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G 20 शिखर सम्मेलन: ‘सफलता’ में ही छिपा है इसका अवसान

भारत की दृष्टि से देखें तो जी20 से निकला एकमात्र ठोस ऐलान जी20 के बजाय इसकी साइडलाइन पर ही हुआ और ये भी जी20 में सहयोग के बजाय उसमें विखंडन का संकेत दे रहा है।
G20

दुनिया के प्रमुख पूंजीवादी देशों के शासकों का जी20 शिखर सम्मेलन दिल्ली की गरीब मेहनतकश जनता को परदों के पीछे घेर और पुलिस के डंडों से उनकी आवाजाही व रोजीरोटी कमाने तक की आजादी को छीनकर ‘बेहद सफलतापूर्वक’ आयोजित किया गया। इससे भारत दुनिया की प्रमुख शक्तियों में शामिल हो गया है, ऐसा भारत सरकार और मीडिया के बड़े हिस्से का दावा है। और यह भी कि इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की प्रशंसनीय कूटनीति की भारी कामयाबी प्रदर्शित करते हुए ये सभी शासक 'मानवता केंद्रित टिकाऊ विकास' में परस्पर दृढ़ वैश्विक सहयोग के लिए सहमत हुए!

किंतु जिस बात पर इस सम्मेलन की कामयाबी का वास्तविक सेहरा बांधा जा रहा है, वह है इसमें जारी संयुक्त घोषणापत्र। इस शिखर सम्मेलन में जुटे देशों में अमरीकी प्रभुत्व वाली एकध्रुवीय दुनिया से टूटकर बने दो विरोधी खेमे शामिल थे। ये देश सीरिया के बाद अब डेढ़ साल से अधिक से यूक्रेन में युद्धरत हैं। पश्चिम अफ्रीका के विभिन्न पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेश रहे देशों में भी फौजी तख्ता पलट के जरिए इनके बीच घोर रस्साकशी जारी है।

ताइवान को लेकर इनके बीच तीव्र हो रहे तनाव से भी युद्ध के बादल घिर रहे हैं। और, चीन को चिप (सेमीकंडक्टर) उत्पादन में आगे बढ़ने से रोकने हेतु अमरीकी खेमे द्वारा छेड़े गए आर्थिक युद्ध के भी असल सैन्य युद्ध में बदल जाने का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे दो विरोधी खेमे और इन दोनों के बीच युद्ध व तनाव में अपने लाभ के मौके ढूंढ रहे कुछ और देशों के इस शिखर सम्मेलन में किस बात पर सहमति बन सकती थी जबकि परमाणु युद्ध सहित अंत तक लड़कर दूसरे को ध्वस्त करने की धमकियां दी जा रही हों?

अतः इस बात में बेहद शक था कि कोई संयुक्त घोषणापत्र जारी होगा। किंतु उससे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और सम्मेलन की कामयाबी के दावों के प्रचार से हासिल होने वाले संभावित घरेलू राजनीतिक लाभ पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाता, जिसके लिए अगले आम चुनावों के ठीक पहले जी20 की अध्यक्षता की बारी लेकर और 10 महीने की तैयारी व भारी खर्च कर यह सम्मेलन आयोजित किया गया था। अतः किसी तरह एक घोषणापत्र जारी कराना ही मुख्य लक्ष्य बन गया और सम्मेलन के अंत में नहीं बल्कि शुरू में ही एक घोषणापत्र पर सहमति का ऐलान कर वाहवाही लूट ली गई।

कमाल की बात है कि लाखों की हत्याओं वाले महाविनाशकारी युद्धों में रत व इससे भी भयानक युद्धों की तैयारी में जुटे सभी पूंजीवादी देश 'यह युद्ध का समय नहीं है' की बात पर पूरी तरह सहमत हो गए! संयुक्त घोषणापत्र में इस बात पर भी सहमति घोषित हुई कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर अनुसार सभी देशों की एकता अखंडता का पूरा सम्मान किया जाए! जो देश दुनिया भर के देशों में सैनिक हस्तक्षेप करते रहे हैं, विभिन्न देशों को हथियार बेच तनाव व युद्ध का माहौल बनाने में अगुआ हैं, जिनकी फौजें आज भी दर्जनों देशों में मौजूद हैं, जिन्होंने कई देशों के टुकड़े किए हैं या जिनसे अपनी एकता अखंडता की हिफाजत के लिए कुछ देशों को भारी कीमत चुकानी पड़ी है, वे भी उपरोक्त बात पर पूर्ण सहमत हुए।

साफ है कि इस कागजी सहमति से प्राप्त कामयाबी का कोई वास्तविक अर्थ ही नहीं है। सम्मेलन से निकलते निकलते ही कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों या प्रतिनिधियों ने अपने बयानों में इस बात की पुष्टि कर दी कि इस 'सहमति' के अर्थ पर ही सब पूर्ण असहमत हैं। अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन, जो सम्मेलन पूरा होने के पहले ही दिल्ली से रवाना हो गए, ने वियतनाम जाकर प्रेस कॉन्फ्रेंस में और उनके विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन ने अमरीकी मीडिया के सवालों का सामना करते हुए घोषणापत्र को अपनी सफलता बताते हुए इसे रूस के खिलाफ सशक्त बयान तथा यूक्रेन की अखंडता का समर्थन बताया। फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने भी सफाई देते हुए दिल्ली में ही कह डाला कि जी20 यूक्रेन युद्ध पर कूटनीतिक वार्ता का कोई मंच था ही नहीं, और “मुझे नहीं लगता कि यह रूस के अलगाव के अतिरिक्त कोई बड़ी कूटनीतिक जीत या कुछ और है।”

उधर रूसी विदेश मंत्री सेर्गेई लाव्रोव ने कहा कि पश्चिमी देश जी20 सम्मेलन का यूक्रेनीकरण करने में नाकाम रहे तथा ग्लोबल साउथ यूक्रेन पर उनके लेक्चर सुनने के लिए राजी नहीं है। जापानी प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा ने इस घोषणापत्र का बचाव तो किया मगर सर्वाधिक ईमानदारी के साथ यह स्वीकार किया कि यूक्रेन युद्ध ने ‘जी20 में सहयोग की पूरी बुनियाद ही हिला डाली है’।

साफ है कि इस सम्मेलन में वैश्विक तनाव व जंग के बढ़ते खतरे में उलझे दोनों खेमों और इनके बीच तनाव में दोनों ओर से व्यापारिक लाभ के मौके ढूंढने में जुटे एक तीसरे समूह के शासकों में परस्पर सहमति का कोई वास्तविक बिंदु था ही नहीं। हालांकि औपचारिक रूप से ये सभी ‘धार्मिक घृणा के मामलों की निंदा और इन्हें समाप्त करने’ पर सहमत थे। पर वास्तविकता में इनके बीच ऐसा तीक्ष्ण द्वंद्व था कि दो प्रमुख राष्ट्रों चीन व रूस के राष्ट्राध्यक्ष इसमें शामिल ही नहीं हुए और जो शामिल हुए वो एक सामूहिक फोटो हेतु भी एक साथ मित्रतापूर्वक दिखते खड़े होने को तैयार नहीं थे। कोई ग्रुप फोटो जारी न होने की बदनामी से बचने के लिए मेजबान को महात्मा गांधी की समाधि राजघाट पर सम्मान जताने का सहारा लेना मजबूरी बन गया, हालांकि गांधी के अहिंसावादी विचारों के लिए खुद नरेंद्र मोदी और युद्धरत व हथियार सौदागर देशों के इन नेताओं के मन में कितना सम्मान है यह सभी जानते हैं। पर ऐतिहासिक सच्चाई है कि महात्मा गांधी ने भारतीय पूंजीवाद की कठिन परिस्थितियों में महती सेवा की है और आज भी कर रहे हैं, हालांकि मौजूदा शासक समूह का उनके प्रति घनघोर विरोध जगजाहिर है।

भारत की दृष्टि से देखें तो जी20 से निकला एकमात्र ठोस ऐलान जी20 के बजाय इसकी साइडलाइन पर ही हुआ और ये भी जी20 में सहयोग के बजाय उसमें विखंडन का संकेत दे रहा है। भारत से पश्चिम एशिया में यूएई, जॉर्डन, इजरायल के जरिए भूमध्य सागर तट पर ग्रीस होते हुए यूरोप तक का इंडिया मिडल ईस्ट यूरोप इकॉनामिक कॉरीडोर या आईएमईसी भारत-रूस-ईरान द्वारा लगभग दो दशक से ‘विकसित’ किए जा रहे मगर अभी भी अधूरे अरब सागर तट पर चाबहार (ईरान) से मध्य एशिया होते हुए रूस तक के नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर का ही प्रतिद्वंद्वी है। ईरान पहले ही चाबहार बंदरगाह के विकास में भारत द्वारा धीमी गति की शिकायत जताते हुए इस समझौते को रद्द कर इसे चीन को सौंपने तक के संकेत दे चुका है, जो पहले ही इससे कुछ ही किलोमीटर दूर पाकिस्तान सीमा में ग्वादर से चीन तक चाइना पाकिस्तान इकॉनामिक कॉरिडोर को तेजी से विकसित कर रहा है।

ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि अपने ही पहले से बहुप्रतिष्ठित एवं जिओपोलिटिक्स की दृष्टि से अत्यंत अहम बताए जा रहे प्रोजेक्ट पर जोखिम खड़ा करने के पीछे क्या तर्क हो सकता है? यह समझने के लिए हमें अडाणी समूह के इंफ्रास्ट्रक्चर पूंजी निवेशों पर एक नजर डालनी जरूरी है, जिसे इससे भारी लाभ की संभावना है। यह कॉरिडोर भारत के पश्चिमी अरब सागर तट पर शुरू होगा जहाँ अडाणी के मुंदडा और विजिंझम बंदरगाह हैं। अरब देशों में रेल लाइन से यह कॉरिडोर पहुंचेगा इजरायल में हैफा बंदरगाह जो पिछले साल ही अडाणी के नियंत्रण में आ चुका है। हैफा से भूमध्य सागर पार यह पहुंचेगा ग्रीस। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी 25 अगस्त को ही ग्रीस की यात्रा पर गए थे और यूनानी मीडिया की रिपोर्ट है कि ग्रीस के कवाला, वोलोस या अलेक्जांड्रोपोली बंदरगाहों में से किसी एक या दो में गौतम अडाणी की कंपनी के संभावित पूंजी निवेश पर चर्चा इस यात्रा का एक प्रमुख विषय था।

इस प्रकार देखें तो जिन घोषणाओं को जी20 के बीच सहयोग व विश्व के मानव केंद्रित विकास हेतु सम्मेलन की भारी सफलता बताया जा रहा है, वह असल में अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व वाले एकध्रुवीय वर्ल्ड ऑर्डर का दाहसंस्कार ही अधिक था, जो नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कई हजार करोड़ रुपये के खर्च व शाकाहारी भोज के साथ संपन्न हुआ।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

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