बजट 2020-21 : जल्दबाज़ी के उपायों से ख़तरे में पड़ी अर्थव्यवस्था
इन दिनों बजट के आंकड़े ज़्यादा मायने नहीं रखते। बजट में जो प्रावधान किए जाते हैं और हक़ीक़त में जो मिलता है, दो साल बाद भी उसमें काफ़ी अंतर होता है। पहले बजट के प्रावधान लागू करने के लिए दो साल की तय सीमा होती थी। चूंकि सरकार इन चीज़ों को जानती है, इसलिए बजट में जानबूझकर आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताए जाते हैं, जो देखने में काफ़ी ख़ूबसूरत लगते हैं। 2020-21 के बजट में भी ऐसे ही आंकड़े दिखाए गए। लेकिन इसके बावजूद सरकार के बाहर शायद ही किसी ने बजट की तारीफ़ की हो। अपने लंबे-चौड़े आंकड़ों के बावजूद बजट सुंदर नहीं दिखता। इससे शक होता है कि जितना सरकार कबूल कर रही है, आर्थिक स्थिति उससे कहीं ज़्यादा भयावह है।
ज़्यादातर लोगों का मानना है कि अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी समस्या इस वक़्त ''मांग (Demand) का कम'' होना है। इसलिए बजट से आशा लगाई जा रही थी कि इसमें मांग बढ़ाने के लिए कुछ प्रावधान किए जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। सरकार का कुल ख़र्च इस बजट में 11 फ़ीसदी बढ़ा है। लेकिन 2019-20 के लिए ''नॉमिनल ग्रौस डोमेस्टिक प्रोडक्ट(जीडीपी)'' क़रीब 10 फ़ीसदी बढ़ जाएगा। मतलब संसाधनों के अनुपात में ख़र्च में कोई इज़ाफा नहीं किया गया।
यहाँ तक कि ख़र्च के इस लक्ष्य को भी पूरा करना नामुमकिन दिखाई देता है। 2019-20 में सरकार के संशोधित कर राजस्व में 14.5 फ़ीसदी की बढ़ोतरी को देखा जाना अभी बाक़ी है। बता दें पिछले बजट में कर राजस्व के लिए जो लक्ष्य तय किया गया था, उसे बाद में संशोधन से कम कर दिया गया था। पिछले दो साल में नॉमिनल जीडीपी की विकास दर 7.5 फ़ीसदी रही है, इसे देखते हुए 2020-21 के ख़र्च के लक्ष्य को पाना नामुमकिन दिखाई देता है।
अगर कर राजस्व में गिरावट आएगी, तो निश्चित ख़र्च में कटौती की जाएगी। इसी तरह 2019-20 में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश के लक्ष्य को भी पूरा नहीं किया जा सका। जबकि विनिवेश का पूरा विचार ही मूर्खतापूर्ण और ख़तरनाक है। अगर 2020-21 में भी विनिवेश के लक्ष्य को नहीं पाया जा सका, तो ख़र्च के लक्ष्य को पाना और भी मुश्किल हो जाएगा। संक्षिप्त में कहा जाए तो यह बजट अर्थव्यवस्था को गति देने में पूरी तरह ना-कामयाब रहा है।
ऊपर से जिन क्षेत्रों में ख़र्च का निवेश बढ़ाकर कई गुना ज़्यादा फ़ायदा लिया जा सकता था, उनमें सरकार ने कटौती करते हुए बेहद कम पूंजी का आवंटन किया है। कृषि, ग्रामीण विकास, महिला और बाल विकास के क्षेत्रों में ऐसा ही हुआ।
यहाँ दो क्षेत्रों का ज़िक्र करना ज़रूरी है। इन क्षेत्रों में पूंजी की कटौती करना बेहद चिंताजनक है। पहला क्षेत्र है, महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोज़गार योजना यानी मनरेगा का। 2018-19 में इस योजना के लिए 61,815 करोड़ रुपये और 2019-20 में 71,002 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था, जिसमें मज़दूरों का बक़ाया (एरियर) भी शामिल था। आज ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार की स्थिति बेहद ख़राब है। इससे मनरेगा के तहत काम और पुराने बक़ाये को चुकाने की मांग बढ़ना स्वाभाविक है। इस हिसाब से बजट में इस योजना के लिए क़रीब एक लाख करोड़ रुपये का प्रावधान किया जाना था। सरकार ने उल्टे इस बार बजट में योजना की पूंजी को घटाकर 61,500 करोड़ रुपये कर दिया। आशंका जताई जा रही है कि इतनी कम पूंजी देकर और जान बूझकर पुराने बक़ाये को बरक़रार रखकर, मोदी सरकार इस योजना को बंद करने की रणनीति बना रही है।
''खाद्यान्न सब्सिडी (फ़ूड सब्सिडी)'' के मामले में भी ऐसा ही शक जताया जा रहा है। 2019-20 में इस क्षेत्र के लिए 1,84,688 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। लेकिन इस बार बजट में इस मद को घटाकर 1,08,688 करोड़ रुपये कर दिया गया। भारत में इस सब्सिडी का इस्तेमाल FCI अपने खाते के संतुलन के लिए करता है। अभी संगठन पर खाद्यान्न स्टॉक का ज़्यादा भार है, इसलिए इस सब्सिडी की रकम को बढ़ाए जाने की ज़रूरत थी, लेकिन इसे 40 फ़ीसदी घटा दिया गया।
ज़ाहिर है इसकी एक वजह है। सरकार अब FCI को बैंकों से लोन लेकर फसल ख़रीदने के लिए मजबूर कर रही है। मतलब इसके ज़रिये सरकार अप्रत्यक्ष तरीक़े से, बिना बाज़ार में जाए बैंकों से क़र्ज़ ले रही है। इस प्रक्रिया के ज़रिये राजस्व घाटे को कम करके दिखाया जा रहा है। लेकिन इन जल्दबाज़ी के समाधानों से लंबे वक़्त में बहुत नुकसान होगा।
इसकी दो वजहें हैं। पहली, इस तरह के क़र्ज़ से FCI पर एरियर का भार बढ़ेगा और वो बैंकों से लोन लेने के लिए मजबूर होगी। इससे संगठन पर तनाव बढ़ेगा। दूसरा कारण है कि बाज़ार जिस दर पर सरकार को क़र्ज़ देता है, उससे कहीं ज़्यादा ऊंची दर पर बैंक FCI को क़र्ज़ देंगे। इससे पूरा सार्वजनिक वित्त ढांचा तनाव में आ जाएगा। आशंका जताई जा रही है कि एक ऐसा वक़्त आएगा जब सरकार कहेगी कि FCI को चलाना बेहद महंगा है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बंद कर देगी।
जैसा इन दोनों उदाहरणों से पता चलता है, मोदी सरकार का जनकल्याण से कोई लेना-देना नहीं है। यह केवल तुरत-फुरत के समाधानों में यक़ीन रखती है और भविष्य के बारे में कोई चिंता नहीं करती। अर्थव्यवस्था को सुचारू तरीक़े से चलाने के लिए अच्छा आधार बनाने में इसकी कोई रुचि नहीं है।
एलआईसी इस वक्त दुनिया की किसी भी निजी कंपनी से बेहतर काम कर रही है। लेकिन सरकार इसमें भी अपनी हिस्सेदारी बेच रही है। यह बिना सोचे-समझे हड़बड़ी में क़दम उठाने की ख़तरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है।
ठीक इसी वक़्त किसी को इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए कि बजट और आर्थिक नीतियों के प्रावधान आज नव-उदारवादी व्यवस्था में छुपे हैं। मोदी सरकार अर्थशास्त्र पर बेहद लापरवाह है। दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय वित्तपूंजी जिस तरह से नव उदारवादी तनावों को छिपाती है, वैसा करने का मोदी सरकार में साहस भी नहीं है। हालांकि राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए ''FCI के बैंकों से क़र्ज़'' संबंधी छुपी हुई चालें सरकार चलती है। लेकिन यह तनाव आज वास्तविक हैं।
अर्थव्यवस्था में मांग को बढ़ाने का सबसे बेहतर तरीक़ा सार्वजनिक ख़र्च को बढ़ाना है। इसके लिए जो संसाधन इकट्ठे किए जाएंगे, वो आम लोगों से नहीं, बल्कि पूंजीपतियों और अमीरों से लिए जाने चाहिए। क्योंकि यह लोग अपनी पूरी पूंजी ख़र्च नहीं करते, बल्कि इसे सहेजकर रखते हैं। यह सहेजकर रखी जाने वाली पूंजी मांग का हिस्सा नहीं बनती। लेकिन अमीरों और पूंजीपतियों पर कर लगाने के लिए आपको अंतरराष्ट्रीय नियमों और घरेलू कॉर्पोरेट दबदबे के ख़िलाफ़ खड़ा होना पड़ता है। मोदी सरकार में इतना दम ही नहीं है, ऊपर से ये लोग केंद्रीय समस्या को भी नहीं समझते। कुछ समय पहले सरकार ने कॉर्पोरेट कर में छूट दी। इससे अर्थव्यवस्था में मांग का संकट और गहरा हुआ है। जैसे, मानकर चलिए कि सरकार ने कॉरपोरेट को 100 रुपये की छूट दी। इसमें से इन लोगों ने 50 रुपये बचा लिए और 50 रुपये ख़र्च कर दिए। इसका सीधा मतलब हुआ कि अर्थव्यवस्था की कुल मांग में 50 रुपये की कमी हो गई।
सरकार ने हालिया बजट में चालीस हज़ार करोड़ रुपये की कर छूट दी। वहीं डिविडेंड टैक्स कंसेशन के नाम पर 25 हज़ार करोड़ रुपये की छूट मिली। मतलब सरकार ने अपने ख़र्च में मांग में 65,000 करोड़ रुपये की कमी कर ली। क्योंकि जिन लोगों को इस छूट का फ़ायदा पहुँचेगा, वो पूरा पैसा अर्थव्यवस्था में ख़र्च नहीं करेंगे। मतलब मांग और कम हो गई।
यह ज़रूरतमंदों को कर रियायत नहीं है। अगर कर रियायत देनी भी थी, तो इसे इस तरीक़े से देना था कि अर्थव्यवस्था में इससे मांग में कमी नहीं आती और संकट गहरा नहीं होता। इस रियायत को राजकोषीय घाटे से प्रायोजित करवाना चाहिए था। या संपदा पर कर लगाकर, जो समतावादी नज़रिये से भी बेहतर होता।
ज़्यादातर लोग मानेंगे कि 2020-21 के बजट में मांग बढ़ाकर रोज़गार की समस्या को ख़त्म करने के लिए कुछ नहीं किया गया। आज रोज़गार की समस्या पिछली आधी शताब्दी में सबसे भयावह रूप में है। लेकिन इस समस्या से निजात पाने के लिए पूंजीपतियों पर कर लगाने का समाधान बहुत कम लोगों की नज़रों में आया।
कुछ लोग समस्या के समाधान के लिए राजकोषीय घाटे को बड़े पैमाने पर बढ़ाने की वकालत करेंगे। लेकिन इससे मांग की समस्या से निपटने के क्रम में पूंजी, महज़ पूंजीपतियों और अमीरों तक पहुंचकर रह जाएगी। बढ़ती आर्थिक असामानता बुनियादी तरीक़े से लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाती है। सरकार द्वारा संपदा पर कर लगाकर अतिरिक्त संपदा को कम किया जाता है। इससे अमीर और पूंजीवादी, अपने शुरुआती स्तर से अधिक ग़रीब नहीं होते। मतलब वह शुरुआती स्तर जब ''कर और ख़र्च' की नीति अपनाई गई थी। बल्कि इससे मांग की कमी वाली समस्या से निजात मिलती है। लेकिन मोदी सरकार से इसकी उम्मीद करना बेमानी है।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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