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चौकीदार ही चोर है: भाग 1 - नितिन गडकरी के लिए एक "स्वीट" डील

न्यूज़क्लिक की यह ख़ास सिरीज़ तीन भागो में पेश की जाएगी। श्रंखला के पहले भाग में, किस तरह मोदी सरकार ने बैंकों पर अपने सहयोगी पूँजीपतियों को बार-बार क़र्ज़ देने के लिए दबाव बनाया, जिस की वजह से ख़राब क़र्ज़ का पहाड़ खड़ा हो गया, पर रोशनी डाली जाएगी।
चौकीदार ही चोर है: भाग 1 - नितिन गडकरी के लिए एक "स्वीट" डील

मार्च 2019 तक, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कुल ग़ैर निष्पादित परिसंपत्तियाँ (एनपीए) जो 2014 में केवल 2 लाख करोड़ रुपये थी से बढ़कर 8.96 लाख करोड़ रुपये हो गई है, इसमें से कुल राशि का क़रीब 82 प्रतिशत उन पूँजीपतियों (कॉर्पोरेट डिफ़ोल्टरों) के पास है जो इसे समय पर अदा नहीं कर पाए हैं। कुल कॉर्पोरेट एनपीए की एक तिहाई राशी केवल 40 कॉर्पोरेट समूह के पास है।

सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) इस मुद्दे पर मुहँ फुलाए हुए है, इसके मुताल्लिक इन्सॉल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड लागू किया है और बैंकों पर एनपीए खातों को इनसॉल्वेंसी कार्यवाही में करने के लिए "उनकी बैलेंस शीट को साफ़ करने" के लिए दबाव बनाया जा रहा है। हालांकि, इससे समस्या केवल बढ़ी है, क्योंकि अभी तक बहुत कम पैसा वसूल हुआ है। 2014 और 2018 के बीच, देश के 21 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने इन ख़राब ऋणों की 3.16 लाख करोड़ रुपये की राशि को माफ़ कर दिया, और केवल 44,900 करोड़ रुपये की वसूली की गई थी।

जनवरी 2019 में बैंकर्स यूनियनों, लोगों के आंदोलनों, नागरिक समाज संगठनों और वित्त और बैंकिंग से संबंधित आम नागरिकों के द्वारा राजनीतिक दलों को जारी एक अपील ने बढ़ते एनपीए का "भारतीय बैंकिंग उद्योग की केंद्रीय समस्या" के रूप में ज़िक्र किया था। धोखाधड़ी के 4693 मामले सामने आए हैं जिसके ज़रिये 2015-16 में 1 लाख करोड़ का घोटाला शामिल है। 2016-17 में यह संख्या बढ़कर 5,904 हो गई थी। अपील में "सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप" को "क्रॉनिक पूंजीवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने" के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया था।
बैंकिंग उद्योग में एक स्रोत से प्राप्त दस्तावेज़ों के आधार पर, इस तीन-भाग की श्रृंखला में, हम सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में राजनीतिक हस्तक्षेप के तीन ऐसे उदाहरणों पर एक नज़र डालेंगे जो इस संकट का कारण बने हैं।

आगामी दूसरे और तीसरे भाग में क्रमशः प्रधानमंत्री से जुड़ी गुजरात स्थित एक कंपनी, और महाराष्ट्र सरकार में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मंत्री से जुड़ी एक कंपनी होगी।

इस पहले और विशेष भाग में, न्यूज़क्लिक भारत सरकार में सड़क परिवहन और राजमार्ग, शिपिंग, और जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प के ज़िम्मेदार वर्तमान केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी से जुड़ी एक कंपनी के मामले का खुलासा कर रहा है। गडकरी से जुड़ी एक कंपनी ने कथित तौर पर बैंक की अपनी नीतियों और पिछले फ़ैसलों का उल्लंघन करते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ऋण प्राप्त किया, और खाते को एनपीए में बदलने से रोकने के लिए कई बार ऋण प्राप्त किए - एक घटना जिसे "सदाबहार" कहा जा सकता है।
नितिन गडकरी द्वारा स्थापित पूर्ति समूह की कंपनियों का मामला किसी विवाद से कम नहीं है। आम आदमी पार्टी के पूर्व सदस्य और 2012 में भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता अंजली दमानिया द्वारा किए गए खुलासे में, इसकी स्वामित्व संरचना आयकर अधिकारियों द्वारा एक जांच का विषय बन गई थी। यह उभर कर आया कि समूह की कई शेल कंपनियों में भारी निवेश किया गया था, और एक आदर्श इंफ़्रास्ट्रक्चर बिल्डर्स (IRB) के व्यवसायी दत्तात्रय पांडुरंग म्हैस्कर से जुड़कर सांठगांठ का आरोप था – यह एक प्रमुख बुनियादी ढांचा डेवलपर है- जो राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टी के नेता शरद पवार को भी घेरने की कोशिश हुई थी और तब इस विवाद के चलते गडकरी को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में संभावित दूसरा कार्यकाल नहीं दिया गया था।
उस समय किए गए खुलासे के प्रमुख विवरणों में से एक 164 करोड़ रुपये का कम ब्याज़ वाला ऋण था जिसे कि म्हैस्कर के स्वामित्व वाली कंपनी - ग्लोबल सेफ़्टी विज़न – को मार्च 2010 में पूर्ति पावर एंड शुगर लिमिटेड नामक एक पूर्ति समूह की कंपनी को दिया था। जब यह तथ्य 2012 में सामने आया, तो म्हैस्कर ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया था कि उन्होंने पूर्ति समूह को "वित्तीय संकट से उभारने" में मदद करने के लिए यह ऋण "व्यक्तिगत बचत" से दिया था। उस समय के इस रहस्योद्घाटन ने इस तथ्य के कारण जांच को आकर्षित किया था कि आईआरबी समूह की कंपनियों ने गडकरी के कार्यकाल के दौरान कई प्रमुख बुनियादी ढांचे के अनुबंध हासिल किए थे, क्योंकि 1996-99 में राज्य में शासन करने वाली भाजपा-शिवसेना सरकार के दौरान वे महाराष्ट्र के सार्वजनिक निर्माण मंत्री थे, और इस तरह एक "क्विड-प्रो-क्यू" के आरोपों को ही गोल कर दिया गया था।
हम इस लेख में दो मुद्दों को पेश करेंगे। सबसे पहले, उस समय पूर्ति समूह जिस वित्तीय संकट से गुज़र रहा था, उसकी सटीक प्रकृति क्या थी और ग्लोबल सेफ़्टी विज़न की ऋण सहायता कैसे प्राप्त हुई? दूसरे मुद्दे को संबोधित करने से पहले हम इस हिस्से का विस्तार करेंगे।

पूर्ति सखार कारख़ाना लिमिटेड 

पूर्ति सखार कारख़ाना लिमिटेड, वर्ष 2000 में निगमित, और अब इसे पूर्ति पॉवर एंड सुगर लिमिटेड के नाम से जाना जाता है, यह वह कंपनी है जो पूर्ति साम्राज्य का केंद्र है। 2018 में एक सार्वजनिक बातचीत में, गडकरी ने कहा कि समूह – जिससे अब वे अलग हो गए हैं, उसे अब उनके बेटों द्वारा चलाया जाता है – इस कंपनी ने उस वर्ष 1100 करोड़ रुपये का कारोबार किया था। यह वह कंपनी है जिसने नागपुर के बाहरी इलाक़े में चीनी, डिस्टिलरी उत्पादों, इथेनॉल और बिजली के सह-उत्पादन (खोई का उपयोग करते हुए, इसका चीनी विनिर्माण की प्रक्रिया के दौरान एक ईंधन के रूप में उत्पादन होता है) के निर्माण के लिए एक एकीकृत परियोजना बनाई थी - "किसान" मैत्रीपूर्ण व्यवसाय" जिसे गडकरी ने स्वीकार भी किया था, जिसकी वजह से वे "बेहद लोकप्रिय हो गए" और इसने उन्हें नागपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने का भरोसा दिया था।

परिसर के निर्माण के लिए प्रारंभिक निवेश तीन भागों में आया था। चीनी संयंत्र को सहकारी बैंकों के एक संघ, भारतीय नवीकरणीय ऊर्जा विकास संघ द्वारा बिजली संयंत्र और बैंक ऑफ महाराष्ट्र (BoM) द्वारा शराब बनाने का स्थान और इथेनॉल संयंत्रों को बनाने के लिए वित्त पोषण किया गया था।
बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र ने अगस्त 2003 में डिस्टिलरी और इथेनॉल प्लांट्स के लिए 35.62 करोड़ रुपये का क़र्ज़ दिया था। यह क़र्ज़ मुंबई में बैंक की औद्योगिक वित्त शाखा द्वारा दिया गया था। उस समय, गडकरी कंपनी के मुख्य कार्यकारी थे।
इस ऋण को जुलाई 2004 में बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र ने एनपीए के रूप में वर्गीकृत किया था, यानी इसकी मंजूरी के एक साल से भी कम समय के भीतर यह एनपीए हो गया था। न्युज़क्लिक के पास बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र के आंतरिक नोट बताते हैं कि ऐसा क्यों हुआ। डिस्टिलरी और इथेनॉल संयंत्र, जिनका निर्माण अप्रैल 2004 तक पूरा हो चुका था, वे बेकार पड़े थे। कंपनी ने मई 2004 में तेल कंपनियों द्वारा जारी निविदाओं के लिए बोलियाँ प्रस्तुत की थीं, लेकिन उन्होंने आपूर्ति के किसी भी आदेश को नहीं पाया था। जल्द ही तेल कंपनी के टेंडर का एक और दौर शुरू हुआ और कंपनी ने मार्च 2005 तक उत्पादन शुरू करने की उम्मीद जताई थी।

बैंक ने नागपुर में इस तरह की सुविधा के मुताल्लिक साइट का दौरा किया, और समय पर भुगतान शुरू करने में विफ़ल होने के बावजूद, परियोजना की प्रगति से वह संतुष्ट था। इसने तीसरे पक्ष के सलाहकार द्वारा जारी प्रगति रिपोर्ट पर भी नज़र रखी थी। अपनी स्वयं की साइट की यात्रा, और तीसरे पक्ष के सलाहकारों के अवलोकन के आधार पर बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र प्रबंधन ने ऋण की चुकौती की बाद की तारीख़ को अपनी मूल शर्तों में निर्दिष्ट किया था (जिसका पालन करने के लिए ऋण ने एनपीए टैग को अर्जित किया था) । बैंक ने उस कंपनी के ब्याज़ भुगतानों के लिए एक और अल्पकालिक ऋण दिया जो कंपनी ग़ायब थी। यह फ़रवरी 2005 में था।
बैंक ने एनपीए के लिए धन(बैंकिंग "प्रावधानों में" प्रदान किए गए सरल शब्दों में, वह पैसा है, जिसे बैंक अलग-अलग खातों में रखता है, जिन्हें एनपीए के रूप में वर्गीकृत किया गया है, उन्हें अपने लाभ और हानि खाते से हटा देता है) “उप्लब्ध” कराया जैसे-जैसे अदायगी में देरी हुई। जनवरी 2006 में, बैंक ने खातों की ब्याज़ की लागतों को वित्तपोषण करने के लिए एक और अनुरोध को स्वीकर किया और एक बार फिर से पुनर्भुगतान की तारीख़ को तैयार किया गया। इस तरह के स्थगन 2009 तक जारी रहे।

अंतत: सितंबर 2009 में बैंक ने एनपीए पर पूरी तस्वीर पेश की, और कहा कि वह ज़्यादा से ज़्यादा राशि वसूल करेगा जितनी भी कर सकेगा। ऐसा करने पर, बैंक वह करेगा जिसे "तकनीकी क़र्ज़ माफ़ी" के रूप में जाना जाता है – यानी एनपीए की राशी को बैंकों के खातों से बंद कर दिया जाएगा, यह एक समझौता राशि पर पहुँचने के बाद खाताधारक से वसूल किया जाएगा।

यह समझौता राशि तीन पुनरावृत्तियों से गुज़री। 14 सितंबर, 2009 को एक आंतरिक पत्र में कहा गया था कि बैंक के प्रबंधन ने 23 करोड़ रुपये के एकमुश्त निपटान के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी थी। 31 सितंबर तक यह ऑफ़र बढ़कर 28 करोड़ रुपये हो गया था। दो दिन बाद, 1 अक्टूबर को, ऑफ़र 25 करोड़ रुपये में बदल गया था। बैंक को 10.62 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। यह वह राशि थी जो अंत में भुगतान की गई थी।
बैंकिंग स्रोत ने इस  लेखक को पुष्टि की कि यह भुगतान पूर्ति सखार कारख़ाना लिमिटेड द्वारा नहीं, बल्कि एक अन्य कंपनी – ग्लोबल सेफ़्टी विज़न द्वारा किया जाएगा। दत्तात्रय म्हैस्कर को इस कंपनी के "प्रमुख व्यक्ति" के रूप में वर्णित किया गया था। इससे कम से कम एक "वित्तीय संकट" का सवाल साफ़ होता है कि म्हैस्कर रुपये के विवादास्पद 164 करोड़ रुपये के ऋण के माध्यम से संकट से उभारने में मदद कर रहा था। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कंपनी उस समय अपने विभिन्न लेनदारों के साथ एक जैसी कई देनदारी के समझौतों से गुज़र रही थी, और न्यूज़क्लिक के पास एक अन्य दस्तावेज़ भी है, जिसमें स्पष्ट भाषा में कहा गया है: कि “2009-10 के दौरान, कंपनी ने मेसर्स ग्लोबल सेफ़्टी विज़न प्राइवेट लिमिटेड, मुंबई से 164 करोड़ रुपये का सुरक्षित ऋण प्राप्त किया है, मुख्य रूप से अपने सुरक्षित ऋणदाताओं के साथ [एक बार की देनदारी का समझौता] को लागू करने के उद्देश्य से। ”

"कोई नई क्रेडिट सुविधा नहीं?" फिर महात्मा शुगर(चीनी) की क्या कहानी है?

एक समय के निपटान की शर्तों के लिए जब बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र ने पूर्ति सखार कारख़ाना लिमिटेड  के साथ समझौते पर पहुँची, वह एक महत्वपूर्ण बात थी, कम से यहाँ बैंक चिंतित दिखा। जो दस्तावेज़ न्युजक्लिक के पास हैं उनके मुताबिक़ दस्तावेज़ों में शामिल खंड "कोई ताज़ा ऋण सुविधाएँ [को] कंपनी, निदेशकों, गारंटरों, या उन फ़र्मों को मंज़ूरी नहीं देने से संबद्ध हैं"।
हालांकि, सितंबर 2011 में, बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र ने ऐसा ही किया, इस बार नागपुर में अपनी करवेनगर शाखा के माध्यम से 21 सितंबर को, महात्मा शुगर एंड पॉवर लिमिटेड नामक एक अन्य कंपनी को विभिन्न ऋणों की मंज़ूरी दी गई, कुल मिलाकर 57.37 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था। इसने आंध्र बैंक के साथ एक कंसोर्टियम के हिस्से के रूप में ऐसा किया, जो कंपनी को एक चीनी विनिर्माण इकाई में एक सह-उत्पादन बिजली संयंत्र स्थापित करने के लिए वित्तपोषण कर रहा था जिसे उसने वर्धा में हासिल किया था।

इस कंपनी ने गडकरी के बेटे, सारंग गडकरी को एक निर्देशक के रूप में सूचीबद्ध किया है। अधिक महत्वपूर्ण रूप से न्युज़क्लिक को मिले दस्तावेज़ों के अनुसार, ऋण अनुदान के लिए, नितिन गडकरी ने ख़ुद को गारंटर के रूप में सूचीबद्ध किया था, जिनकी "व्यक्तिगत गारंटी" ऋण की सुरक्षा का हिस्सा थी। यह करके बैंक के पूर्व निदेशकों, गारंटियों, या फ़र्मों को क्रेडिट जारी करने के मामले में बैंक ने अपने पहले के प्रतिबंध का उल्लंघन था, जो लोग पूर्ति सखार कारख़ाना लिमिटेड से जुड़े व्यक्ति थे। यह स्पष्ट कर दें कि न केवल नितिन गडकरी पूर्ति सखार के एक निदेशक थे, बल्कि इस तरह वे उस क्षमता में एक उधारकर्ता भी थे, उन्होंने दस्तावेज़ों के अनुसार, अपनी व्यक्तिगत क्षमता में उस ऋण के गारंटर के रूप में अपना नाम दिया था।
दिलचस्प बात यह है कि इसी दस्तावेज़ में महात्मा शुगर और पावर लिमिटेड के सहयोगी/कम्पनी के साथ "बैंकिंग न करने की चिंताओं" को भी सूचीबद्ध किया गया था। एकमात्र सूचीबद्ध कंपनी पूर्ति पावर और शुगर लिमिटेड है। पांच कंपनियों को पूर्ति के बैंकरों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। इनमें चार सहकारी बैंक हैं। हालांकि, इसके "बैंकर" के रूप में सूची में पहला वही ग्लोबल सेफ़्टी विज़न का नाम है। दस्तावेज़ में लिखा गया है कि महात्मा शुगर एंड पावर ने बताया कि मैसर्स महात्मा शुगर एंड पावर लिमिटेड और मैसर्स पूर्ति शुगर एंड पावर के बीच कोई आम डायरेक्टर नहीं है और उनकी "कोई सहायक कंपनी नहीं है" और इस तरह महात्मा को क़र्ज़ देते समय पूर्ति की बैलेंसशीट का अध्ययन करने से बचें।
न्यूज़क्लिक के पास मौजूद एक अन्य दस्तावेज़ के अनुसार, 2011 में, 57.37 करोड़ रुपये दिए गए, उसी ऋण की समीक्षा और नवीनीकरण जुलाई 2014 में बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र करवेनगर शाखा, नागपुर द्वारा किया गया। यह इस तथ्य के बावजूद है कि CRISIL (पूर्व में क्रेडिट रेटिंग इन्फ़ोर्मेशन सर्विसेज़ ऑफ़ इंडिया लिमिटेड) की एक रिपोर्ट ने जनवरी 2014 में महात्मा शुगर एंड पावर की क्रेडिट रेटिंग को घटा दिया था, एक तथ्य यह है कि बैंक की क्रेडिट अनुमोदन समिति ने समीक्षा और नवीनीकरण के अपने मूल्यांकन में महात्मा के ऋण पर विचार किया था। सूत्र द्वारा बताई गई जानकारी के अनुसार - महात्मा शुगर और पावर के लिए बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र का कुल निवेश अब 85 करोड़ रुपये तक पहुँच गया है, इसी तरह के तंत्र के माध्यम से पूर्ती सखार कारख़ाना के मामले में - ब्याज़ लागतों का वित्तपोषण - "इसे एनपीए से बचाने के लिए किया गया था।"

राजनैतिक प्रभाव?
इस लेख में, हम सीधे तौर पर किसी के पक्ष में या किसी पर भी अपराध या किसी भी अन्य प्रकार के ग़लत काम का आरोप नहीं लगाते हैं। यदि जांच एजेंसियाँ, या इसकी अधिक संभावना है कि बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र अपनी आंतरिक प्रक्रियाओं के तहत इस मामले को देखें कि गडकरी को गारंटर बनाने के साथ ऋण कैसे दिया गया था, जबकि ऐसा करने के ख़िलाफ़ पहले ही निषेधाज्ञा थी उसके बावजूद ऐसा किया गया, यह संभव है कि कुछ बैंक अधिकारियों को कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता है। हालांकि, यह स्पष्ट है कि अगर किसी को और अधिक रेखांकित करने की आवश्यकता है, तो यह एक ऐसे उदाहरण के रूप में स्पष्ट है जो किसी भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के साथ महत्वपूर्ण रूप से महत्वपूर्ण व्यक्ति के लेन-देन के साथ मानदंडों का ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल को बताता है।

एनपीए संकट अगले कुछ वर्षों में ख़त्म हो सकता है, चाहे उसे माफ़ कर के या रिकवरी के माध्यम से। रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग्स (फ़िच की घरेलू शाखा) के अनुसार, यह बेहतर होने से पहले ही शायद ख़राब हो जाएगा, क्योंकि इस तरह के खातों में क़रीब 3.5 लाख करोड़ को अभी तक एनपीए के रूप में मान्यता नहीं दी गई है। कथित तौर पर, वित्त पर संसद की स्थायी समिति को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, आरबीआई के पूर्व गवर्नर ने बताया था कि वर्ष 2017-18 में एनपीए में कमी का लगभग 55 प्रतिशत (84,272 करोड़ रूपए) केवल माफ़ करने की वजह से हुआ था। 27 प्रतिशत ही वास्तव में बरामद किया गया था। यह भारतीय रिज़र्व बैंक के एक उस विरोधाभासी सर्कुलर का प्रभाव हो सकता है, जिसके ज़रिये बैंकों को एनपीए खाताधारकों को अपने कुख्यात "12 फ़रवरी के परिपत्र" के माध्यम से दिवालिया कार्यवाही करने पर मजबूर कर दिया था, जिसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने वापस करा दिया था। हालांकि, इससे सड़ांध दूर नहीं हो पाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर राजनीतिक प्रभाव के हस्तक्षेप के बिना, यह केवल अगले संकट का बीज ही बोएगा।

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