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ग्रामीण भारत में कोरोना-14 : हरियाणा के नूह के खेतिहर मज़दूरों ने कहा, ‘भूख से मर जायेंगे बच्चे और जानवर’

लॉकडाउन ने गाँव में पशुधन पालकों के लिए अपने मवेशियों के लिए चारे का इंतज़ाम कर पाना बेहद मुश्किल कर दिया है। चूँकि पिछले साल की फसल कटाई से हासिल पुआल अब ख़त्म हो चुका है इसलिये अधिकतर परिवारों को अब गाँव के बाहर से पुआल ख़रीदना पड़ रहा है।
ग्रामीण भारत
प्रतीकात्मक फोटो. चित्र: न्यूज़क्लिक 

यह जारी श्रृंखला की 14वीं रिपोर्ट है जो कोविड-19 से संबंधित नीतियों का ग्रामीण भारत के जीवन पर पड़ते प्रभाव की झलकियाँ प्रदान करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टें शामिल हैं, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में गाँवों के अध्ययन का संचालन कर रहे हैं। यह रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में प्रमुख सूचना प्रदाताओं के साथ की गई टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में हरियाणा के नूंह (मेवात) जिले के भादस गाँव के निवासियों की अर्थव्यवस्था, जीवन और आजीविका पर पड़ रहे कोविड-19 महामारी के प्रभाव और देशव्यापी लॉकडाउन का वर्णन है।

भादस गांव हरियाणा के नूंह (मेवात) जिले में स्थित है, जिसकी पहचान कोविड​​-19 के मामलों में हॉटस्पॉट क्षेत्र के रूप में चिन्हित की गई है। इस गाँव का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 726 हेक्टेयर है, और तहसील मुख्यालय, फिरोजपुर झिरका से इसकी दूरी 20 किमी है। भादस एक मुस्लिम बहुल गांव है, और जब मैंने 2018 में इस गांव का सर्वेक्षण किया था तो यहाँ पर कुल 961 परिवारों में से 696 परिवार मेयो जाति के थे। गाँव में लगभग 100 की संख्या में हिन्दू परिवार थे, जिनमें से अधिकांश सैनी जाति से थे। गाँव में कुल मिलाकर 18 जाति समूहों का प्रतिनिधित्व है।

भादस में अधिकांश मेओ परिवारों के पास खेती की अपनी जमीनें हैं। इसके अलावा वे मुस्लिम परिवार जो कि अन्य समुदायों से आते हैं जैसे कि मिरासी, मियाँ, फकीर, जोगी और तेली इत्यादि, वे मूलतः खेतों में मजदूरी पर निर्भर हैं। खेतिहर मजदूरी करने के अलावा ये लोग ट्रक ड्राईवरी, निर्माण मजदूर और विभिन्न छोटे-छोटे व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, जैसे कि सड़कों के किनारे पर चल रहे ढाबों में मेहनत मजूरी करते हैं।

इनमें से कुछ लोग के पास खुद का अपना काम-धंधा है, जैसे कि दर्जी या सड़कों पर ठेले (उदाहरण के लिए रेहड़ी पर बिरयानी बेचने का काम) जैसे व्यवसायों से सम्बद्ध हैं। भादस के अधिकांश सैनी परिवारों के पास भी खेती योग्य जमीनें हैं, जबकि धोबी, भड़भुजा, वाल्मीकि, कोली और कुम्हार जैसी जातियों के परिवार मुख्य रूप से दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। उनका मुख्य रोजगार ट्रक ड्राइविंग का है, जिसके कारण उन्हें लंबे समय तक अपने परिवार से दूर रहना पड़ता है। गाँव में छह जैन परिवार भी हैं, और ये सभी छोटे-मोटे व्यापार पर निर्भर हैं।

भादस में रबी के मौसम में उगाई जाने वाली फसलें मुख्य रूप से सरसों और गेहूं की हैं। खरीफ के सीजन में जोवार और बाजरे जैसी मोटी फसलों की खेती होती है। पानी की कमी वो चाहे सिंचाई के लिए हो या घरेलू उपयोग के लिए हो, इस गाँव की एक प्रधान समस्या रही है। बारिश की कमी से अक्सर यहाँ सूखे जैसी हालात बने रहते हैं। रबी सीजन में सरसों की फसल यहाँ की सबसे पसंदीदा फसल है क्योंकि इसमें गेहूं की तुलना में पानी की जरूरत कम ही पड़ती है। जिन खेतों में सिंचाई की सुविधा नहीं है, उनमें रबी के सीजन में मसूर की खेती भी की जाती है। हरियाणा के अन्य हिस्सों के विपरीत इस गाँव में खेती-बाड़ी के अधिकतर काम मशीनों के बजाय शारीरिक श्रम के जरिये ही सम्पन्न किये जाते रहे हैं।

गाँव में जो लोग मेरे साथ इस प्रश्नोत्तरी में शामिल थे उन्होंने सूचित किया है कि आजकल भादस में गेहूं की कटाई चल रही है, लेकिन इस सारी प्रक्रिया पर डर के बादल लगातार मंडराते रहते हैं, क्योंकि पुलिस एक जगह पर कई लोगों के इकट्ठा होने की इजाजत नहीं दे रही है। चूंकि हर खेत में खेती का काम काफी कम लोगों से लिया जा रहा है, इसलिये काम निपटने में काफी अधिक समय लग रहा है। किसान इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि वे अभी तक कटी हुई सरसों की फसल तक नहीं बेच पाए हैं। अभी तक साफ़ नहीं हो पाया है कि वे सरसों की बिक्री वे कब तक कर पाएंगे, जबकि साल भर में जो फसलें वे उगाते हैं उसमें यह सबसे अहम फसल होती है।

इस बातचीत में शामिल भूमिहीन किसानों में में से एक ने बताया कि पिछले वर्षों में फसल की कटाई के सीजन में वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ पलवल (हरियाणा) में काम के लिए जाया करते थे। कटाई के काम में हमें पैसे के बजाय अनाज (आमतौर पर परिवार को प्रति एकड़ पर 1.6 से लेकर दो क्विंटल अनाज और उसी मात्रा में पुआल) के रूप में भुगतान किया जाता है। इस प्रकार सारा परिवार मिलकर गेंहूँ की कटाई के सीजन में करीब 50 मन (20 क्विंटल) अनाज कमा लेता है, जो सारे परिवार के साल भर के खाने के लिए पर्याप्त हो जाता है। उसी तरह मजदूरी के रूप में उन्हें जो गेहूं का भूसा मिलता है वो भी आमतौर पर परिवार की दो भैंसों को लगभग सात महीने तक खिलाने के लिए पर्याप्त रहता है। लेकिन इस बार इस सीजन में बाहर जाने के हालात नहीं बनने की वजह से उनके परिवार को अब साल भर के लिए गेहूं और पुआल खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।

इस लॉकडाउन के कारण गाँव में जिनके पास मवेशी हैं, उनके लिए अपने मवेशियों के लिए चारा खिला पाना बेहद कठिन हो गया है। चूँकि पिछले साल की फसल की कटाई से जो भूसी प्राप्त हुई थी, वो खत्म हो चुकी है इसलिये अधिकांश परिवारों को आज के दिन गाँव के बाहर से भूसी खरीदनी पड़ रही है। इसके अलावा उन्हें बाजार से अन्य प्रकार के पशु आहार भी खरीदने होते हैं, जैसे कि तिलकुट और कपास के बीज। ऊपर जिन उत्तरदाता का उल्लेख किया गया है, उनका कहना है कि उनके पास भूसे का जो स्टॉक है वह सिर्फ चार दिन का बचा है और  चूंकि मवेशियों को खिलाने के लिए और अधिक भूसी खरीद पाने की उनकी सामर्थ्य नहीं बची, इसलिये उसे कटाई के बाद खेतों में छोड़ दिए गए गेहूं के भूसे को झाड़ू से बीनकर जमा करने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

बेहद उदास स्वर में वे कहते हैं  ऐसे ही हालात रहे तो मेरे बच्चे और मवेशी भूख से मर जाएंगे, और हमें मजबूरन आत्महत्या करनी पड़ेगी।"

नौकरियों का नुकसान 

लॉकडाउन उन लोगों की नौकरियों को लील गया है जो सड़क किनारे चलने वाले रेस्तरां में कार्यरत थे या एनसीआर क्षेत्र में चलने वाली कंस्ट्रक्शन गतिविधियों से जुड़े हुए थे। इनमें से एक उत्तरदाता को बड़कली में एक रेस्तरां में रोजगार मिला हुआ था और वहाँ से उसे प्रति माह 6,000 रुपये मिलते थे। 10 लोगों के परिवार में वही एक मात्र कमाने वाला इंसान है, लेकिन पिछले 22 मार्च से इस काम से उसकी छुट्टी हो चुकी है।

उत्तरदाताओं में एक राजमिस्त्री का काम करते थे, और हर महीने औसतन 6,000 रूपये की कमाई हो जाती थी। लेकिन जबसे लॉकडाउन शुरू हुआ है तबसे वे और साथ के दूसरे मजदूरों के पास कोई काम नहीं है। उनकी दो बहनों की शादी 29 मार्च को होनी तय की गई थी, जिसके लिए सारी खरीदारी हो चुकी थी और शादी की व्यवस्था के लिए 2,000 रुपये एडवांस के तौर पर जमा करा दिए गए थे। लेकिन आख़िरकार इन शादियों को स्थगित करना पड़ा।

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि भादस में कईयों के पास ट्रक ड्राइवर की नौकरी थी, या ये बसों में ड्राईवर, कंडक्टर या हेल्पर्स के रूप में रोजगारशुदा थे। अक्सर ही इन्हें दूर-दराज की यात्रा पर निकलना होता है और आमतौर पर उनकी यह यात्रा सात से दस दिनों की होने के चलते ये लोग अपने घरों से दूर होते हैं। जबकि उनमें से कई लोग तो ऐसे भी हैं जो महीने में सिर्फ एक बार ही अपने घर पहुँच पाने का जुगाड़ बना पाते थे।

एक ट्रक ड्राइवर ने बताया कि उसे मासिक वेतन के तौर पर हर महीने 14,000 रुपये मिलते हैं, जो उसके खाते में हर महीने की 10 तारीख तक जमा करा दिए जाते हैं। पिछले 10 मार्च को उसे अपना अंतिम वेतन मिला था। वह हैदराबाद में था जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी, और वह चिंतित था कि पता नहीं कब वह फिर से अपने बच्चों का मुहँ देख सकेगा। 22 मार्च को उसके मालिक ने उसे घर जाने के लिए कह दिया, लेकिन सफर के लिए उसे कोई पैसे नहीं दिए। वह इस बात को लेकर असमंजस में है कि पता नहीं मार्च के महीने में उसने जो काम किया था, उसका भुगतान उसे कब और कितना मिलेगा।

वह यह भी तय नहीं कर पा रहा है कि एक बार जब यह लॉकडाउन हट जाएगा तो उसका मालिक उसे दोबारा काम पर रखेगा भी या नहीं। उसके परिवार के पास कुल ढाई एकड़ जमीन है, जिसमें से डेढ़ एकड़ जमीन तो उसने अपनी बेटी की शादी में के लिए 3 लाख रुपये का कर्ज हासिल करने के एवज में गिरवी रख छोड़ा था। बाकी के बचे एक एकड़ की खेती योग्य जमीन पर इस परिवार ने रबी के सीजन में गेहूं और सरसों की फसल उगाई थी, जिसपर इस परिवार का गुजारा चल पाना नामुमिकन है। ऐसे में ट्रक चलाने से होने वाली आय पर यह परिवार काफी कुछ निर्भर करता है। यही चिंता उसे खाए जा रही है कि यदि उसका रोजगार हाथ से गया तो उसका परिवार फिर कैसे आगे चल सकेगा।

एक और ट्रक ड्राइवर की भी कुछ ऐसी ही मिलती जुलती कहानी सुनने को मिली। उसकी मासिक आमदनी 20,000 से 25,000 रुपये तक की हो जाया करती थी। उसके पास 10 बीघा (तीन बीघा = एक एकड़) असिंचित खेती की जमीन है। अनुपजाऊ खेत होने के कारण खेती से होने वाली आय ना के बराबर है। उसकी भी चिंता इस बात को लेकर है कि एक बार जब लॉकडाउन हटेगा तो ज्यादा संभावना इस बात को लेकर है कि दोबारा उसे रोजगार न मिले, साथ ही यदि लॉकडाउन और आगे बढ़ा तो नौबत यहाँ तक पहुँच सकती है कि उसका परिवार "भूखों मर जाये"।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा)  के अंतर्गत भादस में कोई काम भी कई सालों से उपलब्ध नहीं है। जिन लोगों ने इस बातचीत में हिस्सा लिया था, उनमें से सिर्फ एक को ही मनरेगा स्कीम के बारे में जानकारी थी। बाकी के सभी लोगों का कहना था कि उन्हें नहीं मालूम कि मनरेगा क्या बला है।

लॉकडाउन के कारण बैंकिंग सुविधाओं तक भी पहुंच नहीं बन पा रही है। भादस गाँव के भीतर कोई बैंक नहीं है, और सबसे पास में इसकी शाखाएं बडकली और नगीना में हैं। इस लॉकडाउन के समय में यातायात की कमी के कारण लोगों के लिए इन बैंक शाखाओं तक जा पाना भी मुश्किल हो रखा है। इसके अलावा इन बैंक शाखाओं में पुलिसकर्मी भी तैनात किये गए हैं, ताकि पैसे की निकासी में यदि भीड़ लग जाये तो उन्हें मार भगाया जा सके। पुलिस के साथ कोई पंगा न हो जाये, इस भय से भी लोग नकदी निकालने के लिए बैंक जाने से बचते हैं। हालाँकि जिन महिलाओं के जन धन खाते हैं, उनके खातों में 500 रुपये आ चुके हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश के लिए इसे निकाल पाना संभव नहीं है। इन परिस्थितियों में कई लोग अपने बैंक खातों से नकदी निकालने के लिए एजेंटों का सहारा लेने को मजबूर हैं। ये एजेंट उनके बैंक खातों से नकदी निकालने और गांव के लोगों को देने के एवज में एक प्रतिशत तक का कमीशन वसूल रहे हैं।

भादस बस स्टैंड के नजदीक कई छोटी-मोटी दुकानें हैं। इन दुकानों से गाँव की जरुरी वस्तुओं की आपूर्ति हो जाया करती थी। उत्तरदाताओं के अनुसार किराने और सब्जी की दुकानों को छोड़कर सभी दुकानें लॉकडाउन लागू हो जाने के बाद से बंद हैं। इसकी वजह से ग्रामीणों को कई अन्य आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी कर पाना नामुमिकन हो चला है। जो सामान उपलब्ध भी हैं इस लॉकडाउन में उनके दाम काफी बढ़ चुके हैं। आलू की कीमत 25 रुपये से बढ़कर 50 रुपये प्रति किलोग्राम, जबकि लौकी की कीमत 20 रुपये से बढ़कर 40 रुपये प्रति किलोग्राम हो चुकी है।

भादस में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की हालत बेहद खस्ता है। इससे पहले के 2018 में भादस में किये गए सर्वेक्षण के दौरान यह देखने को मिला था कि उस दौरान लाभार्थियों को राशन की दुकान से सिर्फ गेहूं मिला करता था, और अक्सर उतना भी नहीं मिलता था, जितने वे हकदार थे। लॉकडाउन और अन्य प्रतिबंधों के मद्देनजर हरियाणा सरकार ने घोषणा की है कि पीडीएस के सभी लाभार्थियों को तीन महीने की अवधि के लिए चीनी, चावल, दाल, और सरसों का तेल मुफ्त में दिया जाएगा। इसके साथ ही पांच किलो अतिरिक्त अनाज इन तीन महीनों के लिए हर महीने मुफ्त में दिया जाएगा। जबकि सभी उत्तरदाताओं का कहना है कि उन्हें इस महीने भी उतना ही अनाज दिया गया, जितना उन्हें पहले से मिलता आया था (और वह भी पैसे चुकाकर), और इसके अलावा उन्हें कुछ नहीं मिला है।

मेवात कोविड-19 के संक्रमण का केंद्र है। इस बात को देखते हुए कि इस गाँव में प्रवासी कामगारों की आमद काफी संख्या में हैं, जो लॉकडाउन की घोषणा के बाद गाँव लौट कर आए थे, इसलिये गाँव में कोविड-19 के परीक्षण पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। ग्राम पंचायत सरपंच ने उन सभी लोगों की सूची बनाई, जो इस दौरान गाँव के बाहर से यात्रा करके पहुँचे थे। उनके लिए नगीना के परीक्षण केंद्र में आरटी-पीसीआर जाँच से गुजरने की व्यवस्था की गई थी। 3 अप्रैल के दिन पुलिस कर्मियों की तीन गाड़ियाँ और डॉक्टरों को लेकर दो-दो वाहन गाँव में पहुँचे थे, और इन्होने घर-घर जाकर इस बात की जाँच की कि किसी में कोविड-19 के लक्षण तो नहीं हैं। गाँव में करीब 200 लोग ऐसे थे जो बाहर से यात्रा कर पहुँचे थे। इन सभी की कोविड-19 के बाबत जाँच चली, और जाँच में अभी तक सभी की रिपोर्ट नेगेटिव आई है। इस बीच गाँव में कीटाणुनाशक छिडकाव भी एक बार हो चुका है।

ट्रक ड्राइवर जिसकी चर्चा पहले भी ऊपर की गई है, जो लॉकडाउन की घोषणा के समय हैदराबाद में था, मालिक द्वारा छुट्टी पर घर लौट जाने के लिए कह दिए जाने के बाद अपने भाई के साथ किसी तरह गाँव पहुँचा था। उसे दो बार कोविड-19  के लिए खुद का परीक्षण कराना पड़ा है। पहली बार तो इसकी व्यवस्था सरपंच द्वारा करा दी गई थी। लेकिन उसे खांसी और सर्दी बनी हुई थी, और वह इस बात को लेकर काफी बैचेन था कि कहीं उसके कारण परिवार के अन्य सदस्यों में भी संक्रमण फ़ैल सकता है, इसलिये अपने खर्चे पर उसने दूसरी बार खुद की जाँच कराई। लेकिन यह उसका सौभाग्य है कि दोनों ही बार उसकी रिपोर्ट नेगेटिव आई है।

 [यह रिपोर्ट गाँव में मौजूद नौ सूचना प्रदाताओं के साथ हुई टेलीफ़ोनिक साक्षात्कार पर आधारित है। इस बातचीत में तीन ट्रक चालक, दो किसान, एक औद्योगिक श्रमिक, एक कमीशन एजेंट, एक रेस्तरां कर्मी और एक निर्माण मजदूर शामिल थे। ये साक्षात्कार 10 अप्रैल से 12 अप्रैल 2020 के बीच संचालित किए गए थे।]

लेखिका ने अपनी पीएचडी इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय, मीरपुर, रेवाड़ी से की है और वे जनवादी महिला समिति, हरियाणा की राज्य संयुक्त सचिव हैं।

अंग्रेज़ी में लिखे मूल आलेख को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

COVID-19 in Rural India-XIV: Children and Cattle Will Die of Starvation, Say Landless Agri Labourers in Haryana’s Nuh

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