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बिहार: विकलांगों को लेकर सरकारी नीतियां नाकाफ़ी, पेंशन मामूली और अनियमित

पेंशन की बेहद छोटी सी रक़म वाली योजनाओं और नीतियों को ज़मीन पर उतारे जाने की कमियों ने बिहार में विकलांगों की ज़िंदगी को मुश्किल बना दिया है।
दिलीप राम, मोची
दिलीप राम, मोची

इस साल जनवरी के मध्य में बिहार के मधुबनी में एक नाबालिग़ विकलांग लड़की के साथ हुए बलात्कार और उसे अंधी बनाये जाने की घटना ने राज्य में विकलांगों (PwD) की ज़िंदगी पर एक बहस छेड़ दी है। बिहार भर के विकलांग अपने समुदाय के मुश्किलों से निजात दिलाने वाले उपायों को समावेशी दृष्टिकोण के साथ पारदर्शी तरीक़े से लागू किये जाने की मांग कर रहे हैं।

विकलांग नागरिकों के लिए क़ानूनों की कोई कमी नहीं है, और इसके चलते समाज के इस पीड़ित वर्ग तक पहुंचने और मदद करने के लिहाज़ से राज्य की गंभीरता संदिग्ध और निरर्थक है। विकलांग (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995 से लेकर विकलांग अधिकार अधिनियम, 2016 जैसे बेशुमार क़ानन काग़ज़ पर अटे-पड़े हैं, 'विकलांग' अब 'दिव्यांग' हो गया है, लेकिन ऐसा लगता है कि महज़ शब्दावली ही बदली है क्योंकि विकलांगता के साथ जी रही एक बहुत बड़ी आबादी गरिमा से रहित ज़िंदगी जी रही है।

1995 के इस अधिनियम में विकलांगता की सात स्थितियां सूचीबद्ध थीं, जिनमें अंधापन, कम दृष्टि, ठीक हो चुका कुष्ठ रोग, श्रवण दोष, अस्थि विकलांगता (Locomotor disability), मानसिक मंदता और मानसिक रुग्णता शामिल है। आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम, 2016 में इस सात सूची को बढ़ाकर 21 कर दिया गया है, जिसमें प्रमस्तिष्क पक्षाघात (Cerebral palsy), बौनापन, मांसपेशीय दुर्विकास (Muscular dystrophy), एसिड अटैक पीड़ित, ऊंचा सुनना, भाषण और भाषा भाषण और भाषा विकलांगता, विशिष्ट सीखने की अक्षमता, स्वलीनता स्पेक्ट्रम विकार और तंत्रिका सम्बन्धी जीर्ण विकार शामिल हैं।

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम, 2016 में यह प्रावधान है कि "उपयुक्त सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि विकलांग व्यक्ति समानता, गरिमा के साथ जीने, और दूसरों के साथ समान रूप से उसकी अपनी निष्ठा के प्रति सम्मान पाने के अधिकार का इस्तेमाल करे।" इस क़ानून के अंतर्गत विकलांगों के लिए सरकारी और निजी संस्थानों तक उनकी सुलभ पहुंच और बाधा रहित वातावरण के निर्माण का अनिवार्य प्रावधान किया गया है, लेकिन विकलांगों ने अक्सर सरकारी अधिकारियों से लेकर राज्यस्तरीय उन अधिकारियों से ख़ुद के झिड़के जाने को लेकर शिकायत की है, जिन्हें विकलांगों के अधिकारों की रक्षा के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले भी ज़ोर देकर कहा था कि शारीरिक रूप से अक्षम नागरिकों की सेवा राज्य की ज़िम्मेदारी है। बहरहाल, सरकारी अधिकारियों के हाथों शारीरिक रूप से विकलांगों के पीड़ित होने की बात लगातार सामने आती रही है।

विकलांगों को मासिक विकलांगता पेंशन, व्हीलचेयर सुविधा, शिक्षण संस्थानों, सरकारी भवनों, बस स्टॉपेज, बैंक आदि में ऊपर चढ़ने के लिए विशेष सुविधाओं, सार्वजनिक स्थानों पर विशेष शौचालय, शिक्षकों की भर्ती और बैंक से विशेष ब्याज़ दरों पर कर्ज़ लेने आदि जैसे उनके बुनियादी अधिकारों से वंचित करते हुए उन्हें तंग करने की कोशिश की जाती रही है।

दिलीप राम (40) राज्य की राजधानी स्थित मुख्य चुनाव अधिकारी के कार्यालय से बमुश्किल 200 मीटर की दूरी पर एक सड़क के किनारे जूते बनाने का काम करते हैं। तीन साल पहले एक दुर्घटना में लगी चोट से उनका बायां पैर क्षतिग्रस्त हो गया था, जिससे उनकी रोज़ी-रोटी पर संकट आन पड़ा था। महज़ 5,000 रुपये की मासिक आमदनी के साथ उनका जीवन अपने परिवार के साथ चल रहा है। बेगूसराय ज़िले से आने वाले दिलीप 1988 से ही पटना में रह रहे हैं, लेकिन उनकी ज़िंदगी का दुखद पहलू यह है कि उन्हें मासिक विकलांगता पेंशन, व्हीलचेयर आदि जैसी उन बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया जाता रहा है, जिन्हें सरकार की तरफ़ से मुहैया कराया जाना चाहिए था। उन्होंने बताया कि हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के दौरान जब वह मिलर हाई स्कूल में अपना वोट डालने गये, तो विकलांग मतदाताओं को लेकर सरकार और चुनाव आयोग के पर्याप्त सुविधायें सुनिश्चित करने के लंबे-चौड़े दावों के उलट उन्होंने चुनाव केन्द्र को व्हीलचेयर से ख़ाली पाया।

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़, पटना के गर्दनीबाग़ में टीईटी के उम्मीदवारों के चल रहे आंदोलन के दौरान औरंगाबाद के रहने वाले विकलांग आंदोलनकारी, छोटू सिंह (27) को बिहार पुलिस ने बुरी तरह पीट दिया था। उन्होंने कहा, “विकलांग होने की बात मैं लगातार कहता रहा, इसके बावजूद बिहार पुलिस मुझे बेरहमी से पीटती रही। चूंकि मैं स्वतंत्र रूप से कहीं आने-जाने में असमर्थ हूं, इसलिए पुलिस ने आंदोलन में मेरी मौजूदगी पर सवाल उठाया। मेरी विकलांगता सरकार की नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ विरोध दर्ज करने में मेरे आड़े नहीं आती है। यह घटना उस मानसिकता को दिखाती है, जो मुझे समावेशी शिक्षा के लाभार्थी होने से अलग-थलग करती है।”

20 जनवरी को शिक्षक गर्दनीबाग स्थल पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे और पुलिस उन पर लाठीचार्ज कर रही थी।

छोटू ने दो बार शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) पास की है, लेकिन रोज़गार के मामले में उनके हाथ ख़ाली हैं। राज्य की राजधानी में वे जितनी बार आते हैं, अपनी मां के साथ आते हैं और इसकी वजह विकलांग नागरिकों के लिए सेवाओं की कोई उपलब्धता का नहीं होना होता है। उन्हें तीन महीने के अंतराल बाद विकलांगता पेंशन के तौर पर महज़ 400 रुपये की बेहद मामूली राशि मिलती है, इतनी रक़म तो महीने में मिलनी चाहिए थी।

विजय कुमार रे

विजय कुमार रे का दर्द तो और भी बड़ा है। विकलांगता प्रमाण पत्र और पेंशन दस्तावेज़ होने के बावजूद उन्हें लाभ नहीं मिल पा रहा है। उन्होंने अनुच्छेद 14 का हवाला देते हुए अपने दस्तावेज़ दिखाये, जिनमें साफ़ तौर पर सरकारी विकलांगता के लाभ की उनकी पात्रता का उल्लेख है। 2015 में इलेक्ट्रिक केबल की मरम्मत करने के दौरान हुई एक दुर्घटना में विजय के शरीर के दाहिने हिस्से सुन्न हो गये थे।

विजय की विकलांगता पेंशन के दस्तावेज़

यह पूर्व इलेक्ट्रीशियन 2016 से ही मुज़फ़्फ़रपुर के मोतीपुर ब्लॉक कार्यालय में मारा-मारा फिर रहा है, लेकिन उन्होंने बताया कि अधिकारियों ने उनके अनुरोधों पर आज तक ग़ौर नहीं किया है। उन्होंने कहा, “मेरा परिवार गहरे आर्थिक संकट में है। ज़रूरी काग़ज़ात होने के बावजूद मुझे पेंशन का लाभ नहीं दिया जा रहा है। मेरा रोज़-रोज़ का चक्कर लगाना मेरे परिवार के लिए अभिशाप बन गया है। राज्य सरकार से हमारा अनुरोध है कि वह हमें हमारे इस संकट से उबार दे।”

मुज़फ़्फ़रपुर के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़, यहां के 16 प्रखंडों में पेंशन लाभार्थियों सहित विकलांगों की संख्या 25,015 है।

सुरेश भगत

पूर्वी चंपारण के मेहसी के साठ साल की उम्र पूरी कर चुके सुरेश भगत रोज़ी-रोटी को लेकर भीख मांगने के लिए मजबूर हैं। उनकी पत्नी इस क़स्बे में नौकरानी के तौर पर घरों में काम करती हैं और परिवार का पालन-पोषण मुश्किल से हो पाता है। उनका एक बेटा गुजरात के किसी कारखाने में काम करता है। सुरेश के मुताबिक़, उन्होंने उन बिचौलियों के चक्कर में बहुत पैसे और समय गंवाये हैं, जो उन्हें ब्लॉक कार्यालय से पेंशन प्रमाणपत्र पाने के दौरान गुमराह करते रहे। सुरेश को न तो वृद्धावस्था पेंशन मिलती है और न ही उन्हें विकलांगता पेंशन मिलती है।

50% विकलांगता वाले दरभंगा के रफ़ीक़ अंसारी भी इसी तरह की परेशानियों से दो-चार हैं। उन्होंने कहा कि 400 रुपये की विकलांगता पेंशन राशि विकलांगों के लिए बहुत ही छोटी और नाकाफ़ी रक़म है। अंसारी ने कहा, “इसके अलावा, मैं अपनी चुनौतियों से निज़ात पाने को लेकर आर्थिक समाधान के सिलसिले में सरकारी अधिकारियों को लिखते-लिखते थक गया हूं। जो लोग मुख्यधार से दूर हैं, वे किसी भी तरह की मदद पाने से भी दूर हैं।”

बिहार विकलांगता पेंशन योजना के लाभार्थी केवल वे ही हैं, जो केंद्र सरकार की इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकलांगता पेंशन योजना के अंतर्गत नहीं आते। इन दोनों ही पेंशन योजनाओं के तहत लाभार्थियों को मासिक आधार पर महज़ 400 रुपये मिलते हैं, जो दिल्ली के 2500 रुपये और तमिलनाडु के 2000 रुपये के मुक़ाबले में बहुत छोटी राशि है।

मायाजाल से मुक्ति की मांग

विकलांगों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों के पास राज्य विकलांगता आयोग के ख़िलाफ़ शिकायतों का पुलिंदा है। योग्य नामक (विकलांगों के अधिकारों के लिए काम करने वाले) एक एनजीओ के प्रमुख और पटना स्थित स्वतंत्र शोधकर्ता, हर्ष राज सरकारी नीतियों के इन लक्षित लोगों तक पहुंच को लेकर संशय जताते हैं। सरकार के दावों से विकलांग आबादी के एक बड़े हिस्सा का मोहभंग हो चुका है। उनमें से ज़्यादातर राज्य के ग्रामीण हिस्सों में रहते हैं और पेंशन से वंचित हैं या फिर शिकायत करते हैं कि उनके जीवन में इससे न के बराबर बदलाव आया है। उनकी मांग है कि राज्य सरकार को पेंशन राशि को तत्काल 400  रुपये से बढ़ाकर 2000  रुपये कर देने चाहिए। राज  का कहना है कि अन्य राज्यों के मुक़ाबले आर्थिक सहायता और विकलागों तक पहुंच के मामले में बिहार की स्थिति ख़राब है।

राज और उनके सहयोगी-हिमांशु कुमार और मणिकंठा नटराज ने सितंबर 2020 में बिहार में विकलांगों के हालात का आकलन करते हुए बिहार राज्य विकलांगता आयुक्त कार्यालय के लिए “सिचुएशन एससेसमेंट ऑफ़ पर्सन्स विद डिज़ैबिलिटीज़ इन बिहार 2018-2020:ए रिवीऊ ऑफ़ इम्पलॉयमेंट, पोवर्टी एण्ड वेलफ़ेयर पॉलिसी” नामक एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी।

स्वतंत्र कार्यकर्ता हर्ष राज

हाल के राज्य विधानसभा चुनावों के दौरान ख़ुद अपने दोनों पैरों से विकलांग, राज ने बिहार के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को पत्र लिखकर पटना ज़िले और आसपास के क्षेत्रों के मतदान केंद्रों पर व्हीलचेयर की कमी की सूचना दी थी। यहां तक कि सीईओ के कार्यालय में भी विकलांगों के लिए ट्राइसाइकिल नहीं होने की बात कही गयी।

विकलांगों के लिए गया स्थिति एक ग़ैर सरकारी संगठन-मगध जन विकास कल्याण समिति ने 24 दिसंबर, 2020 को शेरघाटी प्रखंड में सरकार की नीतियों के पूरी तरह ज़मीन पर नहीं उतर पाने के विरोध में प्रदर्शन किया था। विकलांगों ने मांगों की एक सूची रखी, जिनमें आंगनवाड़ी में योजना कार्यकर्ता के तौर पर विकलांग महिलाओं की भर्ती, भूमिहीन और सीमांत विकलांगों के लिए ज़मीन और घर दिये जाने की मांग शामिल थी। इस संगठन के एक सदस्य-सत्येंद्र कुमार ने विकलांग नागरिकों के लिए राज्य विकलांगता आयोग में विकलांगों को शामिल करने की मांग की।

राज्य भर के विकलांग सरकार की उस दिखावटी या ज़ुबानी दावे से असंतुष्ट, निराश और हताश हैं, जो पेंशन राशि की मामूली रक़म में दिखायी देता है, यह रक़म भी नियमित अंतराल पर नहीं मिलती है, विभिन्न दफ़्तरों में तिपहिया वाहन की कमी है और ऊपर चढ़ने की सुविधायें भी नदारद हैं।

जब न्यूज़क्लिक राज्य आयुक्त (विकलांग) के पास कम पेंशन राशि और अन्य मुद्दों पर प्रतिक्रिया लेनी चाही, तो शिवाजी कुमार ने आधिकारिक काम में व्यस्त होने की बात करते हुए अपनी टिप्पणी नहीं दी।

राज्य स्तरीय समाज कल्याण विभाग (SWD) के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर साफ़ तौर पर राज्य भर के विकलांगों तक इन नीतियों की पहुंच पर ऊंगली उठाते हुए कहा, “कई लोगों को इस पेंशन योजना के बारे में मालूम तक नहीं है, जबकि जिन्हें पेंशन मिलती है, वे इसे रज़ी-रोटी के लिहाज़ से नाकाफ़ी पाते हैं। मधुबनी बलात्कार की घटना के मामले में पीड़ित विकलांग नाबालिग़ को आंखों के समुचित इलाज के लिए लम्बा इंतज़ार करना पड़ा और जांच अधिकारियों को भी इस सिलसिले में बेहद सुस्त रफ़्तार से काम करते हुए पाया गया।”

सरकारी इमारतों में विकलांग नागरिकों के लिए सुविधाओं को लेकर किया जाने वाला लम्बा-चौड़ा दावा अभी तक ज़मीन पर पूरी तरह नहीं उतर पाया है, जबकि 2017 में उप मुख्यमंत्री, सुशील मोदी की तरफ़ से जो ऐलान किया गया था, उसके मुताबिक़, सभी सरकारी स्कूलों में विकलांग छात्रों के लिए ऊपर चढ़ने की सुविधायें मुहैया करायी जानी थी और राज्य सरकार के 28 इमारतों में 26 करोड़ रुपये की लागत से एलिवेटर और लिफ्ट लग जाने चाहिए थे। लेकिन, बिहार में विकलांगता-समावेशी जगहों की ज़मीनी हक़ीक़त सरकारी दावों के उलट है।

उप-मुख्यमंत्री का यह कहना था कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ बिहार में विकलांगों की आबादी 23.5 लाख थी, जिनमें से 14 लाख विकलांगों के पास विकलांगता प्रमाण पत्र थे और बाक़ी के 7 लाख को भी ये प्रमाणपत्र दिये जाने हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bihar: Persons with Disabilities Claim Govt Policies Insufficient, Pension Meagre and Irregular

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