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उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक एकता को मज़बूत करता है फैंसी-ड्रेस महोत्सव

पैलाकिसा गांव में करवा चौथ से पहले आयोजित होने वाली तीन दिवसीय फैंसी-ड्रेस प्रतियोगिता 'नकल' में विभिन्न जातियां भाग लेती हैं।
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उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के नकल पैलाकिसा गांव में ग्रामीण जश्न मनाने के लिए तैयार हुए। फोटो: रामजी मिश्र

उत्तर प्रदेश: सीतापुर जिले का एक छोटा गांव नकल पैलाकिसा अपने तीन दिवसीय वार्षिक फैंसी पोशाक प्रतियोगिता के कारण चर्चा में आ गया है। गांव के रामधर राजवंशी(50) ने कहा कि कोई नहीं जानता कि यह परंपरा कब शुरु हुई।

यह मेला करवा चौथ से एक दिन पहले शुरु होता है और एक दिन बाद समाप्‍त। मेला समुदायों को एक साथ लाता है और पारंपरिक कला को निखारने में मदद करता है।

सुकाली राजवंशी(58) के अनुसार पूरा गांव मिलकर इस मेले का आयोजन करता है। वह कहते हैं, ''यह हमारा वार्षिक सामुदायिक उत्‍सव है। गांव का हर वर्ग इस मेले में सहभागिता करता है और अपना योगदान देता है। यह गांव की एकता को मजबूत करता है। इस से मेले का आर्थिक भार भी किसी एक पर नहीं पड़ता है।''

वह कहते हैं कि इस मेले में सभी जातियों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ आते हैं। बता दें कि गांव की आबादी में धोबी, कहार, मुरौस, भट, नौस, पासी, लकड़हारा, भुरजी, ब्राह्मण और ठाकुर शामिल हैं।

भावनात्मक महत्व

एक लेखक सुमित बाजपेयी 'मध्‍यादीन' (35) कहते हैं कि नकल के आयोजन का उद्देश्‍य गांव में ''सकारात्‍मक और प्रसन्‍नता'' लाना है। ''इसका महत्‍वपूर्ण संदेश सामाजिक एकता को प्रोत्‍साहन करना है।''

रमाकांत पांडेय(94) विस्‍तार से बताते हैं, ''मेले बचपन से हमारे जीवन का हिस्‍सा रहे हैं। मेले में भागीदारी खुशनशीबी का प्र‍तीक है। ऐसा माना जाता है कि यदि एक वर्ष तक मेले का आयोजन न किया जाए तो करीब 40 लोगों की मौत हो जाएगी।''

पैलाकिसा गांव से 12 किमी दूर ब्रह्मावली गांव के इतिहसकार रमाकांत पांडेय(94) इस मेले के महत्‍व को उजागर करते हुए इसके भावनात्‍मक और सांस्‍कृतिक महत्‍व की व्‍याख्‍या करते हैं।

''गांव में सौभाग्‍य के लिए हर वर्ष मेले का आयोजन किया जाता है और गांव वाले इसमें शामिल होना शुभ मानते हैं। आज से 60 से 70 वर्ष पहले लोग इस मेले का आयोजन नहीं करते थे तब संयोगवश कॉलरा फैलने से 40 व्‍यक्तियों की मौत हो गई थी।

हालांकि यह संयोगमात्र है पर इससे गांव वाले बहुत प्रभावित हुए और तब से कोई भी मेले के आयोजन को टालता नहीं है।''

रामकुमार कहते हैं, ''हमें कोरोना महामारी के दौरान भी प्रशासन से विशेष अनुमति मिल गई थी। बड़े क्षेत्र में मेले का आयोजन किया गया था हालांकि गांव के बहुत कम लोगों ने भागीदारी की थी और पड़ोसी गांव से भी कम लोगों ने सहभागिता की थी।

आर्थिक महत्‍व

ग्रामीण मेले के महत्व को कम नहीं आंक रहे हैं क्‍योंकि बड़ी संख्या में यह आस-पास के क्षेत्रों के निवासियों को आकर्षित करता है जिससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है। एलिया ब्लॉक के ढोरहा गांव के लेखराज राजवंशी (45) पिछले पांच साल से यहां मेले में स्टॉल लगा रहे हैं।

वह कहते हैं कि कमायी तो भीड़ पर निर्भर करती है, ''मैं खिलौने बेचने और भोजन का स्‍टॉल लगाता हूं। मुझे इस मेले में भागीदारी से बहुत खुशी होती है। जहां तक मैंने देखा है आसपास के क्षेत्र के मेलों में इस मेले की तुलना में कोई कहीं नहीं ठहरता।''

गांव का प्राधिकरण इस मेले में दुकानें लगाने के लिए कोई राशि नहीं लेता है। मेले में खाने-पीने की दुकाने, छोटे-छोटे सजावटी सामान की दुकानें, बिंदी, चूडि़यां और इसी तरह की चीजों की दुकानें उपलब्‍ध होती हैं।

महोली के कमलेश राठौर जो चश्‍में की दुकान लगाते हैं वह 101 रिपोटर्स को बताते हैं, ''मैंने पहली बार इस मेले में दुकान लगाई है। मैं प्रतिदिन 400 से 500 रुपये मुनाफा कमा लेता हूं।''

ठाकुर गोकुल सिंह(85) कहते हैं मेले की लोकप्रियता के कारण कई स्‍थानीय कलाकार नकल में भागीदारी करते हैं। वह याद करते हुए कहते हैं, ''पहले, कोरापुर गांव से बुद्धा लोहार, लुकताहा गांव से बिहारी पंडित और खुटी गांव से गुलाब आया करते थे।''

सांस्‍कृतिक महत्‍व

हिंदू कैलेंडर के अनुसार कार्तिक माह की कृष्‍ण पक्ष को विशेष प्रार्थना के साथ मेेले की तैयारियां शुरु की जाती हैं।

गंगा देवी, जिनके पति मेले के लिए तैयार होते हैं, कहती हैं आमतौर पर नकल में केवल पुरुष ही भाग लेते हैं। वह कहती हैं, “ज्यादातर महिलाएं करवा चौथ का व्रत रखती हैं। यह संभव है कि पुरुषों ने गांव की महिलाओं के मनोरंजन का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया और इसलिए यह परंपरा कायम रही है।''

मेले में भाग लेता एक ग्रामीण। (फोटो: रामजी मिश्रा)

वह आगे कहती हैं, '' मेले में भागीदारी करने वाले अपने कपड़े और अलंकरण स्‍वयं तैयार करत हैं और अपना मेक-अप खुद ही करते हैं। यहां तक कि मेरे बच्‍चे भी नकल में भाग लेते हैं। ये तीन दिन बहुत आनंददायक होते हैं।''

सुलोचना प्रसंग (रामायण), जिसका अनुकरण रामकुमार पांडे ने किया है; महौता-महौतिन, मौर्य और राजवंशी परिवारों के सदस्यों द्वारा; रामनाथ पांडे द्वारा भगवान शिव; और देवी राजवंशी द्वारा अगिया बेताल के अलावा भगवान विष्णु की विभिन्न नकलें लोकप्रिय नकले हैं। विभिन्न अवतारों की झांकियां भी प्रदर्शित की जाती हैं। अधिकांश कलाकार मुख्यधारा की नकल की ओर नहीं जाते बल्कि केवल अपने पूर्वजों की नकल करते हैं।

(रामजी मिश्रा उत्तर प्रदेश स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और 101रिपोर्टर्स के सदस्य हैं जो कि जमीनी स्तर के पत्रकारों का एक अखिल भारतीय नेटवर्क है।)

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Costume Festival Reinforces Social Unity in Uttar Pradesh Hamlet

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