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क्या दलित-बहुजन और वामपंथी-प्रगतिशील एकजुट हो सकते हैं?

इनकी एकजुटता ही हिंदुत्व का एकमात्र इलाज है, लेकिन वे अभी तक बातचीत की मुद्रा में ही हैं।
left bahujan unity

अगर कोई जन्म से ब्राह्मण है, तो कब और कैसे कोई वैधानिक रूप से खुद को इसके परे साबित कर सकता है? एक ऐसा समाज जो जाति के रहमोकरम पर चलता हो, क्या इतना भी संभव है कि कोई इंसान जिस सामाजिक समूह में जन्मा हो, उसकी सदस्यता तक खारिज कर सके? क्या यह नैतिक रूप से उचित है कि कोई अपने विश्वास के चलते खुद को गैर-ब्राह्मण घोषित करे? या फिर क्या यह स्वीकार करना नैतिक रूप से उचित होगा कि "मात्र" यह घोषणा कर कि वह अब से ब्राह्मण नहीं रहा, और फिर वह उसके बाद से वह स्थान उसे हासिल नहीं होगा? बाद वाले का आशय यह माना जाना चाहिए कि कोई किस जाति का है, इसे स्वीकार करना कहीं अधिक नैतिक है, भले ही वह व्यक्ति जन्म के आधार पर किसी को अनुचित विशेषाधिकार दिए जाने के ही खिलाफ क्यों न हो।

यहाँ तक कि यदि कोई इंसान जो जन्म से ब्राह्मण रहा हो, लेकिन संस्कारों वाली जातीय श्रेणी और आध्यात्मिक श्रेष्ठता से नफरत करता हो, के बावजूद जातीय दृष्टिकोण से भौतिक रूप से अमूर्त विशेषाधिकार उसे स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं, जिन्हें आसानी से खत्म नहीं किया जा सकता। सामाजिक विशेषाधिकारों के अलावा, पहले से तैयार नेटवर्क और स्वीकृति के साथ अनुकूल सामाजिक मान्यता के कारण सफलता और भौतिक लाभ खुद ब खुद मिलने लगते हैं। ये वे अमूर्त भावनात्मक और अन्य विशेषाधिकार हैं जो बिना किसी भी प्रयास या पात्रता के जाति की श्रेष्ठता की वजह से आरक्षित हो जाते हैं।

यह उसे संवेदनात्मक और कई अन्य लाभ प्रदान कर देता है जिसके लिए कोई मेहनत या पात्रता की ज़रूरत नहीं पड़ती। मानकर चलिए ये वे चीजें हैं जो उस व्यक्ति को पहले से प्राप्त हैं, और आमतौर पर दिन-प्रतिदिन के स्रोत के रूप में बिना कोई ध्यान दिए ही, ये लाभ खुद-ब-खुद प्राप्त होते चले जाते हैं। ऐसे सन्दर्भ में क्या कोई अपनी तमाम सदिक्षाओं के बावजूद जन्म आधारित जाति श्रेष्ठता या एक ब्राह्मण होने की अपनी पहचान को खत्म कर सकता है?

ऐसे में, जब धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील राजनीति यह माँग करती है कि दलित-बहुजनों का ब्राह्मणवाद की आलोचना करना तो उचित है लेकिन ब्राह्मणों की गलत, तो यह उम्मीद कितनी उचित है? खासतौर पर यह मामला तब काफी टेढ़ा हो जाता है जब सामाजिक रूप से जागरूक ब्रहामणों, जिन्होंने सर्वजन हिताय वाले सामाजिक कार्यों में अपने जीवन को समर्पित कर दिया हो। ऐसे मौकों पर दलित-बहुजन राजनीति उनके व्यक्तिगत योगदानों में से जन्म के आधार पर मिले विशेषाधिकारों से होने वाले फायदे को कैसे अलग कर सकती है? जहाँ दोनों को आपस में समाहित कर देना पागलपन होगा, वहीं उन दोनों को अलग-अलग करने वाला (प्रचलित राजनैतिक बहस के हिस्से के रूप में) कोई आसान उपाय भी नहीं है।

सामाजिक हैसियत की वजह से प्राप्त होने वाले विशेषाधिकारों को बिना उजागर किये सिर्फ जन्म के योगदान को स्वीकार करने से या तो संरक्षण और परोपकार की भावना को बढ़ावा मिलता है या ऐसे व्यक्तियों को शुरू में ही वह बढ़त हासिल हो जाती है जो बाकियों के प्रति अन्याय होता है।

दलित-बहुजन राजनीति ने इस संवाद को “उपस्थिति की राजनीति” के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया है। इसने उच्च-जातीय विद्वानों के द्वारा खुद के प्रतिनिधित्व का और इंतज़ार करने के बजाय, अधिक से अधिक दलित-बहुजन नेताओं, लेखकों और बुद्धिजीवियों की माँग की है। इससे दूसरे लोग, जो उन सामाजिक लाभों को उठा रहे थे के बीच साम्यता लाता है और उनके अधिकारों में कटौती करता है। फिर भी ज्यादा ज़रूरी यह है कि जो लोग विशेषाधिकार वाले स्थानों में विराजमान हैं, वे इस पर कैसा रुख अख्तियार करते हैं, चाहे उनकी खुद को जाति-च्युत करने की कोशिशें जाति-विरोधी राजनीति के भीतर प्रतिध्वनित होती हों। खुद की जन्मना जाति से विलगाव को स्वीकार्यता न देना जाति-विरोधी राजनीति के लिए आत्म-घाती कदम हो सकता है। लेकिन प्रश्न यह है कि जाति-आधारित नेटवर्क और विशेषाधिकारों का त्याग करने वाले लोगों की नैतिक श्रेष्ठता को संशोधित किए बिना यह कैसे किया जा सकता है।

क्या एक साझा लोकाचार किसी बढ़ते तनावों और हितों के टकरावों के साथ सह-अस्तित्व में रह सकता है? वैध रूप से यह कहा जा सकता है कि एक साझे सांस्कृतिक माहौल की जिम्मेदारी उन लोगों पर है जिन्हें विशेषाधिकार प्राप्त रहे हैं, लेकिन बहुजन राजनीति की भी यह जरुरत है कि वह राजनीति और पूर्वाग्रह के फर्क को समझे। राजनैतिक आलोचकों को इस बात का फर्क समझना चाहिए कि किसी व्यक्ति के सामाजिक स्थान को लेकर पूर्वाग्रह बने रह सकते हैं।

एक बार फिर से वैधानिक रूप से सवाल उठ सकता है कि इस तरह की बारीकियों के बोझ तले दलित-बहुजन राजनीति ही क्यों रहे, जबकि विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के लिए यह नियम न लागू हो। दबे कुचलों से इतिहास के बोझ को ढोने की उम्मीद करना क्या उचित होगा? इस प्रश्न के प्रमाणिक और व्यावहारिक रूप से  दोनों उत्तर हैं। व्यावहारिक दृष्टि से, दलित-बहुजन राजनीति को एक अलग सामाजिक क्रम को संस्थाबद्ध करने में सफलता प्राप्त करनी है तो उसे और अधिक महीन राजनीतिक बहस में जाने की जरुरत है। और यदि नियमबद्ध शब्दों में कहें तो  दलित-बहुजन राजनीति सिर्फ वर्चस्व का उपहास करे, और आशा रखे कि वह मौजूदा राजनीतिक रूप से सामाजिक क्रम को बदल देगा, तो ऐसे सोचना बेवकूफी होगी। यही कारण है कि वे एक वृहत्तर एकजुटता और भाईचारा कायम कर पाने पर जोर देने में असफल रहकर उसकी बजाय हिन्दू वर्चस्व द्वारा प्रस्तावित संकीर्ण तर्क के पीछे पीछे ही दौड़ रहा है।

अपने इसी तर्क की वजह से, सामाजिक व्यवस्था को लाँघने के लिए एक नए नैतिक ब्रह्मांड की आवश्यकता होती है, और मात्र वंचितों के पास ऐसा करने के लिए इस प्रकार का ऐतिहासिक औचित्य और जरिया होता है। यह अजीब विडंबना है कि जिन समूहों में सामाजिक शक्ति का अभाव है, वे नए मूल्यों के लिए रास्ता खोजने का बोझ अपने सर पर लें।

अधिकाधिक रूप में ऐतिहासिक परिवर्तन के संदर्भ को तय करने के लिए ज़रूरी यह है कि, किस प्रकार से मूल्यों और हितों को अलग किया जाता है और वंचित समूह अपना जोर कहाँ पर लगाते हैं। इसलिये जहाँ दोनों एक दूसरे से सम्बद्ध तो हैं लेकिन उन्हें एक ही चीज में समाहित नहीं किया जा सकता। कुछ विकल्पों को चुनना होगा जो हितों से परे जाकर कहीं अधिक अदृश्य और यहाँ तक कि आध्यात्मिक क्षेत्र में भी प्रवेश कर सकें। इसी बात का बी आर अम्बेडकर ने भी हवाला दिया था, जब उन्होंने बंधुत्व के विचार पर जोर दिया था। जहाँ ब्राह्मणवाद का मूल तत्व संकीर्णतावाद में है, वहीं दलित-बहुजन राजनीति का सार अपने तमाम व्यावहारिक और अनुभवजन्य हिसाब-किताब के बावजूद जातिवाद को तोड़ने वाले भ्रातृत्व बंधन में है।

बदले में भ्रातृत्व के बंधन तभी स्थापित हो सकते हैं जब जो लोग अगड़ी जातियों से सम्बन्ध रखते हैं, यदि वे प्रगतिशील या वाम-धर्मनिरपेक्ष राजनीति को मान्यता देते हैं, और वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनकी “विशेषाधिकार प्राप्त” सामाजिक स्थिति के चलते बहुआयामी स्वरूपों में जाति-आधारित भेदभाव उनके सम्पूर्ण समझ नहीं बनने दे रही है। दलित-बहुजन और वाम राजनीति का द्वन्द महत्वपूर्ण रूप से आगे विकसित नहीं हो पाया है, इसकी कुछ वजह यह है कि वाम-प्रगतिशील ताकतें अभी तक दलित-बहुजन राजनीति से उन्होंने जो सीखा है उसे अभी भी स्वीकार नहीं कर पाए हैं। जबकि दलित-बहुजन राजनीति भाईचारे और न्याय के बीच सहज सबंधों पर जोर देने में अभी तक असफल साबित हुई है।

वर्तमान बहुसंख्य्वाद के आवेग ने अनजाने में एक सन्दर्भ को निर्मित किया है, जहाँ सभी प्रकार के सामजिक विभाजन के परे जाना आवश्यक हो जाता है। एक अर्थ में दक्षिणपंथ ने जातीय विभाजनों के परे जाकर मर्दवादी बहुसंख्यकवाद के जरिये इसे हासिल किया है। सवाल उठता है कि क्या इसका मुकाबला न्याय और सामाजिक गतिशीलता पर आधारित वैकल्पिक भ्रातृत्व के जरिये किया जा सकता है?

जहाँ एक ओर दक्षिणपंथी वर्चस्ववाद प्रतिशोधात्मक न्याय के जरिये इस “एकता” को निर्मित करता है, वहीं  वैकल्पिक एकजुटता के पास बहुस्तरीय मुद्दों जिनमें बारीकियाँ हर सवाल में लिपटी होती हैं, यहाँ तक कि इसमें पदानुक्रम और निर्वासन भी इसमें शामिल हैं। लेकिन इसका हर्गिज मतलब यह नहीं है कि नए प्रकार की एकजुटता के राजनीतिक प्रयोग किये ही न जायें। यहाँ पर सिर्फ “आंतरिक” उत्पादक तनावों के लिए पर्याप्त स्थान मुहैया किये जाने की आवश्यकता है।

(लेखक जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Can Dalit-Bahujan and Left-Progressives Join Hands?

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