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लोकतंत्र, फ़ासला, असमानता और अनादर

लोकतंत्र शासन का एकमात्र ऐसा स्वरूप है जो शासन की कला और शिल्प को एक सम्मानजनक फ़ासले पर विकसित करता है और हमेशा उस उपलब्धि को हासिल करना चाहता है जिसे दार्शनिक जॉन रॉल्स ने "ज़िम्मेदार बहुलवाद" के प्रति "अतिव्यापी सहमति" कहा था।
लोकतंत्र, फ़ासला, असमानता और अनादर

उपेंद्र बक्सी लोकतंत्र के चार 'तत्वों' के माध्यम से भारत के विचारों की खोज कर रहे हैं।

आज जब हम भारतीय स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में प्रवेश कर चुके हैं, तो हमें (सुनील खिलनानी के शब्दों में) इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि भारत होने का विचार क्या है और 'भारत का विचार' बनता कैसे है।

मैं यहां केवल भारत के परिवर्तनकारी संवैधानिक विचार से संबंधित बात करूंगा, जो भारत के बारे में सांस्कृतिक और सभ्यतागत विचारों के साथ मेल खाता है और उसके साथ टकराव को भी दर्शाता है। राष्ट्र और क़ानून इस प्रकार संकुचनकारी एकता का ऐसा एक क्षेत्र है जिसमें शासन और विकास, न्याय और अधिकार, सम्मिलन और संघर्ष के विचार हैं।

डॉ बी आर अम्बेडकर ने अक्सर अपने शब्दों में संविधान के लागू होने से पहले कहा था कि:

“26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट और एक वोट एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे। लेकिन अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढांचे के कारण, एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम कब तक अंतर्विरोधों का जीवन जीते रहेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लंबे समय तक नकारते रहे, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल रहे होंगे। हमें इस अंतर्विरोध को जल्द से जल्द दूर करना होगा अन्यथा जो लोग असमानता से पीड़ित हैं वे राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को उड़ा देंगे, जिसे विधायिका ने कड़ी मेहनत से बनाया है।

अम्बेडकर ने अंतर्विरोधों का कोई विशिष्ट सिद्धांत विकसित नहीं किया, लेकिन वे संस्थागत और वैचारिक अंतर्विरोधों में विश्वास करते थे; इतना ही नहीं, उन्होंने संविधान में इन्हें मुक्ति के भविष्य के इतिहास के लिए एक रचनात्मक तरीके से स्पष्ट किया है। अब वह समय आ गया है कि हम खुद को संवैधानिक कानून, उसकी व्याख्या और सिद्धांत की न्यायशास्त्रीय नींव के लिए फिर से समर्पित करें

चार कठिन 'तत्व' - लोकतंत्र, फ़ासला, असमानता और अनादर

हम सभी को भारत के संवैधानिक विचार पर विचार करने की जरूरत है जो उक्त चार तत्वों का भी अनुसरण करता है। इसमें जो चार कठिन 'तत्व' शामिल हैं- वे लोकतंत्र, फ़ासला, असमानता  और अनादर है। एक मायने में, ये क्रियात्मक राजनीति की चिरस्थायी वस्तु हैं। लेकिन ये भी मूलभूत तत्व हैं।

भारतीय संविधान पहले तीन को राजनीतिक और नैतिक गुणों के रूप में मानता है और चौथा 'तत्व' पहले तीन 'तत्वों' को अंतिम रूप इनकार कर देता है।

लोकतंत्र हमेशा एक फ़ासले पर शासन करता है, जिसे सार्वजनिक और निजी जीवन के बीच के अंतर से चिह्नित किया जाता है, जहां राज-सत्ता और कार्यपालिका को निजी जीवन की दहलीज पर रुकना चाहिए, चाहे वे प्रेम, पूजा, या मिशेल फौकॉल्ट के शब्दों में कहें “खुद की प्रौद्योगिकियां” क्यों न हो।

लेकिन बहुलता का यह क्रम (जिसे गोपनीयता या संवैधानिक नैतिकता के रूप में भी जाना जाता है) अपनी सीमा जानता है तब जब यह अन्य मनुष्यों या सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के अनादर केपी पहचानता है।

ये सीमाएं संविधान और उसके मूल्यों द्वारा निर्धारित की गई हैं जो निजी जीवन में स्वतंत्र विकल्प का पोषण करते हुए भेदभाव को अवैध ठहराते हैं। हालांकि, दैनिक जीवन में हुकूमत और नागरिक के बीच की दूरी को सामाजिक भेदभाव की कीमत पर हासिल नहीं किया जाना चाहिए। बल्कि, संविधान अनुच्छेद 17, 23, 24 में भेदभाव को अनुशासित और दंडित करता है, जो कि फांसले के शासन की नींव है।

और यह धारणा फ़ासले के संवैधानिक उत्सव का मूल अर्थ है- जिसका मतलब है ईशतंत्र। जटिल समानता के प्रति सम्मान-संविधान निर्माताओं द्वारा गढ़ी गई सभी संस्थाओं का मूल गुण है, जिन्हे कठिन समय में भी, न्यायधीशों की सफल पीढ़ियों ने गढ़ा और पोषित किया है।

लोकतंत्र, शासन का एकमात्र स्वरूप है जो शासन की कला और शिल्प को एक सम्मानजनक दूरी पर विकसित करता है और हमेशा उस उपलब्धि को हासिल करना चाहता है जिसे दार्शनिक जॉन रॉल्स ने "जिम्मेदार बहुलवाद" के बारे में "अतिव्यापी सहमति" कहा था।

उन्होंने जोर देकर कहा कि इसे "संवैधानिक अनिवार्यता" का सम्मान करके की अच्छे से हासिल किया जा सकता है, जो कि केशवानंद भारती के समय और उसके बाद, संवैधानिक व्यवस्था की "जरूरी विशेषताओं" और "मूल संरचना" के रूप में उभरे हैं।

सामाजिक और सार्वजनिक नैतिकता की तुलना में संघर्ष के अधिकारों की स्थितियों में उच्च स्थान पर रखी गई संवैधानिक नैतिकता के उत्सर्जन से इसे और बल मिलता है।

लोकतांत्रिक संविधानवाद में अनादर

असंतोष और विरोध के स्वरूपों की तुलना में लोकतांत्रिक संवैधानिकता में अनादर एक बड़ी मौलिक श्रेणी है। यह दूसरे के खिलाफ भेदभाव और पूर्वाग्रह की प्रक्रिया से बना है जिसके परिणामस्वरूप उनकी भीतरी/अंतरंग जटिलता के कारण दूसरों को अधिकारों से वंचित रखा जाता है।

दूसरे का दानवीकरण करना भी अनादर का एक स्वरूप है; जैसा कि लोकतांत्रिक कृत्यों के प्रति उदासीनता या लापरवाही का होना – वे संप्रभुता के घातक काम कहलाते है, जैसे कि यातना देना, क्रूरता करना, अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल, या अमानवीय व्यवाहार करना या दंड देना। 

इसी तरह हिंसा और उल्लंघन की सामाजिक प्रथाएं, हिंसक क्रूर सामाजिक बहिष्कार और सामाजिक या जैविक मौत की हद तक जाती हैं।

एक अर्थ में, अनादर का अर्थ है दूसरे का ठोस रूप में मानभंग और अपमान करना है। संवैधानिक शासन को हमेशा दूसरों के लिए सम्मान की जरूरत होती है, जिसे कम से कम प्रारंभिक सिद्धान्त में माना गया आता जब भारत को 'गणराज्य' घोषित किया गया था।

अनादर भविष्य का सबसे खराब स्वरूप है, तब-जब इसे संस्थागत रूप से किया जाता है। उदाहरण के लिए, संस्थानों में कर्मचारियों की कमी और नियत नियुक्तियों में देरी करना एक तरह का अनादर हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप संस्थागत भुखमरी या स्टाफ ले कम होने से कमी पैदा हो सकती है।

इस बात को सर्वोच्च न्यायालय बार-बार हमारे ध्यान में लाता है: उदाहरण के लिए, हाल ही में 6 अगस्त, 2021 तक की स्थितीत को नोट करते हुए सर्वोच्च न्यायालय (मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण और न्यायमूर्ति सूर्यकांत) को यह इंगित करना पड़ा कि ऐसे हालात की अनुमति नहीं दी जा सकती है जहां विभिन्न "ट्राइबुनल/न्यायाधिकरणों के पीठासीन अधिकारियों या चेयरमैन के 19 रिक्त पद पड़े हैं और इनके अलावा, न्यायिक और तकनीकी सदस्यों के क्रमशः 110 और 111 पद रिक्त पड़े हैं" और इससे "ऐसा लगता होता है कि नौकरशाही इन न्यायाधिकरणों को चलाना नहीं चाहती है"।

न्यायिक देरी की तथाकथित समस्या में ‘अनादर' अंतर्निहित है, जिसका मैंने अपनी 1982 की पुस्तक "कोर्ट्स इन क्राइसिस" के एक अध्याय में गहराई से विश्लेषण किया था। मुझे यह कहते हुए कोई संतुष्टि या खुशी नहीं होती है कि ढांचागत संकट नई बोतलों में पुरानी शराब की तरह जारी है!

लेकिन संविधान के 75वें वर्ष के उपलक्ष में अब कार्यकारी-न्यायपालिका को उस कार्य-योजना  पर समझौते को चिह्नित करना चाहिए जो यह सुनिश्चित करता हो कि कोई भी केस/मामला अंतिम निर्णय (यदि जरूरी हो तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसे सुनिश्चित किया जाए) एक दशक से अधिक समय तक लंबित न रहे। यह उतना ही उल्लेखनीय है जितना कि टोक्यो ओलंपिक में भारतीय खेल टीम का प्रदर्शन!

गणतंत्र और बंधुत्व

अधिक सामान्य धरातल पर, एक गणतंत्र का अर्थ निश्चित रूप से शाही राजनीतिक शासन का अंत और स्वतंत्रता की वास्तविक उपलब्धि होता है। गणतन्त्र की परिभाषा के अनुसार, कोई भी 'गणराज्य' राजशाही, कुलीन वर्ग, कुलीनतंत्र, भीड़तंत्र या निरंकुशता नहीं हो सकता, चाहे वह पुराना हो या नया।

एक गणतंत्र को 'हम, या उसके लोगों' के नाम से जाना जाता है और यह स्वतंत्र और समान नागरिकों के समूह से बनता है, जो सभी राजनीतिक और संवैधानिक शक्तियों की भरपाई करता है।

इसमें नागरिकों का एक जीवित समूह रहता है जो न केवल उसके भीतर के समाज और सभ्यता का हिस्सा हैं बल्कि वे इसे नया रूप भी देते हैं और उसका निर्माण भी करते हैं। इस प्रकार, एक गणतंत्र, लोकतांत्रिक स्वशासन का एक सतत और जीवंत प्रयोग और अनुभव होता है।

एक गणतंत्र के विचार का संबद्ध, उसकी प्रस्तावना और बुनियादी संरचना में "बंधुत्व" के मूल्य से है - एक और मूल्य जिसे आज असंवैधानिक कूड़ेदान में डाल दिया गया है!

भाईचारा/बंधुत्व, मोटे तौर पर, किसी दूसरे साथी के प्रति भावना है (और प्रजिसे मुख भाषाओं में 'भाईचारे' के संकेत के रूप में माना जाता है)। दूसरे का सम्मान करने के प्रति बंधुत्व का होना अनिवार्य है। आदर और बंधुत्व दोनों ही संविधान की जीवनदायिनी अनुच्छेद 17 में आपस में जुड़े हैं।

यह अनुच्छेद एक नए संवैधानिक और गणतांत्रिक अस्तित्व और अपनेपन के लिए है। और यह अनुच्छेद, हर कदम पर मौजूद भेदभाव, राज्य और सामाजिक, विभिन्न रोजमर्रा की बुराइयों और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ निरंतर लड़ता है। 

और हमें हमेशा अता उल हक कासमी की उस ग़ज़ल को याद रखना चाहिए (जो ग़ज़ल को तलत महमूद ने 60 साल पहले गाई थी और जिसे बॉलीवुड फिल्म में दिलीप कुमार पर फिल्माया गया था): जहाँ बजती है शहनाई, वहां मातम भी होते हैं। 

आदर के विपरीत यह तथ्य भी है कि संविधान सार्वजनिक और निजी संबंधों में बल और धोखाधड़ी को प्रतिबंधित करता है। इस तरह के "कुशल" आचरण के इन "गुणों" पर न तो राजनीतिक प्रथाओं का आचरण और न ही निजी संबंधों का आधार होना चाहिए।

स्वतंत्र और सूचित सहमति की धारणाएं निजी कानून का आधार होती हैं क्योंकि "शासन की सहमति" की धारणाएं लोकतांत्रिक शासन के केंद्र में होती हैं। हम जबरदस्ती और बल प्रयोग के इस्तेमाल के औचित्य के बारे में तर्कों के माध्यम से कानूनी, राजनीतिक, बाजार और व्यक्तिगत निर्णयों के गुणों का आकलन करते हैं।

दूसरा तरीके से कहा जाए तो, बल और धोखाधड़ी कभी भी (वैध) राज्य या निजी आचरण या सामाजिक व्यवस्था को उचित नहीं ठहराती है।

लोकतंत्र का लोकतंत्रीकरण

बावजूद इसके, हमारे सामने चुनौती यह नहीं है कि हम लोकतांत्रिक शासन का विकल्प खोजें, बल्कि विकल्प है कि हम 'लोकतंत्र का लोकतंत्रीकरण' करें – कि शासन और विकास के सभी संस्थानों में न्याय की भावना को कैसे मजबूत किया जाए, विविधता में एकता कैसे बनाई जाए, और कैसे लोकतांत्रिक संवैधानिक आस्था की सीमाओं विस्तार किया जाए।

लोकतांत्रिक वैधता की अवधारणा को मजबूत करने वाले लेखों से पुस्तकालय भरे पड़े हैं जो इसके रास्ते और कठिनाई को दोनों को दर्शाते हैं। लेकिन हमारे लिए इस बात को याद रखना बेहतर होगा कि सूफ़ी कवि कबीर ने सर्वोत्तम अर्थों में क्या कहा था:

चलती चाकी देखकर, कबीरा दिया रोय। 

दुइ पाटन के बीच में, साबुत बचा ना कोय॥

(उपेंद्र बक्सी, वारविक विश्वविद्यालय में क़ानून के एमेरिटस प्रोफ़ेसर हैं और जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में क़ानून के अनुसंधान प्रोफ़ेसर और सार्वजनिक क़ानून और न्यायशास्त्र में प्रतिष्ठित विद्वान हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: द लीफ़लेट 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Democracy, Distance, Difference, and Disrespect

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