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दावोसः 'डब्ल्यूटीओ प्रस्ताव' विश्व आर्थिक मंच से आरंभ

आज जो देश डेटा प्रवाह और उपकरणों के सॉफ़्टवेयर को नियंत्रित करता है वही वैश्विक अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करता है। यह डिजिटल उपनिवेशवाद है।
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अमेरिका, यूरोपीय संघ (ईयू) और इसके सहयोगी "ई-कॉमर्स के व्यापार संबंधी पहलुओं " के लिए 76 देशों के "डब्ल्यूटीओ प्रस्ताव" का हिस्सा हैं। इस प्रस्ताव को दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में लॉन्च किया गया था न कि किसी डब्ल्यूटीओ के मंच पर। डब्ल्यूटीओ में इस "प्रस्ताव" पर कई बार चर्चा हुई साथ ही वर्ष 2017 में ब्यूनस आयर्स में अंतिम मंत्रिस्तरीय बैठक में भी इस पर चर्चा हुई जहां इसे खारिज कर दिया गया था। भारत सहित विकासशील देशों ने तर्क दिया था कि दोहा  एजेंडे पर किसी भी समझौते के बिना डब्ल्यूटीओ किसी अन्य मुद्दों को नहीं उठा सकता है। इसलिए दावोस में डब्ल्यूईएफ के इस विशेष घोषणा को डब्ल्यूटीओ के मंच पर तय नहीं किया जा सकता है!


द ईयू कमिश्नर फॉर ट्रेड सीसिलिया माल्मस्ट्रोम ने दावोस में इस नए व्यापार प्रस्ताव का स्वागत करते हुए असल मामले को दूर कर दिया। यह इलेक्ट्रॉनिक प्रसारण (ईबुक या किसी अन्य डिजिटल सामग्री) पर सीमा शुल्क को स्पष्ट करेगा, साथ ही कई देशों द्वारा जबरदस्ती डेटा स्थानीयकरण और सोर्स कोड आवश्यकताओं के जबरन खुलासे को लागू करने के मामले की भी व्याख्या करेगा।

वैश्विक डिजिटल एकाधिकार की मांग है कि डिजिटल रूप में दिए जाने वाले किसी भी वस्तु को सीमा शुल्क से मुक्त किया जाना चाहिए और उन पर डेटा स्थानीयकरण को मजबूर करने का कोई प्रयास नहीं होना चाहिए। उन्हें वे सभी व्यक्तिगत डेटा रखने में सक्षम होना चाहिए जो अब उन स्थानों पर किसी भी निवासी के पास हैं और जो मेजबान देशों के नियंत्रण से बाहर है।

ज्यादातर लोगों के लिए यह हानि न पहुंचाने वाला लग सकता है। वे पुस्तकें जिन्हें इंटरनेट से तुरंत डाउनलोड किया जा सकता है उस पर सीमा शुल्क कैसे लगना चाहिए? गूगल, फेसबुक और अन्य सेवा प्रदाता जो देश के बाहर हमारा डेटा रखते हैं उससे  क्या समस्या है? कई लोगों के लिए इस तरह के डिजिटल देश या उनके मूल देशों से कथित ख़तरे की तुलना में हमारे अपने देश को ज़्यादा ख़तरा है। 

 सीमाओं के पार व्यापार वस्तु या सेवाओं का होता है। जब वस्तु सीमा पार करता है तो उसे उस देश के करों का भुगतान करना पड़ सकता है जो उसके सीमा में प्रवेश करता है। यह वही गैट है और अब डब्ल्यूटीओ सर्वेसर्वा है जो टैरिफ की वैश्विक प्रणाली को तय करता है जिस पर सभी पक्षों द्वारा सहमति हुई। पत्र, टेलेक्स, ई-मेल का उपयोग कर या ई-कॉमर्स प्लेटफार्मों का उपयोग कर इस व्यापार पर चर्चा क्यों करनी चाहिए जो इस व्यापार की प्रकृति को बदलता है? आखिर में निजी संचार के माध्यम से या डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करके ख़रीदार या विक्रेता के बीच ये अनुबंध कैसे हुआ इस पर विचार किए बिना अंतिम परिणाम वैसा ही है जो पैसे के लिए वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान होता है। तो ऐसे व्यापार के लिए हमें नए नियमों की आवश्यकता क्यों है? इसे डिजिटल ट्रेड या ई-कॉमर्स कहकर इस व्यापार का स्वरुप बदल जाता है?

अब हम डिजिटल वस्तुओं पर लगने वाले शुल्क पर विचार करें। डिजिटल वस्तुओं पर शुल्क क्यों लगाया जाना चाहिए? इसके ख़िलाफ़ तर्क बहुत ही सरल है। यह क्या है जिसके लिए हम भुगतान करते हैं, क्या यह किसी पुस्तक का पन्ना है या इसकी सामग्री है? क्या हम उस प्लास्टिक के लिए भुगतान करते हैं जिस पर संगीत का कोई हिस्सा लिखा है, या संगीत है? दूसरे शब्दों में हम सामग्री के लिए भुगतान करते हैं न कि उस माध्यम के लिए जिस पर पुस्तक, संगीत का कुछ हिस्सा या फिल्म लिखी होती है। सामग्री नहीं बदलती है यद्यपि इसका प्रकार बदलता है। और कोई भी वस्तुएं जिसका लेन-देन किया जाता है उन पर सरकार द्वारा कर लगाया जाता है क्योंकि सरकार को स्वयं चलाने के लिए राजस्व की आवश्यकता होती है। इसमें उसके जनता के लिए कल्याण कार्य भी शामिल है। अगर इस तरह के लेन-देन में वस्तुओं पर कर नहीं लगाया जाता है तो इसका मतलब है कि केवल वही सरकार, इस तरह के लेनदेन पर कर लगा सकती  है जिसके अधीन कंपनी डिजिटल सामग्री की सेवा देती है। दूसरे शब्दों में यह ग़रीब देशों से अमीर देशों के लिए कर राजस्व का एक सरल हस्तांतरण है जहां इनमें से अधिकांश डिजिटल एकाधिकार रहते हैं। ग़रीब देशों के ख़र्च पर अमीर देशों के लिए मुक्त व्यापार का समर्थन किया जाए। 

हमारी जानकारी के बिना डेटा को प्राप्त कर लिया गया। जो डेटा ले जाया गया है उसकी मांग की गई। गूगल और फेसबुक डेटा देना नहीं चाहते है। उनका कहना है कि वे भारतीय कंपनियां नहीं हैं और इसलिए वे भारतीय क़ानून के अधीन नहीं आते हैं। उनकी स्थिति यह है कि वे भारतीय विज्ञापनदाताओं से होने वाली आय के बावजूद भारत में करों का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं हैं।

जैसे जैसे सॉफ्टवेयर हमारे जीवन में तेज़ी से व्यापक होता जा रहा है ऐसे में हमें पता नहीं है कि सॉफ्टवेयर वास्तव में क्या करता है। क्या यह रोज़ाना हमारी जासूसी कर रहा है? क्या इसके पास ऐसे सॉफ्टवेयर की आपूर्ति करने वाली कंपनी के लिए गुप्त दरवाज़ा है? इसलिए ऐसे सॉफ्टवेयर की जांच नहीं होनी चाहिए जो किसी देश में सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में इस्तेमाल होते हैं?

हम अब जानते हैं कि फेसबुक के पास उसके ऐप में ऐसे जासूसी वाले सॉफ्टवेयर थे जिसका लोग अपने मोबाइल फोन में इस्तेमाल करते थें। हम यह भी जानते हैं कि गूगल अपने एंड्रॉइड ऑपरेटिंग सिस्टम के ज़रीए अपने ग्राहकों की जासूसी करता है। इन कंपनियों का हर समय हम पर 360 डिग्री नज़र है। ये कंपनियां हमारी हर गतिविधियों को जानती हैं। हमारी बातचीत और हमारी क्रियाकलाप पर इनकी पूरी नज़र है। वे लोग जिन्होंने अमेरिका और अन्य चुनावों को हैक करने के कैंब्रिज एनालिटिका मामले पर नज़र बनाए हुए थें वे जानते हैं कि फेसबुक और गूगल क्या कर सकता है। कैंब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक से कुछ डेटा चुरा लिया था; फेसबुक के पास काफी ज़्यादा डेटा है और हमें अधिक गहराई से जानता है। वही गूगल करता है। उदाहरण के लिए हमारे चुनावों में वे क्या भूमिका निभा रहे हैं? और अगर पैसा उन्हें सबकुछ करने के लिए प्रेरित करता है तो बीजेपी के पास किसी भी अन्य पार्टी की तुलना में काफी अधिक है। अगर चुनावी बॉन्ड कोई भी संकेतक हो तो बीजेपी को 95 फीसदी इलेक्शन बॉन्ड की रकम मिली, जबकि बाकी सभी पार्टियों को कुल मिलाकर सिर्फ पांच फीसदी मिले! क्या ऐसी सभी गतिविधियां मेजबान देश के कानूनों और नियमों द्वारा बिना रुकावट होना चाहिए? या इस तरह की गतिविधियों को विनियमित किया जाना चाहिए बस यह जान कर आरंभ करना कि वैश्विक एकाधिकार भारतीय लोगों पर कौन सा डेटा रखता है?


निस्संदेह डेटा स्थानीयकरण के साथ साथ इसका एक दूसरा पहलू भी है। यदि सरकार अपने नागरिकों के किसी भी डेटा (कोई भी डेटा जो हमारी गोपनीयता का उल्लंघन करता है) की मांग कर सकती है तो हमें अपनी स्वतंत्रता को लेकर एक बड़ा जोखिम है। लगता है कि यही वो चीज है जिसको सरकार मध्यवर्ती नियमों में बदलाव के नए प्रस्ताव के अधीन लाना चाहती है जिस पर इस समय सार्वजनिक विमर्श चल रहा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि राष्ट्रीय सरकारों से इसके रोक के लिए बहस करते हुए हम अपना डेटा अमेरिकी डिजिटल एकाधिकार और अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) को सौंप दें।

सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि अगर डेटा वास्तव में नई ज्वलनशील वस्तु है जैसा कि विश्व आर्थिक मंच ने कुछ समय पहले तर्क दिया था जो नई डिजिटल अर्थव्यवस्था में इस ज्वलनशील वस्तु का मालिक है तो निश्चित तौर पर ये बड़ा मुद्दा है। इस ज्वलनशील पदार्थ से विभिन्न लक्षण का उपयोग कर ग्रेट ब्रिटेन ने एक ऐसे साम्राज्य पर शासन किया जिसका सूरज कभी नहीं डूबा केवल इसलिए कि उसने विचारों पर शासन किया। आज जो कोई भी डेटा प्रवाह और उपकरणों के सॉफ़्टवेयर को नियंत्रित करता है वह वैश्विक अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करता है। यह डिजिटल उपनिवेशवाद का दौर है।


अमेरिका, यूरोपीय संघ (ईयू) और इसके सहयोगियों के नेतृत्व में इस प्रस्ताव में चीन और रूस की भागीदारी ने लोगों को चौंका दिया है। हालांकि यह समझ में आता है कि अमेरिका जो शीर्ष सात डिजिटल एकाधिकार का गृह है वह तथाकथित ई-कॉमर्स या डिजिटल व्यापार में रुचि रखेगा। हालांकि चीन की भागीदारी जो कि अमेरिका के नेतृत्व वाले व्यापार युद्ध का दूसरा पहलू है उसकी व्याख्या करना मुश्किल हो सकता है। हालांकि इस डिजिटल एकाधिकार के खेल में चीन भी बहुत अहम है क्योंकि 10 शीर्ष डिजिटल एकाधिकार की वैश्विक सूची में दो चीनी कंपनियां हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि चीन भी इन वार्ताओं में शामिल होने को तैयार है। यदि डिजिटल दुनिया को दावोस में विभाजित किया जाना है तो वे इसके बाहर रहने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं।


विश्व व्यापार संगठन प्रणाली से अधिकतम लाभ हासिल करने के बाद अमेरिका अब अपने नियम-आधारित प्रणाली को एक बाधा के रूप में देखता है। इसके व्यापार युद्ध: चीन और भारत सहित विभिन्न देशों पर दंडात्मक करों की घोषणा करते हुए, यह मांग करते हुए कि हर देश को अमेरिका के साथ अपने व्यापार को संतुलित करना चाहिए भले ही अमेरिका एक प्रमुख विनिर्माण शक्ति न हो, इन सभी ने डब्ल्यूटीओ के नियमों का उल्लंघन करते हुए शिल्प में मदद की। इसने उन जजों को नियुक्त करने से इनकार कर दिया है जो सात सदस्यीय डब्ल्यूटीओ के अपीलीय निकाय का निर्माण करते हैं। इसने इसकी मौजूदा संख्या को घटाकर 3 कर दिया है जिसके नीचे यह उपयुक्त नहीं हो सकता है।


 

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