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दिल्ली दंगों के दौरान मिले एक पैर का कोविड के दौरान अंतिम संस्कार

दिल्ली के एक दंगा पीड़ित की बेटी को कुछ राहत तो मिली है, लेकिन उसकी परेशानियां भी शुरु हो गयी हैं।
delhi riot

जिस समय प्रवासी अपने घर की तरफ़ चलते चले जा रहे हैं और मध्यम वर्ग कोविड-19 से मरने के डर से अपने परिवारों के साथ घरों में बंद हैं, उसी दौर में दिल्ली से 45 किमी दूर पिलखुवा गांव के रहने वाले लोग एक इंसान के अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए बड़ी संख्या में घर से निकल पड़े हैं। यह पैर 58 वर्षीय अनवर कसार का है, जो पूर्वोत्तर दिल्ली के शिव विहार इलाक़े में एक छोटे से घर में अकेले रहते थे।

अनवर अपनी बकरियों का पालन-पोषण करते थे और आजीविका के लिए ठेला-गाड़ी किराये पर लगाते थे। इनकी जिंदगी एक आम मेहनतकश इंसान की तरह ठीक-ठाक गुजर रही थी।  25 फ़रवरी को पूर्वोत्तर दिल्ली में दंगे भड़क उठे। उस दिन सुबह 11 बजे अनवर अपनी बेटी गुलशन के साथ फ़ोन पर बातचीत कर रहे थे, जो पिलखुवा स्थित अपने ससुराल में पति और आठ- नौ साल के दो बच्चों के साथ रहती हैं। जब उसने अपने पिता की तरफ़ से सुनाई पड़ने वाली चीख़-पुकार के बारे में पूछा, तो अनवर ने अपनी बेटी को बताया था कि बहुत सारे "बाहरी" नौजवान शिव विहार में घुस आये हैं और मुसलमानों की संपत्तियों को आग के हवाले कर रहे हैं। गुलशन याद करती है,"मैंने उन्हें वहां से निकल जाने के लिए कहा, लेकिन उन लोगों ने उन्हें ऐसा करने का मौक़ा ही नहीं दिया। उन्मादी भीड़ ने उन्हें मौक़े पर ही मार डाला''।

अपने पिता के साथ हुई उस बातचीत के बाद गुलशन का 53-दिन का मुश्किल भरा भाग-दौड़ शुरू हुआ। उसी दिन 25 फ़रवरी को गुलशन के चाचा सलीम ने पुलिस को बार-बार फ़ोन किया था। चाचा सलीम अनवर की मौत का चश्मदीद गवाह था। पुलिस ने शुरू में उसकी कॉल का जवाब तो दिया था, लेकिन जल्द ही जवाब देना बंद कर दिया था। 26 फ़रवरी को गुलशन को सलीम से अपने पिता की मौत की ख़बर मिली; लेकिन यह सिर्फ़ एक डीएनए परीक्षण से ही पता चल पाया कि गुलशन उसी अनवर की बेटी है। यह रिपोर्ट ठीक एक महीने पहले यानी 16 अप्रैल को एक वक़ील द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में अपनी ओर से याचिका दायर करने के बाद आयी थी। तब तक पूरा देश कोरोनावायरस के आतंक की कहर में आ चुका था और लॉकडाउन लागू कर दिया गया था।

26 फ़रवरी से शुरू होकर अगले एक महीने तक गुलशन अपने पिता के अवशेषों को वापस पाने की कोशिश में हर दिन दिल्ली का चक्कर लगाती रही थी। वह कहती हैं, "मुझे महीने भर तक हर रोज़ पिलखुवा से दिल्ली जाना पड़ता था, क्योंकि कोई भी हमें साफ़-साफ़ नहीं बता रहा था कि उनके [अनवर के] शरीर का अवशेष हमें क्यों नहीं दिया जा रहा है। वे हमें हर दिन ‘कल’ आने के लिए कहते थे, इसलिए हम रोज़-रोज़ चक्कर लगाते रहे।" इस जद्दोजहद में गुलशन का एक पड़ोसी, उसकी सहेली और उसके मामा-मामी उसके साथ होते थे।

लेकिन लॉकडाउन में सफ़र पर लगे प्रतिबंधों के बाद वह एक बार भी नहीं जा सकी। दिल्ली, जहां अदालतें, पुलिस और उसके पिता के शरीर के अवशेष थे, और उत्तर प्रदेश, जहां वह रहती हैं, दोनों की सीमाओं को सील कर दिया गया था। यहां तक कि पिलखुवा की सड़कों-गलियों के भीतर भी आवाजाही को गंभीर रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया था और वह प्रतिबंध आज तक जारी है। ऐसे में शिव विहार के पास करावल नगर के पुलिस स्टेशन में एक विसरा बॉक्स में उसके पिता का अवशेष पड़ा हुआ था। अवशेष के तौर पर अनवर का केवल एक पैर मिला था। वक़ील न अवशेष के नाम पर बचे सिर्फ़ एक पैर को निचली अदालत की अनुमति से सुरक्षित करने में मदद की। अनवर का पैर अनवर के घर में दंगाइयों द्वारा आग लगाये जाने के बाद बच गया था। इसके बाद, गुलशन ने पिलखुवा की स्थानीय पुलिस से दिल्ली जाने की अनुमति मांगी, लेकिन उन्होंने उसकी कोई मदद नहीं की। रविवार की सुबह 1 मई को गुलशन झटपट राजधानी गयी और फिर लौट आयी।

पिलखुवा के एक पड़ोसी द्वारा चलायी गयी एक छोटी सी सफ़ेद मारुति ज़ेन एस्टेलो में लकड़ी के दो फ़ीट चौड़े और ऊंचे बक्से में संग्रहित अपने पिता के पैर के अवशेष साथ ले आयी। इस अवशेष की तरफ़ देखती हुई गुलशन कहती हैं, “हमारे बच्चों के भोजन और शिक्षा सहित हमारे सभी ख़र्च  में मेरे अब्बू मदद करते थे। मुझे नहीं समझ में आता कि अब हम कैसे जियेंगे।” चार साल पहले काम के दौरान एसिड के छलक जाने की एक घटना में उसके शौहर की दोनों आंखों की रोशनी चली गयी थी और अब वह कोई काम करने लायक़ नहीं बचा है।

पूरा देश कोविड-19 महामारी से ज़िंदा रहने को लेकर भले ही चिंतित हों,मगर जब गुलशन रविवार को अपने पड़ोस में गयी, तो लोग इकट्ठा होने लगे। अपने ससुराल वाले घर के बाहर उसने अपने पिता के पैर के अवशेष रखे बॉक्स को एक नीले और सफ़ेद बेड कवर से ढकी एक चारपाई पर रखा। यह बॉक्स कुछ पल के उसी हालत में पड़ा रहा,जैसे वह पिछले कई दिनों से एक "केस प्रॉपर्टी" के तौर पर एक पुलिस मालख़ाने में संग्रहीत रखा रहा था।

अनवर की मौत कैसे हुई, इसका पता पड़ोसियों को है। पड़ोसियों को पता है कि दिल्ली हिंसा के दौरान उन्हें एक भीड़ ने मार डाला था, जिससे एक ही झटके में गुलशन के परिवार को जीवन-यापन के साधन से वंचित कर दिया था। उन्हें मालूम है कि लॉकडाउन के चलते गुलशन के पिता का अंतिम संस्कार नहीं हो पाया था। पिलखुवा में गुलशन का एक पड़ोसी, तोमर मोहम्मद कहते हैं, "आख़िरकार अनवर की बेटी को कुछ तो राहत मिली। अब जबकि वह अपने पिता के अवशेषों को ले आयी है, तो वह उसे अंतिम विदाई दे सकेगी।”

तोमर कहते हैं, “गुलशन के परिवार को लॉकडाउन से पहले भी दिल्ली जाने के  अपने बार-बार के सफ़र के इंतज़ाम के लिए पड़ोसियों से बहुत मदद की ज़रूरत थी। हमने देखा है कि गुलशन ने  कितनी मेहनत की है। उसके पिता के मरने के बाद उसके परिवार को मदद की ज़रूरत थी। लोगों की मदद की वजह से अभी वे जी पा रहे हैं।”

गुलशन के ससुर,अब्दुल सफ़र एक दुबले-पतले बूढ़े आदमी हैं, उनके गाल धंसे हुए हैं,दाढ़ी सफ़ेद हो चुकी है और हल्के पीले रंग का कुर्ता पहने हुए हैं। वे आजीविका के लिए पिलखुवा के मशहूर कपास उद्योग में बेड कवर धोने का काम करते थे, लेकिन लॉकडाउन के चलते अब बेरोज़गार हो चुके हैं। अब वह सात लोगों के अपने घर में काम करने वाले एकलौते आदमी बचे हैं।अपने बगल में रखी चारपाई पर अपने बहू के पिता के अवशेष वाले बॉक्स की तरफ़ इशारा करते हुए कहते हैं,  " वही [अनवर] इंसान था, जो अपनी बेटी और उसके परिवार का पूरा ख़र्चा भेजता था।"

गुलशन की शादी तब हुई थी,जब वह 17 साल की थी। वह कभी स्कूल नहीं गयी।  उसके पास कारोबार का न कोई तजुर्बा है और न उसके पास कोई हुनर है। उसके पड़ोस के लोग कपड़ा व्यवसाय में कपड़े धोने, इस्त्री करने, रंगाई, छपाई का काम करते हैं। उन्हें हाथ से किये जाने वाले इन कार्यों के लिए व्यापारियों की तरफ़ से प्रति पीस भुगतान किया जाता है। कपड़े की रंगाई करते समय गुलशन के शौहर, नसीरुद्दीन की आंखें चली गयी थीं। नसीरुद्दीन कहते हैं, “मेरे ससुर दिल्ली से पैसे भेजते थे, जिससे हमारा गुज़ारा चलता थे। कई बार हम वहां चले जाते थे, तो कई बार वे ख़ुद ही पिलखुवा आ जाते थे।" अनवर की मौत के बाद उसके परिवार को दिल्ली सरकार से 1 लाख रुपये का मुआवज़ा मिला है।

अनवर के भाई सलीम ने अपनी आंखों से देखा था कि भीड़ ने किस तरह अनवर की पीटाई की थी, फिर उसके भाई को गोली मार दी गयी थी, फिर उसके घर को जला दिया गया था और आख़िर में उसे उसी आग में झोंक दिया गया था। 29 फ़रवरी को गुलशन को करावल नगर पुलिस से पता चला कि सलीम ने झूठा दावा करके 1 लाख रुपये के मुआवज़े की रक़म यह कहकर झटक लिये कि वह अनवर का इकलौता जीवित रिश्तेदार है।

जब गुलशन ने अपना दावा पेश किया, तो उसी दिन पुलिस ने अनवर के साथ उनके रिश्तों का पता लगाने को लेकर डीएनए परीक्षण के लिए गुलशन और सलीम,दोनों से नमूने एकत्र किये। लेकिन,इसी बीच 5 मार्च को दिल्ली दंगा से सम्बन्धित मामलों को दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा में स्थानांतरित कर दिया गया। इसलिए, उन दोनों के नमूने 6 मार्च को ही दिल्ली के रोहिणी स्थित फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (FSL) के पास भेज दिये गये।

तब तक मीडिया ने गुलशन के मामले में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था। मुआवज़े को लेकर डीएनए परीक्षण और इस विवाद ने एक भयानक अपराध के बाद राहत की मांग करने वाली एक महिला से जुड़ी मानवीय हित की इस कहानी में एक सनसनीखेज तत्व को भी जोड़ दिया था। लेकिन,मार्च में देश नॉवल कोरोनावायरस की चपेट में आ गया और एक नये तरह के ख़ौफ़ ने इस तरह की सभी कहानियों को बहुत पीछे छोड़ दिया।

गुलशन के वक़ील का कहना है, "गुलशन का मामला आगे नहीं बढ़ पाया था,तबतक लोगों का ध्यान दंगों से दूर हट गया और कोविड और तब्लीग़ी जमात पर ध्यान केंद्रित हो गया।" गुलशन के लिए तो यही विडंबना है कि एक तरफ़ जहां भारत में इस बीमारी को फ़ैलाने को लेकर मुसलमानों में डर पैदा किया जा रहा था, वहीं गुलशन को अपने उस पिता का पैर पाने के लिए एक वक़ील और मददगार अदालती आदेश की ज़रूरत थी, जिसकी हिंसक भीड़ द्वारा हत्या कर दी गयी थी।

8 अप्रैल को उच्च न्यायालय ने गुलशन के डीएनए परीक्षण के नतीजे को एक सप्ताह के भीतर पेश करने का आदेश दिया। 16 अप्रैल को एफएसएल की रिपोर्ट आयी, जिसमें गुलशन और अनवर के बीच के जैविक सम्बन्ध की पुष्टि हुई। दूसरे शब्दों में कहा जाय,तो यह बात साफ़ हो गयी कि अनवर की असली वारिस गुलशन है, सलीम नहीं। अगले दिन, 17 अप्रैल को गुलशन फिर करावल नगर पुलिस स्टेशन पहुंची। उसके पिता का पैर, जिसे शुरू में पुलिस ने उसके घर से बरामद किया था, पहले उस पैर को जीटीबी अस्पताल के शवगृह में भेजा गया था, वहां से एफएसएल भेज दिया गया था, और अब यह पैर पुलिस के पास वापस आ गया था।

लेकिन, पुलिस ने कहा था कि अगर गुलशन चाहती है कि उसके पिता का वह अवशेष मिले,तो गुलशन को कड़कड़डूमा में उत्तर-पूर्व ज़िला अदालत में अर्ज़ी दाखिल करनी होगी। आमतौर पर कोई पुलिस मालखाना उन वस्तुओं को संग्रहीत कर लेता है, जिन्हें वह अपराध के छानबीन के दौरान अपने कब्ज़े में लेता है, लेकिन गुलशन को तो अपने पिता का वह पैर चाहिए था, न कि कोई "सामान", जिन्हें किसी भी लिहाज से "सामान" कहा जा सकता हो। इसलिए,इस बात को लेकर शुरू में कुछ भ्रम था कि गुलशन को किस तरह की अर्ज़ी दाखिल करनी चाहिए, और क्या कड़कड़डूमा कोर्ट इसे  (नये लॉकडाउन से सम्बन्धित प्रतिबंधों के कारण) स्वीकार करेगा।

इसे आगे बढ़ाने को लेकर ई-फाइलिंग प्रक्रिया में एक बाधा थी। आख़िरकार गुलशन के दरख़्वास्त को व्हाट्सएप के ज़रिये एक सहायक महानगरीय मजिस्ट्रेट की अदालत में भेजा गया। तब तक डीएनए रिपोर्ट को आये हुए 36 दिन हो गये थे और वह तारीख़ 13 मई की थी। अदालत में वक़ील ने अपनी दलील में कहा था कि गुलशन, अनवर के अवशेषों को जारी करने को लेकर क़रीब-क़रीब तीन महीने से इंतज़ार कर रही है। वक़ील ने कहा, 'मेरे लंबे इंतज़ार का कुछ तो सिला मिले।'

14 मई को पुलिस ने अपना जवाब देते हुए लिखा कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। अदालत ने शव को सौंपे जाने की तारीख़ 17 मई, रविवार तय कर दी थी।

गुलशन ने बताया, "लॉकडाउन के बाद, रविवार, 17 मई को मैं पहली बार दिल्ली गयी थी।" एक हाथ तक सिकुड़ चुके अपने अब्बू के पैर की तरफ़ देखते हुए वह रो पड़ती है,आह भरते हुए और विलाप करते हुए वह कहती है, "काश कि वे उस दिन पिलखुवा में ही रह गये होते,जिस दिन दंगे भड़क गये थे।" लेकिन,जो कुछ हो चुका है,उसे  बदलने के लिए वह कुछ नहीं कर सकती।

अनवर के घर से सभी दंगाइयों के निकलने के बाद वह पैर वहीं पड़ा रहा था। उसके सारे सामान जला दिये गये थे या चुरा लिये गये थे। चूंकि उसकी हत्या के मामले में एक प्राथमिकी दर्ज की जा चुकी है, पुलिस ने उसे बताया कि इसलिए खोई हुई या क्षतिग्रस्त चीज़ों को लेकर एक अलग प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती है। गुलशन कहती हैं, "अब जब कभी मैं पुलिस को फ़ोन करती हूं, तो वे कहते हैं कि अब तो इसके बारे में लॉकडाउन के बाद ही बात कर पायेंगे।"

आइये,फिर गुलशन के गांव वापस आते हैं। सभी मर्द अनवर को दफ़नाने के लिए निकल चुके हैं। गुलशन की एक क़रीबी रिश्तेदार,रेहाना कहती हैं, “गुलशन पहले ही बहुत थक चुकी है। कोरोना के चलते सभी तरह के सफ़र पर रोक लगा दी गयी थी। इसके बाद पुलिस ने उसे कुछ और इंतज़ार करने को कहा था, जबकि वह पहले से ही इंतज़ार करती रही है [लॉकडाउन लगने तक]। डीएनए रिपोर्ट में भी समय लगा, और उसके चाचा के चलते और देरी हुई।" अब तो कहना मुश्किल है कि यह परिवार इस हत्या के मामले में न्याय पाने को लेकर कितना संघर्ष कर सकता है।

मुसलमानों द्वारा कोरोनोवायरस के फ़ैलाये जाने वाले लोकलुभावन बुनी गयी कहानियों से भी गुलशन के पड़ोसी परेशान और नाराज़ रहे हैं। गुलशन के एक रिश्तेदार,साबिर अली कहते हैं, “यह वायरस विदेश से आया था। इसलिए यह हमारे देश का काम था कि आप इसके आने पर रोक लगाते-आपने (सरकार ने) इसे रोका क्यों नहीं ?” वह कहते हैं, “अब भी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच भाईचारा बना हुआ है। हमें तो अपनी आजीविका की चिंता है। लॉकडाउन के बाद भी काम का मिलना तो मुश्किल ही होने जा रहा है”।

"भाईचारा" शब्द अब भी हमारे कानों में लगातार गूंजता है। सोमवार की मिली ताज़ा ख़बर है कि जामिया मिलिया इस्लामिया के एक दूसरे मुस्लिम छात्र को दिल्ली पुलिस ने उठा लिया है। इन गिरफ्तारियों और "गोली मारो सालों को" वाली सोच और कहानियों से कोसों दूर गुलशन अपने जीवन के बिखरे अवशेषों को एक साथ समेटने की कोशिश कर रही हैं।

अंग्रेजी में लिखी गई इस मूल स्टोरी को आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-  

In Covid Times, Burial of a Leg Found in Delhi Riots

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