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मत-मतांतर: पहचान की राजनीति नहीं, सुसंगत लोकतंत्र के लिए संघर्ष है फ़ासीवाद का जवाब

पहचान की राजनीति के आधार पर जाति आधारित गोलबंदी की कोई कोशिश एक समावेशी लोकतांत्रिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष का विकल्प नहीं हो सकती और वह विफल होने के लिए अभिशप्त है।
Identity Politics
साभार: epw

वैसे तो चुनावों का ताजा चक्र उत्तर पूर्व और दक्षिण से शुरू हो रहा हैपर 2024 में दिल्ली के तख्त का फैसला तो अंततः उत्तर में होना है। इस दॄष्टि से उत्तर प्रदेश की हाल की हलचलें गौरतलब हैं।

UP में हवा का ताजा रुख क्या हैइसका एक पैमाना विधानसभा चुनाव के बाद से अब तक हुए चुनाव हैं। ताज़ा एमएलसी चुनाव में जहां भाजपा ने में से सीटें जीत लींवहीं सपा इलाहाबाद-झांसी क्षेत्र की अपनी इकलौती पुरानी सीट भी गंवा बैठी। बसपा और कांग्रेस लड़े नहीं। एक सीट निर्दल उम्मीदवार ने जीती।

इसके पूर्व हुए लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में अखिलेश यादव मैनपुरी के अपने घरेलू मैदान ( home turf ) में मुलायम सिंह के निधन से खाली सीट पर भावनात्मक अपील की पृष्ठभूमि में डिम्पल यादव को जरूर जिताने में सफल रहे। पर उसी समय हुए उपचुनाव में रामपुर  विधानसभा तथा उसके पहले आज़मगढ़ और रामपुर लोकसभा के अपने गढ़ों में वे अपनी सीटें retain नहीं कर सके। किसान आंदोलन के गढ़ मुजफ्फरनगर की  खतौली सीट जरूर अपवाद रहीजहाँ RLD ने 2022 में चूक गयी सीट को अबकी बार भाजपा से छीन लिया। इसमें आज़ाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर का भी- जिनका मुख्य प्रभावक्षेत्र वही इलाका है-योगदान माना जा रहा है।

कांग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा से कोई नई राजनीतिक ताकत उत्तर प्रदेश में अर्जित की है अथवा नहींइसकी ठोस परीक्षा तो अभी होनी बाकी हैपर तमाम उपचुनावों में तो अब तक वह अप्रभावी ही रही है। 

पर ये चुनाव बसपा की अब तक जो संभावनाएं बची हुई हैंउसके जरूर indicator हैं-2019 के बाद से लगातार निराशाजनक चुनावी प्रदर्शन के बावजूद बसपा की चुनावों को प्रभावित करने की क्षमता बरकरार है। दलित समुदाय की सबसे बड़ी आबादी वाली जाति के बड़े हिस्से के loyal समर्थन के बल पर बसपा अभी भी UP चुनावों के नतीजे तय करने में एक प्लेयर बनी हुई है। इस दृष्टि से आज़मगढ़ उपचुनाव एक टेस्ट केस हैजहाँ एक ताकतवर मुस्लिम उम्मीदवार उतार कर बसपा ने ढाई लाख वोट हासिल कर लियासपा अपने सबसे मजबूत गढ़ में अखिलेश के इस्तीफे से खाली सीट हार गई और भाजपा ने चौंकाने वाली जीत दर्ज कर ली। जाहिर है 2024 की लड़ाई में बसपा की रणनीति पर सबकी निगाह बनी रहेगी।  

खतौली भाजपा के हाथ से निकल जानेकांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा को पश्चिम में मिले उत्साहपूर्ण समर्थनचन्द्रशेखर के साथ RLD के बढ़ते रिश्ते और किसान आंदोलन के पुनर्जीवन की संभावनाओं ने पश्चिम UP में 2024 के लिए विपक्ष की उम्मीदों को जिंदा रखा है। RLD नेता जयंत चौधरी और किसान नेता राकेश टिकैत लगातार सक्रिय हैं। RLD ने अभी " BJP की विफलताएं हजार, RLD चला जनता के घर द्वार " अभियान 12 से 19 फरवरी तक चलाने का एलान किया है जिसमें जयंत चौधरी समेत तमाम नेता सड़क पर उतरेंगे। 

भाजपा दोहरी रणनीति पर काम कर रही है। एक ओर विभाजनकारी एजेंडा को निरंतर खाद पानी दे रही है तथा पूरे प्रदेश में दमनात्मक माहौल बनाये हुए है ताकि विरोध में कोई लोकतांत्रिक आवाज न उठ सके और सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ कोई लोकप्रिय प्रतिरोध खड़ा न हो सके।

दूसरी ओर सरकार इन्वेस्टर summit जैसे मेगा-इवेंट्स के माध्यम से विकास और रोजगार का छद्म खड़ा कर रही है। सरकारी खजाने से अंधाधुंध पैसा खर्च कर 10-12 फरवरी को लखनऊ में हो रहे ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट का propaganda किया जा रहा है। दावा किया गया है कि 14 हजार देशी-विदेशी निवेशकों द्वारा प्रदेश में 22 लाख करोड़ का निवेश होने जा रहा है जिससे करोड़ से अधिक रोजगार के अवसर पैदा होंगे। (हालांकिफरवरी 2018 के ऐसे ही बहुचर्चित इंवेस्टर्स समिट में 4.28 लाख करोड़ के निवेश समझौते के दावे के बावजूद सरकार के आंकड़ों के मुताबिक वास्तविक निवेश मात्र 51 हजार करोड़ हुआ था!)

बहरहाल, UP में जनता के लिए कोई खुशनुमा माहौल नहीं है। सरकार के बड़बोले दावों के विपरीत सच्चाई यह है कि रेकॉर्ड स्तर पर पहुंची महंगाई और बेरोजगारी ने आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। साम्प्रदायिक-कारपोरेट बुलडोजर राज के खिलाफ भारी आक्रोश है। इसकी अभिव्यक्ति अभी हाल ही में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारत जोड़ो यात्रा को मिले जबरदस्त जनसमर्थन में भी हुई।

साल भर पूर्व हुए विधानसभा चुनाव में हर तरह की कमजोरी के बावजूद अगर विपक्ष का वोट रेकॉर्ड 36 % और सीटें 125 तक पहुंच गईंतो यह योगी राज के खिलाफ समाज में सतह के नीचे खदबदाते भारी जनाक्रोश का ही परिणाम था।

सच तो यह है कि विपक्ष ने रोजगार और खाली पदों पर भर्ती जैसे सवालों को चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाया होता और इस पर प्रदेश में युवाओं के अंदर मौजूद गुस्से को focussed ढंग से address किया होता तो शायद उसी चुनाव में परिणाम कुछ अलग होता।

चुनाव के बाद से विपक्ष ने अपने रुख से जनता को निराश किया है। न वह महंगाईबेरोजगारीशिक्षा-स्वास्थ्य की बदहाली जैसे जनता के ज्वलंत सवालों पर आंदोलन में उतरान लोकतान्त्रिक ताकतोंविपक्ष के नेताओंयहां तक कि अपने कार्यकर्ताओं पर हमलावर बुलडोजर राज के विरुद्ध प्रतिरोध में उतरान ही अल्पसंख्यकों पर साम्प्रदायिक दुर्भावनावश किये जा रहे हमलों या दलितोंसमाज के कमजोर तबकों के विरुद्ध सत्ता संरक्षित दबंगों की आक्रामकता के खिलाफ मुखर विरोध में उतरा।

अब ऐसे संकेत हैं कि मुख्य विपक्ष पहचान की राजनीति (Identity politics ) को हवा देकर मैदान में उतरने की तैयारी में है। पर इससे संघ-भाजपा की  बहु-आयामी रणनीति का जो अपनी शातिर चालों से समाज के सभी जातियों/तबकों में हिंदुत्व की विचारधारा की जबरदस्त घुसपैठ बना चुकी हैजो उसके साथ ही गोदी मीडिया की मदद से विकास-रोजगार और विश्वगुरु होने का मायालोक रचने में लगी हैजिसकी जीत के लिए कारपोरेट की तिजोरियां खुली हुई हैं और जिसे तमाम संस्थाओं को चुनाव में अपने हित में इस्तेमाल करने की महारत हासिल हैक्या संघ-भाजपा का मुकाबला किया जा सकता है?

इसका सिर्फ एक जवाब है कि यह एक defeatist रणनीति हैयह न सिर्फ नामुमकिन हैबल्कि आत्मघाती है। आज भाजपा के कारपोरेट साम्प्रदायिक फासीवाद का मुकाबला एक सुस्पष्ट लोकतान्त्रिक कार्यक्रम के साथ सड़क पर उतर कर और उसे व्यापक समाज में लोकप्रिय तथा स्वीकार्य बनाकर ही किया जा सकता है। बेशक सामाजिक उत्पीड़न व जाति आधारित भेदभाव का विनाश तथा समाज के आखिरी पायदान तक सभी समुदायों के लिए सुसंगत सामाजिक न्याय की गारंटी इस लोकतान्त्रिक कार्यक्रम का अभिन्न और बेहद जरूरी अंग होगी।

पहचान की राजनीति के आधार पर जाति आधारित गोलबंदी की कोई कोशिश एक समावेशी लोकतान्त्रिक कार्यक्रम के लिए संघर्ष का विकल्प नहीं हो सकती और वह विफल होने के लिए अभिशप्त है। यहां किसी शार्ट कटअवसरवादजुमलेबाजीचालाकी के लिए जगह नहीं है।

एक वैकल्पिक political economy, जो सबके लिए आजीविका-शिक्षा-स्वास्थ्यइंसाफ तथा लोकतान्त्रिक अधिकारों व सुसंगत सामाजिक न्याय की गारंटी कर सकेका ठोस आश्वासन ही जनसमुदाय को संघ-भाजपा की विषाक्त विचारधारा और राजनीति से अलग कर सकता है और उसके खिलाफ खड़ा कर सकता है।

ऐसे एक वैकल्पिक साझा कार्यक्रम के आधार पर विपक्ष की व्यापकतम सम्भव एकता ही UP से और दिल्ली से भाजपा राज की विदाई सुनिश्चित कर सकती है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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