निकली है, इस बार भारी नुकसान हुआ है, क्या करें। सरकार केवल ढ़ोल पीटती है कि किसान को एमएसपी मिल रही है; किसान की आय बढ़ने के सभी दावे झूठे हैं, त्रिलोक दास जोकि बाढ़ वाले क्षेत्र कोशी से मक्का बौने वाले किसान हैं ने उक्त बातें कहीं, यह वह इलाका है जिसे सीमांचल क्षेत्र के साथ मक्का की खेती के मुख्य केंद्र के रूप में जाना जाता हैं।

त्रिलोक हजारों मक्का उगाने वाले किसानों में से एक है, जो सरकार का समर्थन न मिलने से काफी पीड़ित हैं क्योंकि उन्हें मक्का की फसल के मुक़ाबले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मुश्किल से मिलता है, जिसके चलते उन्हे अपनी फसल औने-पौने दामों पर बेचनी पड़ती हैं।

त्रिलोक दास अपने खेत में इकट्ठा की गई मकई के पास खड़े हैं। फोटो: मोहम्मद इमरान खान

खाली खेत में खड़े त्रिलोक दास नवंबर के मध्य तक फिर से खेती करने की योजना बना रहे थे,  उन जैसे लोग काफी असहाय हैं और फिर से प्रयास करने के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नहीं है। अनिश्चितता यहां का कड़वा सच है।

पिछले साल के मुक़ाबले जब उसने और दूसरों किसानों ने असाधारण रूप से ऊंची दरों पर मकई को बेचकर अच्छा-खासा लाभ कमाया था, इस साल मजबूरी में संकटपूर्ण बिक्री से भारी नुकसान उठाना पड़ा है। उन्होंने बताया कि, 'मैंने इस बार स्थानीय व्यापारियों को 900 रुपये से लेकर 1000 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से मक्का बेचा है, जबकि पिछली बार मक्का का दाम 1,800 रुपये से लेकर 2,000 रुपये क्विंटल तक था।' यद्द्पि केंद्र सरकार ने मक्का की एमएसपी 1,760 रुपये प्रति क्विंटल तय की थी। 

मधेपुरा जिले में बिहारीगंज विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले मुरलीगंज ब्लॉक के रजनी गाँव के निवासी त्रिलोक ने बताया कि अप्रैल में मक्के की फसल खड़ी थी लेकिन बेमौसम भारी बारिश ने तबाह कर दिया। “मुझे 2019 की तरह इस फसल से अच्छा मुनाफा कमाने की उम्मीद थी। हालांकि, मैं गलत साबित हो गया। लॉकडाउन की वजह से मांग में गिरावट आने से कीमत गिर गई। इस सब ने मेरे जैसे किसानों को बुरी तरह प्रभावित किया है।

मधेपुरा, सहरसा, सुपौल, कटिहार, किशनगंज, पूर्णिया और अररिया सहित कोशी और सीमांचल बेल्ट की 78 विधानसभा सीटों में से लगभग 40 पर 7 नवंबर को तीसरे और अंतिम चरण का मतदान होगा। 

हालांकि, मक्का की कीमतों का कम होना और उस पर एमएसपी न मिलना 5 नवंबर को समाप्त होने वाले चुनाव अभियान में कोई मुद्दा नहीं है। मक्का की फसल, जो इस क्षेत्र के किसानों की जीवन रेखा है, उसका चुनाव घोषणापत्र में उल्लेख भी नहीं है, जिसमें भाजपा जद (यू) और राजद तीनों  शामिल है।

त्रिलोक ने बताया कि मई और जून के महीने में कम कीमतों के कारण उसे एक लाख रुपये का नुकसान हुआ है (जिसमें उत्पादन और उसके अतिरिक्त श्रम की लागत शामिल है)। “मैं दस एकड़ भूमि में मक्का उगाता हूं। उन्होंने कहा कि उत्पादन (बीज, उर्वरक, कीटनाशक, लेबर चार्ज) की लागत लगभग 15,000 रुपये प्रति एकड़ है, लेकिन मुझे सारी उपज बेचने के बाद काफी कम दाम मिला है।

उन्होंने कहा कि यदि वह- जोकि एक अपेक्षाकृत संपन्न किसान है- अगर पीड़ित है, तो आप फिर छोटे और सीमांत किसानों की दुर्दशा की कल्पना नहीं कर सकते हैं। “मेरे पास प्रति एकड़ में लगभग 25 से 30 क्विंटल की अच्छी उपज हुई थी क्योंकि मैं मुख्य रूप से हाइब्रिड बीज बोता हूं और सिंचाई और मजदूरों के काम पर नज़र रखता हूं। लेकिन गरीब किसान ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इसके लिए अधिक धन की जरूरत होती है।

उसी गाँव के एक मक्का पैदा करने वाले छोटे किसान शंभू कुमार, भी उसी नाव में सवार हैं- उन्हें भी दाम उत्पादन की लागत से कम मिला है और उनके पास बाज़ार का कोई सीधा समर्थन नहीं है। उन्होंने कहा,' व्यापारियों ने लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए पिछले साल के मुक़ाबले आधी कीमत की पेशकश की थी। कोई अन्य विकल्प नहीं होने की वजह से मुझे तीन बीघा जमीन की पैदावार को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा।”

शंभू ने कहा मजबूरी में की गई बिक्री से बड़ा नुकसान हुआ है। उन्होंने कहा, 'मुझे उम्मीद थी कि कुछ तो पैसे मिलेंगे, लेकिन जो मिला, वह पिछले साल का आधा था। मैंने पिछले सप्ताह मकई को 1,050 रुपये प्रति क्विंटल में बेचा था, जिसके बाद उम्मीद थी कि शायद कीमतें बढ़ेंगी। मक्का को यहाँ बड़े तौर पर नकदी फसल माना जाता है,” पाँच सदस्यों के परिवार के एकमात्र कमाने वाले शंभू ने बताया। 

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि मक्का उगाने वाले किसानों को कृषि से मिल रही कम आय के कारण कारखानों में मजदूरों के रूप में पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।  उन्होंने बताया, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की डबल इंजन की सरकार इस दुर्गति के लिए जिम्मेदार है। मोदी सरकार ने कागज पर मक्का की एमएसपी की घोषणा कर दी और नीतीश सरकार ने इसे देने से इनकार कर दिया। किसानों को गफलत में छोड़ दिया गया। उन्होंने कहा कि सरकार किसानों की उपेक्षा कर रही है, इसलिए वे सरकार से नाराज हैं। उसने बताया कि उन्हे एक भी किसान ऐसा नहीं मिला जो सरकार से खुश है।"

गंगापुर गांव के रहने वाले बिजेन्द्र ने बताया कि उन्हें इस साल 70,000 रुपये का नुकसान हुआ है। “मुझे जो कीमत मिली वह पिछले साल से आधी थी। मैंने आठ बीघा जमीन से 150 क्विंटल मक्का 1,000 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बेचा है। लाभ छोड दो, हमें तो उत्पादन की लागत भी नहीं मिली है, बड़े दुखी मन से उन्होंने बताया।

बृजेन्द्र यादव 

दिघी गाँव के राजेंद्र मंडल ने बताया कि सरकार ने किसानों के साथ धोखा किया गया है। “मोदी सरकार का आय दोगुनी करने के वादा केवल कोरा वादा बन कर रह गया हैं। केंद्र ने एमएसपी तो तय कर दी लेकिन राज्य सरकार उसे दे नहीं रही है। फिर दावा क्यों कि किसानों को एमएसपी मिली है? ” उसने सवाल दागते हुए पूछा।

 उन्होंने कहा, '' सरकार को एमएसपी के तहत मक्का की खरीद उसी तरह से करनी चाहिए जिस तरह वह धान और गेहूं के खरीद करती है। हमें शायद ही कोई समर्थन मिलता है, लेकिन सरकारी समर्थन के अभाव में स्थानीय व्यापारी किसानों का शोषण करते है। 

संजीव कुमार, जो तुलसिया गाँव में पाँच बीघा जमीन के मालिक हैं, ने बताया कि मकई की कीमतों में अनिश्चितता जारी है। उन्होंने कहा कि पिछले साल यह 1,800 रुपये से 2,200 रुपये के बीच थी और इस साल यह मात्र 900 रुपये से 1,050 रुपये के बीच आ गई है। “पिछले साल की ऊंची कीमत को देखते हुए किसानों ने बड़ी संख्या में मकई की खेती की थी। हालांकि, उन्हें पिछले वर्ष के मुक़ाबले आधी कीमत मिली है; किसानों के लिए यह एक बड़ा झटका है। तुलसिया गांव बिहारीगंज प्रखंड के अंतर्गत आता हैं। 

युवा किसान रामप्रवेश कुमार ने बताया कि मकई की खराब कीमतें मिलने से किसान इसकी बुवाई कम कर देंगे। किसानों ने एक दशक पहले जूट, धान और गेहूं से अपना ध्यान हटाकर मक्का पर लगाया था। 

लछमीपुर गाँव के निवासी, रामप्रवेश ने बताया कि सरकारी और निजी कंपनियों को कॉर्न का इस्तेमाल मुर्गी और मवेशियों के चारे के रूप में करने के लिए प्रसंस्करण इकाइयाँ स्थापित करनी चाहिए। उन्होंने कहा, "इससे स्थानीय मक्का किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे।"

कोशी नव निर्माण मंच (केएनएनएम) के अध्यक्ष संदीप यादव ने बताया कि उनका मंच धान और गेहूं किसानों को दिए जाने वाली एमएसपी की तरह मक्का किसानों के लिए भी मांग कर रहा है। “मक्का के किसानों ने कई विरोध प्रदर्शन किए लेकिन सरकार ने इसे नजरअंदाज कर दिया है। सीएम नीतीश कुमार को दी गई मांगो पर पिछले छह महीने से कुछ नहीं हुआ है। यह किसानों के प्रति सरकार की संवेदनशीलता को दर्शाता है।

कोशी नव निर्माण मंच के अध्यक्ष 

कोशी नव निर्माण मंच (केएनएनएम) के संयोजक महेंद्र यादव ने इस साल जून में पटना उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें राज्य सरकार से किसानों को एमएसपी  पर मक्का खरीदने के लिए निर्देश देने की मांग की गई थी। अदालत ने इस मामले में किसी भी तरह का निर्देश जारी करने से इनकार कर दिया है।

याचिकाकर्ता ने कहा कि राज्य सरकार ने उनकी याचिका का इस आधार पर विरोध किया कि एक विशेष फसल की खरीद एक नीतिगत मामला है और चूंकि एफसीआई के गोदामों में अन्य खाद्य अनाज के भरे होने की संभावना है, एमएसपी को ठीक करने का कोई भी निर्णय सार्वजनिक हित और नीति के खिलाफ होगा। 

मंच के नेताओं ने याद दिलाया कि छह साल पहले, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले अपने चुनाव अभियान के दौरान मक्का की फसल के लिए पर्याप्त एमएसपी देने का वादा किया था।

धान और गेहूं के मुक़ाबले, जिसे राज्य सरकार प्राथमिक कृषि क्रेडिट सोसायटी (PACS) के माध्यम से किसानों से सीधे खरीदती है, मक्का नहीं खरीदती है। इसलिए, बिहार में मक्का किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) मौजूद नहीं है। उन्होंने कहा कि वे एमएसपी से वंचित हैं और व्यापारी तबका उनका शोषण करता है।

राज्य में कृषि विभाग के अधिकारियों के अनुसार, बिहार की कुल मक्का का उत्पादन जो लगभग 65 प्रतिशत है अकेले सीमांचल और कोशी क्षेत्रों में उगाया जाता है। मक्का मुख्य रूप से चार सीमांचल जिलों पूर्णिया, किशनगंज, अररिया, कटिहार और पड़ोसी जिलों मधेपुरा, सहरसा, सुपौल और खगड़िया में पैदा होती हैं, जिनसे मिलकर कोशी क्षेत्र बंनता हैं।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, मक्का को सीमांचल क्षेत्र में 1,40,000 हेक्टेयर और कोशी क्षेत्र में लगभग 90,000 हेक्टेयर में उगाया जाता है।

सीमांचल और कोशी में सालाना 17 लाख मीट्रिक टन से अधिक मक्का उगाया जाता है। इसमें से 14 लाख मीट्रिक टन से अधिक व्यापारियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खरीदा जाता है और क्षेत्र के बाहर भेजा जाता है, जबकि 2019 तक के आंकड़ों के अनुसार, लगभग तीन लाख मीट्रिक टन की स्थानीय स्तर पर खपत होती है।

एक दशक पहले, मक्का को काफी छोटे पैमाने पर उगाया जाता था। अधिक पैदावार, ऊंची मांग और एक बेहतर लाभ की वजह से इसे पिला सोने का टैग मिला, अधिक से अधिक किसानों ने मक्का की खेती करनी शुरू कर दी। एक गाँव के बाद दूसरा गाँव धान और गेहूँ को छोड़ मक्का की खेती करने लगा। 

कृषि विभाग के अधिकारियों के अनुसार, बिहार में 3,904 किलोग्राम/हेक्टेयर की ऊंची उपज पैदा होती है, जो राष्ट्रीय औसत 2,889 किग्रा/हेक्टेयर से अधिक है। राज्य में पिछले एक दशक में मक्का उत्पादन में भारी वृद्धि हुई है।

बिहार भारत का मक्का का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। राज्य ने 2005-06 में 1.36 मिलियन टन फसल का उत्पादन किया था। 2016-17 में यह उत्पादन बढ़कर 3.85 मिलियन टन हो गया था, क्योंकि राज्य में रबी सीजन की अधिक उपज वाली मक्का गेहूं और धान की सर्दियों की फसलों की जगह ले रही है।

नीचे पिछले बारह वर्षों में मक्का की क़ीमतों की सूची दी गई है:

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिेए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Bihar Elections: Maize Farmers from Koshi-Seemanchal get Less than Output Cost, No MSP

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