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फ़्रांस के इम्मानुएल मैक्रॉन की सोच के पीछे का सच

संक्षेप में कहें तो मैक्रॉन आजकल पूरी तरह से पेसोपेश में फँसे हुए राजनीतिज्ञ हैं। उनका मतदाता उन्हें छोड़ रहा है, और उन्हें लगता है कि धुर-दक्षिणपंथ की खेल पुस्तिका से एक पन्ना निकालकर वे अपने राजनैतिक कैरियर को बचाने में कामयाब हो सकते हैं।
फ़्रांसिसी राष्ट्रपति इम्मानुएल मैक्रॉन (मध्य) 20 अक्टूबर 2020 के दिन अलगाववाद के खिलाफ संघर्ष को लेकर भाषण देने के लिए बोबिगनी, पेरिस में पहुंचे थे।
फ़्रांसिसी राष्ट्रपति इम्मानुएल मैक्रॉन (मध्य) 20 अक्टूबर 2020 के दिन अलगाववाद के खिलाफ संघर्ष को लेकर भाषण देने के लिए बोबिगनी, पेरिस में पहुंचे थे।

मोदी सरकार ने “पहले गैर-पश्चिमी” आवाज के तौर पर ख्याति बटोरने का काम किया है जो फ़्रांस के राष्ट्रपति इम्मानुएल मैक्रॉन द्वारा अपने देश में हालिया भयावह हत्याओं पर दिए गए बयान के समर्थन में सामने आई है। यह अंतर खुद को इतने अच्छे से प्रस्तुत करता है कि इसे भूल पाना आसान नहीं है। राज्यसभा टीवी ने फ़्रांस में “इस्लामी आतंकवाद” की आलोचना कने के लिए एक कार्यक्रम निर्धारित कर रखा था।

धार्मिक कट्टरता अपनेआप में प्रतिशोधी है। भारत को किसी भी अन्य देश की तुलना में इसके बारे में बेहतर मालूम होना चाहिए, और फ्रांस में जो कुछ हो रहा है उसे समझना कोई मुश्किल बात नहीं है। भारत में व्यापक स्तर पर फैली सामाजिक बीमारियों के समान ही फ़्रांस की स्थितियाँ में एक साम्यता नजर आती है।

फ़्रांसिसी समाज में भी इस्लामोफोबिया अपने उठान पर है। वरिष्ठ फ़्रांसिसी मंत्रियों की ओर से पतली-धीमी आवाज में मुस्लिम विरोधी बयानबाजी, अकड़ और छींटाकशी यहाँ आये दिन की बात हो चुकी है। हमलावरों ने यदि बुर्का पहनी दो मुस्लिम महिलाओं पर एफिल टावर के समीप चाकुओं से हमला कर दिया है तो यह अब खबर नहीं बन पाती। साफ़ तौर पर मुस्लिम विरोधी दृष्टिकोण से इस्लामोफोबिया को तरजीह मिलती है और सामाजिक तनाव फैलता है, क्योंकि फ़्रांस भी भारत की तरह ही बहु-जातीय समाज के तौर पर विद्यमान है।

अपने 2017 के ग्लोबल एटिट्यूड सर्वे में प्यू रिसर्च सर्वे ने पाया था कि फ़्रांस की 54.2% आबादी खुद को ईसाई मानती है, जिसमें से 47.4% कैथोलिक चर्च से सम्बद्ध हैं। इसके बाद इस्लाम धर्म फ़्रांस में दूसरा सबसे अधिक प्रसार में है। ईसाइयों की संख्या मोटे तौर पर 3.8 करोड़ होगी, जबकि मुसलमानों की संख्या तकरीबन 55 लाख के आस पास होनी चाहिए। [लगभग 2.1 करोड़ फ़्रांसिसी नागरिक हैं जो खुद को किसी भी धर्म से जोड़कर नहीं देखते।]

हालाँकि ईसाई धर्म जहाँ फ़्रांस में सबसे अधिक प्रतिनिधित्व वाला धर्म है, इसके बावजूद ईसाइयों के मन में एक गहरे असंतोष का भाव है जो कि एक किस्म की भयग्रस्त मानसिकता से ग्रसित है जो इस्लामोफोबिया को खाद-पानी देने में मदद पहुंचाने का काम करता है। जिन देशों में लोकतंत्र अपने वजूद में है, वहाँ पर ट्रेड यूनियनों, गिरिजाघरों, स्थानीय अखबारों और अन्य सार्वजनिक संस्थानों की यह विशेष जिम्मेदारी बन जाती है कि वे सामाजिक एकरूपता और नागरिक भागीदारी को बढ़ावा देने के साथ-साथ एक जिम्मेदार नागरिक होने की जिम्मेदारियों की भावना को विकसित करने का प्रयास करें, लेकिन फ़्रांस में यह सब नहीं हो रहा है।

सामाजिक तनावों में बढ़ोत्तरी के पीछे की वजह असमान विकास और सामाजिक गैर-बराबरी की बढ़ती खाई के चलते भी है। समाज को चरमपंथी बनाने में इन्टरनेट ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का काम किया है। और सबसे महत्वपूर्ण हाल के दशकों में धर्मनिरपेक्षता की जो राष्ट्रीय विचारधारा थी, वह समग्रता में कमजोर हुई है। इसके साथ ही फ़्रांस की राजनीतिक और बौद्धिक परम्पराएं भी कमजोर हुई हैं।

ऐसे में मैक्रॉन की उपस्थिति होती है। वर्तमान तबाही से कुछ दिन पहले ही 2 अक्टूबर के दिन अपने एक बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय संबोधन में मैक्रॉन ने फ़्रांस के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए जिस योजना का अनावरण किया था उसमें उन्होंने इसे “इस्लामी कट्टरपंथ” का नाम दिया था।

मैक्रॉन ने कहा था “इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो आज दुनिया भर में संकट में है, हम इसे सिर्फ अपने देश में ही ऐसा नहीं देख रहे हैं।” उनकी बात का मूल मर्म यह था कि उनकी सरकार फ़्रांस में शिक्षा और सामाजिक क्षेत्र में धर्म को बाहर किये जाने की नई मुहिम को लेकर “कोई रियायत नहीं” बरतने जा रही है।

उन्होंने घोषणा की कि दिसम्बर माह में सरकार एक विधेयक पेश करने जा रही है, जो 1905 के कानून को मजबूती प्रदान करने का काम करेगी जिसने फ़्रांस में आधिकारिक तौर पर राज्य और चर्च को अलग किया था। मैक्रॉन ने कहा कि इन नए उपायों का उद्येश्य फ़्रांस में “कट्टरपंथ” की बढ़ती समस्या से मुकाबला करने और “एक साथ रहने की हमारी क्षमता” में सुधार लाने को लेकर है।

देखने में यह राज्य और धर्म को अलग करने की सर्वोत्तम परम्पराओं के अनुरूप एक बेहतर चीज नजर आ सकती है। लेकिन इसके पीछे की दुर्भावना तो इसके विस्तार में निहित है। इस प्रकार, जहाँ “एकजुट फ़्रांस के लिए धर्मनिरपेक्षता एक सीमेंट के तौर पर काम करता है” और मैक्रॉन का नया कानून लोगों को किसी भी धर्म पर आस्था रखने की छूट देता है, वहीं धार्मिक जुड़ाव के बाहरी प्रदर्शन को लेकर स्कूलों और सार्वजनिक सेवा के क्षेत्रों में इसे प्रतिबंधित भी करता है! (वैसे देखें तो, फ़्रांस के स्कूलों और सरकारी कर्मचारियों को अपने कार्य स्थलों पर पहले से ही हिजाब पहनने पर प्रतिबन्ध लागू हैं।)

मैक्रॉन ने दावा किया था कि वे फ़्रांस में इस्लाम को विदेशी प्रभावों से मुक्त होते देखना चाहते हैं, इसके लिए वे मस्जिदों के वित्तपोषण की निगरानी के काम में और सुधार करने वाले हैं। उन स्कूलों और संगठनों की बारीकी से जाँच की जायेगी, जो विशिष्ट तौर पर केवल धार्मिक समुदायों की सेवा में मशगूल हैं।

वास्तव में देखें तो मैक्रॉन ने घोषणा की कि फ़्रांस एक बार फिर से अपने मुस्लिम अल्पसंख्यक के साथ अपने रिश्तों के मूल्यांकन के बारे में सोच रहा है, जोकि यूरोप में सबसे बड़ी तादाद में फ़्रांस में बसते हैं।

मुस्लिम समुदाय के बीच में मैक्रॉन की टिप्पणी ने उग्र प्रतिक्रिया पैदा करने का काम किया। एक प्रमुख फ़्रांसिसी मुस्लिम कार्यकर्त्ता ने अपने ट्वीट में लिखा: “अभी तक मुस्लिमों के दमन का खतरा बना हुआ था, जो अब एक वादे में तब्दील हो चुका है। अपने एक घंटे के भाषण में मैक्रॉन ने धुर दक्षिणपंथियों, मुस्लिम-विरोधी वामपंथियों के हौसलों को बुलंद करने का काम किया है, और वैश्विक महामारी के बावजूद मुस्लिम छात्र-छात्राओं पर घरेलू स्कूली शिक्षा पर काफी हद तक पाबंदी लगाने की बात कहकर उनके जीवन को खतरे में डाल दिया है।”

मैक्रॉन, चार्ली हेब्दो नामक व्यंग्यात्मक साप्ताहिक पत्रिका के पुराने पेरिस ऑफिस के बाहर एक आदमी द्वारा माँस काटने वाले चाक़ू से दो लोगों पर हमला किये जाने की घटना के एक सप्ताह बाद बोल रहे थे। इस हमले को लेकर सरकार की ओर से एक “इस्लामी आतंकवाद” की करतूत के तौर पर निंदा की गई थी!

मैक्रॉन के लिए इसमें क्या है? संक्षेप में कहें तो मैक्रॉन आज के दिन पूरी तरह से पेसोपेश में घिरे राजनीतिज्ञ नजर आते हैं। उनके मतदाता उनका साथ छोड़ रहे हैं और उन्हें लगता है कि वे अपने राजनीतिक जीवन को धुर-दक्षिणपंथ के एक पन्ने के सहारे बचाने में कामयाब हो सकते हैं। मैक्रॉन ने जो वायदे किये थे उसमें वे विफल रहे हैं, खासतौर पर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के मामले में। बड़े पैमाने पर सड़कों पर विरोध प्रदर्शन और सार्वजनिक क्षेत्र की कुछ बड़ी हडतालों ने इस बात को साबित कर दिया है कि असंतोष अपने चरम पर पहुँच चुका है।

तथाकथित गिलेट्स जोंस (येलो वेस्ट्स) विरोध प्रदर्शनों ने इस अलगाव की गहराई को उजागर करने का काम किया था। यहाँ तक कि मैक्रॉन को विरोध प्रदर्शनों को शांत करने के लिए शसस्त्र बलों तक को आदेश देना पड़ गया था। 

पिछला साल पेंशन सुधारों, तेल की कीमतों में वृद्धि, पुलिसिया हिंसा और बेरोजगारी जैसे मद्दों पर होने वाले विशाल प्रदर्शनों के बीच ही गुजरा। इस साल का अंत फ्रांसीसी इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी सार्वजनिक परिवहन की हडतालों में जाकर हुआ, जिसने सारे देश को पंगु बना डाला था।

2017 में जब मैक्रॉन राष्ट्रपति के तौर पर चुनकर आये थे तो उनकी रेटिंग तब लगभग 60 प्रतिशत थी, जिसे हाल की उठापटक ने आधा कर दिया था। जून में हुए पिछले नगरपालिका के चुनावों में उनकी पार्टी को करारी हार का मुहँ देखना पड़ा था। अब जैसे-जैसे राष्ट्रपति चुनावों के लिए अप्रैल 2022 की तारीख नजदीक आती जा रही है, मैक्रॉन की की बदहवासी बढती जा रही है।

अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन को हासिल करने के लिए मैक्रॉन की ओर से इस्लामोफोबिया की लपटों को हवा देने के हताश प्रयास जारी हैं - विशेष तौर पर धुर दक्षिणपंथ की कीमत पर। मैक्रॉन को उम्मीद है कि धुर-दक्षिणपंथ के समर्थकों को प्रेरित करने के लिए इस्लामोफोबिया को एक कुंजी के बतौर इस्तेमाल करना बेहद कारगर साबित हो सकता है।

मैक्रॉन को इस मामले में सफलता भी मिल रही है। राजनीतिक परिदृश्य में मौजूद सभी मीडिया से जुड़े विशेषज्ञों और राजनीतिज्ञों ने हाल ही में एक सुर में अपने दृढ विश्वास को जाहिर किया है कि फ़्रांसिसी “मूल्य” आज खतरे में हैं, और इसके खिलाफ जंग में आम आबादी को एकजुट किये जाने की जरूरत है।

इस मूड को वरिष्ठ राजनीतिज्ञ मेयेर हबीब, जो नेशनल असेंबली में विदेशी मामलों की समिति के उपाध्यक्ष हैं, के एक ट्वीट से सबसे सटीक तौर पर समझा जा सकता है, जिसमें वे “नागरिकों को हथियारबंद करने” के लिए कहते हैं, जिसे उन्होंने फ्रांसीसी राष्ट्रगान के एक उत्तेजक वाक्यांश से उद्धृत किया है।

हवा में बेहद उत्तेजक मांगों की अनुगूँज है - कि इस “युद्ध” में मुस्लिम प्रवासियों की नागरिकता को रद्द करने के साथ, प्रथम नाम में फ्रेंच को अपनाने की बाध्यता, मृत्यु दंड की बहाली इत्यादि माँगें शामिल हैं।

अब इस प्रकार की लड़ाकू बयानबाजी ने राष्ट्रपति के चुनावों में मैक्रॉन के मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंदी, समाजवादी नेता जीन-लुक मेलेंकान, जो फ्रांस इन्सौमिसे (अविजित फ़्रांस) पार्टी के मुखिया हैं, को रक्षात्मक स्थिति में ला खड़ा कर दिया है। उनके खिलाफ कीचड़ उछालने का काम शुरू हो चुका है, क्योंकि उनकी ओर से फ्रांसीसी समाज में मुसलमानों को कलंकित किये जाने को लेकर असंतोष के स्वर सुनने को मिले थे।

वामपंथ को कमजोर करने के लिए उन्हें “इस्लामवाद” से नत्थी करने की जुगत में, जो कि फ़्रांसिसी बहुतायत तबके के मन में बेहद नकारात्मक धारणा बनाने में कारगर हो सकता है, मेलेंकोन को “इस्लामपरस्त-वामपंथी” के तौर पर चित्रित किया जा रहा है। इस प्रकार की चारित्रिक हत्या वाले अभियान से मैक्रॉन के पक्ष में हवा बनाने में मदद मिल सकती है।

लेकिन मैक्रॉन के प्रति निष्पक्ष होते हुए कह सकते हैं कि वे तो सिर्फ एक लोकप्रिय लहर की सवारी गाँठना चाहते हैं, क्योंकि पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से फ़्रांसिसी राज्य अपने मुस्लिम नागरिकों के साथ खुद के रिश्तों को लेकर एक अंतहीन दुश्चक्र में सिर्फ गोल गोल चक्कर काट रहा है। सुप्रसिद्ध फ्रेंच समाजशास्त्री और मीडिया आलोचक अली साद ने मास मीडिया के प्रभाव पर ध्यान केन्द्रित करते हुए हाल ही में लिखा है,

“[फ़्रांसिसी] राज्य अभी तक इस बात को स्वीकार नहीं कर सका है कि इस्लाम भी फ़्रांस का ही एक धर्म है, और यह कोई बुद्धिमत्ता नहीं है कि सुनियोजित तौर पर फ़्रांसिसी मुसलमानों को उनके नस्लीय अथवा भौगौलिक उत्पत्ति की याद दिलाई जाए या संदर्भित किया जाए। और यह कि फ़्रांसिसी मुसलमानों के जो भी मुद्दे हैं वे आन्तरिक तौर पर फ़्रांसिसी मुद्दे हैं।”

राज्य इस तथ्य को नहीं पहचानना चाहता कि ऐसे कोई अनुभवजन्य प्रमाण नहीं हैं जो ये दर्शाते हों कि किसी हिंसात्मक उग्रवाद के पीछे धर्म ने प्राथमिक तौर पर उत्प्रेरक की भूमिका अदा की हो, और यह कि कट्टरपंथी होना एक सामाजिक परिघटना है....नौकरियों और आवास को लेकर जो भेदभाव देखने में नजर आता है, उसके साथ-साथ पुलिसिया बर्बरता, गरीबी और रोजमर्रा के जीवन में नस्लभेद की रोकथाम को लेकर राज्य की ओर से शायद ही कोई कदम उठाये गए हों। इसके बावजूद राज्य की ओर से फ्रेंच मुस्लिम समुदाय को खुद को मुख्यधारा से “जुड़ाव” में असफल होने के लिए कोसा जाता है या यहाँ तक कि “अलगाववाद” का भी इल्जाम मढ़ा जाता है। इसने अभी तक सुरक्षा-केन्द्रित दृष्टिकोण पर भरोसा बनाये रखा है, जिसमें सुव्यवस्थित तौर से इस्लाम को एक बुराई के तौर पर माना जाता है जिससे समाज को मुकाबला करना है और मुसलमानों को जीवन जीने के तौर तरीकों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मूलभूत अधिकारों के प्रति एक खतरे के रूप में देखा जाता है।”

संक्षेप में कहें तो फ़्रांसिसी राज्य ने खुद को मुस्लिम तबके की आबादी से अलग कर रखा है, और वह उनके साथ किसी बाहरी के तौर पर बर्ताव करने पर आमादा है। इस बात को स्वीकार करने से इंकार किया जाता है कि किसी भी बहुलता वाले समाज में बहुसंस्कृतिवाद उसके अंदर जन्मजात तौर पर मौजूद रहता है और उसे उसी प्रकार से अंगीकार किये जाने की जरूरत है। (यही वह स्थान है जहाँ ब्रिटेन फ़्रांस को लज्जित कराता दिखता है।)

कुलमिलाकर देखें तो मोदी सरकार को बाड़े में किसी ध्वजवाहक के तौर पर उछलकर आने की जरूरत नहीं थी, जहाँ मैक्रॉन ने खुद को तैनात कर रखा है। यह बिना मतलब के भारत के गहरे जड़ जमाये बीमारी की ओर सबका ध्यान आकर्षित कराने जैसा कदम है। यह मानकर चलना पूरी तरह से बचकाना होगा कि फ़्रांस में मौजूदा संकट असल में “फ़्रांसिसी संस्करण वाली पूर्ण स्वतन्त्रता” को लेकर चल रहा है (भले ही उसका मतलब कुछ भी हो।)

भारतीय परिदृश्य से इसकी साम्यता काफी कुछ मिलती जुलती है: जहाँ एक ख़ारिज कर दिए गए राजनेता द्वारा अपनी वापसी और एक बार फिर से चुने जाने के लिए एक संभाव्य राह को चुनने का प्रश्न है- और वह भी एक ऐसे अराजक दौर में जब चारों ओर महामारी का बोलबाला हो। मैक्रॉन जिस प्रकार से कायरतापूर्ण राजनीति को प्रयोग में ला रहे हैं, उसे देख पाने में अक्षमता हमें कट्टरता के प्रति सहिष्णु बनाती है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Deconstructing France’s Emmanuel Macron

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