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बजट 2020 : कोई भी एक बजट अब डूबती अर्थव्यवस्था को नहीं बचा सकता!

अगर बहुत ही लच्छेदार भाषा में सरकार द्वारा ऐसा बजट प्रस्तुत करने की घोषणा की जाए जो भारतीय अर्थव्यस्था को एक साल के भीतर पटरी पर ला सकती है तो समझ जाइएगा कि सरकार आँखों में धूल झोंक रही है और बर्बाद होती अर्थव्यवस्था के प्रति लापरवाही बरत रही है।
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चुनावी हार-जीत के मायने केवल पांच साल के लिए होते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था पांच साल के लिए नहीं बनती है। इसका समय लम्बा होता है। लम्बे दौर का सोचकर उठाई गयी सावधानी भरी नीतियों और फैसलों से अर्थव्यवस्था संतुलित रह पाती है। ठीक इसके उलट भी होता है। यानी जब अर्थव्यवस्था की बुनियाद दरकती है तो वह लम्बे दौर तक बनी रहती है। उसे एक या दो बजटों से ठीक नहीं किया जा सकता है।

उसके लिए लम्बा सोचना पड़ता है। क्या सोचना पड़ता है और कैसे सोचना पड़ता है? इसके बारे में तो आपको आर्थिक जानकार बताएंगे लेकिन बजट प्रस्तुत होने से पहले हम आपके सामने वह तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं, जो मौजूदा समय में भारतीय अर्थव्यवस्था की हकीकत बयां करती है। और यह भी बताएंगे कि अगर बजट में हवा- हवाई बातें की गयी और चुनावी जीत को दिमाग में रखकर घोषणाएं की गयी तो अर्थव्यवस्था की हालत बद से बदतर ही होगी। सुधरेगी नहीं।

-सबसे पहले बात करते हैं भारत में वित्त वर्ष 2019-2020 में हो रहे वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में बढ़ोतरी पर। आर्थिक शब्दावाली में कहा जाए तो बात सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी विकास दर की। भारत की अर्थव्यवस्था को मापने का यह प्रचलित तरीका बताता है कि भारत की जीडीपी विकास दर पिछले 42 साल में सबसे कम है। तकरीबन 4.5 फीसदी। जीडीपी का यह आकलन महंगाई को शामिल करके किया जाता है। इसी आधार पर पिछले बजट में 5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था का जुमला उछाला गया था। और जिस तरह से भारत की अर्थव्यवस्था बदतर हालत में बढ़ रही है, उसे 5 ट्रिलियन तक ले जाना आने वाले दस बीस सालों के लिए तो ख़्वाबी पुलाव ही लगता है।

-साल 1991 के आर्थिक सुधारों के पहले भारत की जीडीपी विकास दर 3.85 फीसदी थी। इसके बाद अर्थव्यवस्था की पूरी स्थिति भले सुधरी हो या न सुधरी हो लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि जीडीपी विकास दर के अंकों में सुधार हुआ है। साल 2004 से साल 2011 तक जीडीपी विकास दर में साल 2004 के विकास दर के हिसाब से औसतन तकरीबन 8 फीसदी के दर से बढ़ोतरी हुई। साल 2011 और 2013 के बीच में इसमें अचनाक से कमी आनी शुरू हुई। इसके बाद साल 2014 में भाजपा की सरकार आयी।

इस सरकार ने आते ही तिकड़म भिड़ाया, जीडीपी मापने का आधार वर्ष बदल दिया। यह आधार वर्ष साल 2011-12 कर दिया। जब जीडीपी की दर कम थी। इस तरह से 2015- 16 में विकास दर 8 फीसदी तक दिखी। लेकिन यह सच्चाई नहीं थी। बल्कि आंकड़ेबाजी थी। इसके बाद से साल 2015 से जीडीपी दर में लगातार गिरावट होती रही। यह गिरवाट अब 4.5 फीसदी तक पहुंच गयी है। जानकारों का कहना है कि यह इससे भी कम हो सकती है।

- अब सवाल उठता है कि साल 2011 के बाद ऐसा क्या हुआ कि जीडीपी विकास दर की गति बरकरार नहीं रही। बल्कि यह कहा जाए कि साल 2014 में भाजपा सरकार आने के बाद अर्थव्यवस्था की हालात कैसे बुरी हुई ? जानकारों का कहना है कि मैक्रोइकॉनिमिक स्तर यानी वृहद स्तर पर अर्थव्यवस्था के हालात को मोटे तौर पर पांच संकेतक बताते है।

1. उपभोग यानी लोगों द्वारा किया जाने वाला खर्चा

2. निवेश यानी लोगों द्वारा व्यवसाय में लगाया जाने वाला पैसा

3. लोगों की बचत

4. देश का निर्यात

5. नेट फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट यानी देश में आने वाला पैसा

इन सभी संकेतकों से देश की तस्वीर उभर कर सामने आती है।

- एनएसएसओ के ताजे आंकड़ें बताते हैं कि इस वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में निवेश की सालाना वृद्धि दर 15 साल के न्यूनतम स्तर (0.97 फीसद) पर आ गई, जो 2004-08 के बीच में 18 फीसद और 2008-18 के बीच 5.5 फीसद की दर से बढ़ रहा थी। कुल जीडीपी में पूंजी निवेश 1960 के बाद से लगातार बढ़ता रहा है। 2008 में 38 फीसद था 2018 में 33 फीसद हो गया और अब यह केवल 29 फीसद पर है। इसमें सबसे बड़ी वजह है परिवारों और सरकारों की तरफ से होने वाला निवेश। इनकी ओर से होने वाले निवेश में कमी आई है।

इस चक्र को ऐसे भी समझिये कि अगर सरकारों की तरफ से निवेश नहीं होगा तो परिवारों का खर्चा बढ़ेगा। उनकी बचत कम होगी और वे निवेश कम करेंगे। लेकिन निवेश के संदर्भ में यह समझना होगा कि कॉर्पोरेट सेक्टर से होने वाले निवेश में कमी नहीं आयी है। उनके साथ परेशानी यह है कि उनके द्वारा उत्पादित माल और सेवाओं की बिक्री नहीं हो रही है। इसलिए कॉर्पोरेट टैक्स को 30 फीसदी से 22 फीसदी कम करने के बाद भी हालत जस के तस है।

इसे ऐसे समझिये कि अगर मालिक के पास पहले से ही रखा हुआ माल नहीं बिक रहा है तो वह अपने काम में टैक्स छूट मिलने के बाद पहले से ज्यादा इन्वेस्ट क्यों करेगा ?

- अब अगर निवेश में कमी है तो ऐसा माहौल भी नहीं पनपेगा कि रोजगार का स्तर बढ़े। पहले से मौजूद रोजगारों को भी छीना जाएगा और बढ़ती हुई बेरोजारी और भी बढ़ेगी। इसलिए बेरोजगरी की दर बढ़ी है। और इतना बढ़ी है कि पिछले 45 सालों में सबसे अधिक हो गई है। और यह स्थिति एक दो बजट में सुधर जाए ऐसा नामुमिकन लगता है।

- भारत में बचत घटने की दर आय में गिरावट से भी तेज है। आय और बचत में गिरावट 2012 से एक साथ शुरू हुई थी लेकिन बाद में बचत ज्यादा तेजी से गिरी है। कुल जीडीपी में बचत जो 2006 से 2010 के बीच 23.6 फीसद थी, अब 17.9 फीसद रह गई। वित्तीय बचत और ज्यादा तेजी से घटी हैं। अगर बचत घटी है तो निवेश भी घटेगा। लेकिन यहां समझने वाली बात है कि कॉर्पोरेट सेक्टर की बचत दर में कोई कमी नहीं आयी है। यानी कॉर्पोरेट सेक्टर के लोगों ने अपनी बचत से कोई समझौता नहीं किया है। इसका मतलब है कि जब भी कॉर्पोरेट सेक्टर को अपनी बचत में कमी महसूस की होगी तो लोगों की छंटनी होगी।

- एनएसएसओ के मुताबिक भारत में प्रति व्यक्ति आय जिस तरह से बढ़ रही है, वह नौ सालों में सबसे कम है। इसका मतलब है कि गरीबी बढ़ रही है। नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 22 राज्यों में 2018 के बाद से गरीबी बढ़ी है। 24 राज्यों में भुखमरी बढ़ी है।

- संरक्षणवाद के नाम पर इम्पोर्ट ड्यूटी खूब बढ़ाई गयी है। इस वजह से साल 2014 से निर्यात की दर गिरती गयी। साल 2014 में निर्यात की दर 24.54 फीसदी थी।  तब से गिरते-गिरते हाल-फिलाहल निर्यात दर कुल जीडीपी के 19.74 फीसदी हो गयी है। इस समय में विश्व के कई देशों में निर्यात में गिरवाट आयी लेकिन भारत में सबसे ज़्यादा गिरवाट आयी।

-कैग यानी कंट्रोलर जनरल ऑफ अकाउंट (सीएजी) के आंकड़ें बताते हैं कि 30 सितम्बर तक का कर राजस्व पिछले पांच साल में सबसे कम है। सरकार ने कर के तौर पर साढ़े सोलह लाख वसूलने का लक्ष्य रखा था लेकिन अब तक केवल तकरीबन छह लाख करोड़ ही वसूल हुए हैं। इसका मतलब है कि सरकार का घाटा बढ़ा है और राजकोषीय घाटे का निर्धारित लक्ष्य पूरा नहीं होगा।


- अर्थशास्त्री शंकर अय्यर अपने रिसर्च में लिखते हैं कि 2010 के बाद से केंद्र और राज्यों की उधारी 6.2 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 12.5 लाख करोड़ रुपये हो गई है, यानी 1,708 करोड़ रुपये से बढ़कर 3,447 करोड़ रुपये प्रतिदिन, जो प्रति घंटे 143 करोड़ रुपये से ज्यादा बैठती है।पिछले हफ्ते दावोस में अरबपतियों के जमावड़े को ऑक्सफेम इंटरनेशनल ने बताया कि दुनिया के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के पास 6.9 अरब लोगों की संपत्ति के दोगुने से ज्यादा धन था और 2018 में भारतीय अरबपतियों की संपत्ति सरकारी खर्च से अधिक थी। इसलिए असमानता की हकीकत से इंकार नहीं है। ऑक्सफेम के मुताबिक, भारतीय अरबपतियों के पास 2018 के भारत के बजट से ज्यादा संपत्ति थी।

यह सारे आंकड़े बताते हैं कि ऐसा कोई बजट नहीं होगा जो बर्बाद होती अर्थव्यवस्था को एक साल के भीतर बचा ले। अगर बहुत ही लच्छेदार भाषा में सरकार द्वारा ऐसा बजट प्रस्तुत करने की घोषणा की जाए जो भारतीय अर्थव्यस्था को एक साल के भीतर पटरी पर ला सकती है तो असलियत यही होगा कि सरकार आँखों में धूल झोंक रही है और बर्बाद होती अर्थव्यवस्था के प्रति लापरवाही बरत रही है।

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