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एक्सक्लूसिवः झूठी उड़ान? (भाग-1)

अनिल अंबानी की अगुवाई वाले कॉर्पोरेट समूह के पक्ष में रक्षा ख़रीद प्रक्रियाओं के उल्लंघन के सबूत सामने आने के बाद रफ़ाल विमान सौदे में हुए कथित घोटाले ने ज़ोर पकड़ लिया है।
Rafael Scam

कुछ दिनों पहले, फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ़्रांसुआ ओलांद ने एक बयान देकर सबको चौंका दिया है। उन्होंने फ्रांस में एक मीडिया घराने से बातचीत में खुलासा किया कि नरेंद्र मोदी सरकार ने ऑफसेट पार्टनर के रूप में रिलायंस डिफेंस के अलावा डसॉल्ट एविएशन को कोई विकल्प नहीं दिया था। इस खुलासे से परेशान बीजेपी और सरकार की समर्थक मीडिया ने अब मोदी के रफ़ाल सौदे के आलोचकों को दबाने के लिए यह दावा करते हुए एक अभियान शुरू कर दिया है कि यह निर्णय पूरी तरह से डसॉल्ट का ही था। डसॉल्ट एविएशन ने अपने बचाव में कहा है, "यह ऑफसेट अनुबंध रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) 2016 के नियमों के अनुपालन में किया जाता है"। ये दोनों तर्क ग़लत हैं; या ऐसा कहा जा सकता है कि सच्चाई छिपाई गई।

डीपीपी 20161 अप्रैल 2016 को प्रभावी हुआ था, जबकि 23 अप्रैल, 2018 को जारी डसॉल्ट एविएशन प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि डसॉल्ट एविएशन और रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड वाले संयुक्त उद्यम (जेवी) डसॉल्ट रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड को अप्रैल 2015में बनाया गया था। दिलचस्प बात यह है कि कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार इस संयुक्त उद्यम में भारतीय भागीदार रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड को 24 अप्रैल, 2015 को शामिल किया गया था। इसका मतलब है कि रिलायंस एडीएजी और डसॉल्ट ने या तो रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड को शामिल किए जाने से ठीक पहले एक संयुक्त उद्यम बनाने का फैसला किया था; या ये संयुक्त उद्यम अप्रैल 2015 के आखिरी पांच दिनों में बनाया गया था!

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी की फ्रांस से 36 रफ़ाल ख़रीदने की चौंकाने वाली घोषणा 10 अप्रैल, 2015 को की गई थी। उनकी घोषणा के ठीक 14 दिनों बाद रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड को रिलायंस डिफेंस लिमिटेड की सहायक कंपनी के रूप में शामिल किया गया था। रिलायंस डिफेंस को 28 मार्च, 2015 को ही शामिल किया गया था जो प्रधानमंत्री की घोषणा से पहले महज़ दो हफ्ते के भीतर की गई थी। इसी महीने (अप्रैल 2015) में रिलायंस एडीएजी तथा डसॉल्ट के बीच संयुक्त उद्यम और रिलायंस एडीएजी कंपनी को शामिल किया गया था, डीपीपी 2016 लागू नहीं था, जबकि डीपीपी 2013 लागू था। यह भी दिलचस्प है कि किस तरह डसॉल्ट एविएशन ने अप्रैल 2015 में एक ऐसी कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम बनाया जो केवल काग़ज़ पर ही मौजूद था।

मोदी सरकार का दावा है कि फ्रांसीसी कंपनी डसॉल्ट ऑफसेट पार्टनर का चयन करने के लिए स्वतंत्र थी, और केवल बाद में इन विवरणों को देने की आवश्यकता थी। 7 फरवरी, 2018 के रक्षा मंत्रालय की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, "... 36 रफ़ाल विमानों के लिए 2016 के सौदे के लिए भारतीय ऑफसेट पार्टनर को अब तक वेंडर (डीए) द्वारा नहीं चयन किया गया है क्योंकि लागू दिशानिर्देशों के अनुसार, डीए भारतीय ऑफ़सेट पार्टनर्स का चयन करने और ऑफसेट क्रेडिट की मांग के समय, या ऑफ़सेट दायित्व के निर्वहन से एक वर्ष पहले अपना विवरण प्रदान करने के लिए स्वतंत्र है।"

क्या यह दावा सही है? इसे समझने के लिए, डीपीपी 2013 और डीपीपी 2016 के संबंधित खंडों का विश्लेषण करते हैं।

अप्रैल 2015 में जब डसॉल्ट ने कहा कि उसने संयुक्त उद्यम का गठन किया तब डीपीपी 2013 लागू था। हालांकि, एक खंड – डीपीपी 2013 में पैरा 8.2 - अगस्त 2015 में जोड़ दिया गयाथा

* डीपीपी 2013 में पैरा 8.2 इस तरह है: "टीओईसी (टेक्निकल ऑफसेट इवैल्यूएशन कमेटी) ऑफसेट दिशानिर्देशों की सहमति को सुनिश्चित करने के लिए टेक्निकल ऑफसेट प्रोपोज़ल की जांच करेगा। इस उद्देश्य के लिए, इस वेंडर को ऑफ़सेट दिशानिर्देशों की सहमति में अपने ऑफसेट प्रोपोज़ल को लाने के लिए परिवर्तन करने की सलाह दी जा सकती है। इस टीओईसी से इसके गठन के 4-8सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट जमा करने की उम्मीद होगी।"

दिलचस्प बात यह है कि ये सौदा करने के लिए इस खंड को 8 अगस्त, 2015 को संशोधित किया गया था जो संदेह की स्थिति में है। संशोधित खंड में कहा गया है, "यदि वेंडर टीओईसी के समय इन विवरणों को देने में असमर्थ होता है, तो इसे आईओपी (इंडियन ऑफसेट पार्टनर) के माध्यम से ऑफसेट क्रेडिट की मांग के समय या ऑफसेट दायित्व के निर्वहन से एक वर्ष पहले डीओएमडब्ल्यू(डिफेंस ऑफसेट मैनेजमेंट विंग) को प्रदान किया जा सकता है।"

इसके साथ ही, सरकार ने सोचा कि वह लोगों की नज़रों से विवरण छुपाए। यही कारण है कि मोदी सरकार यह कहती रहती है कि वेंडर (डसॉल्ट एविएशन) को बाद की तारीख तक सरकार को ऑफसेट प्रोपोज़ल जमा करने की ज़रूरत नहीं होती है।

हालांकि, संशोधित डीपीपी 2013 की ऑफसेट नीतियों या डीपीपी 2016 में कई अन्य खंड हैं, जिनके तहत रक्षा मंत्रालय और कॉन्ट्रैक्ट नेगोशिएशन कमेटी को भारतीय ऑफसेट पार्टनर (आईओपी) के बारे में सूचित करने की आवश्यकता है। दुर्भाग्यवश मोदी सरकार के लिए, इन्हें तब न तो संशोधित किया गया था और न ही 2016 में।

य़े निम्नलिखित हैं:

* पैरा 7.2 के मुताबिक कमर्शियल एंड टेक्निकल ऑफसेट प्रोपोज़ल को अधिग्रहण विंग के तकनीकी प्रबंधक को 12 सप्ताह के भीतर जमा किया जाना है।

* पैरा 8.4 की शुरूआत इस वाक्य से होती है "कमर्शियल ऑफसेट ऑफर में विवरण, चरणबद्धता, आईओपी के व्यवधान के साथ कुल ऑफ़सेट प्रतिबद्धता घटकों के मूल्य को निर्दिष्ट करने वाला विस्तृत प्रस्ताव होगा ..."

* पैरा 8.5 की शुरूआत कुछ इस तरह होती है "मुख्य ख़रीद प्रक्रिया के मामले के लिए सीएनसी (कॉन्ट्रैक्ट नेगोशिएशन कमेटी) यह सत्यापित करेगा कि कमर्शियल ऑफसेट ऑफर निर्धारित ऑफसेट दायित्वों को पूरा करता है।"

पैरा 8.6 इस तरह है: "सभी ऑफसेट प्रोपोज़ल को उसके मूल्य की परवाह किए बिना अधिग्रहण प्रबंधक द्वारा संसाधित किया जाएगा और मंत्री द्वारा स्वीकृत किया जाएगा। ऑफसेट प्रस्तावों को सीएफए की जानकारी के लिए मुख्य ख़रीद प्रस्ताव के लिए सक्षम वित्तीय प्राधिकरण (सीएफए) की मंज़ूरी की मांग करते हुए इस पत्र में भी शामिल किया जाएगा। सीएफए द्वारा मुख्य ख़रीद प्रस्ताव को मंज़ूरी मिलने के बाद ऑफसेट अनुबंध अधिग्रहण प्रबंधक द्वारा दस्तख़त किया जाएगा। ऑफसेट अनुबंध की हस्ताक्षरित प्रतियां डीओएमडब्लू को उपलब्ध कराई जाएगी।"

यदि रक्षा मंत्री ये कह रही हैं कि मोदी सरकार को पता नहीं था कि डसॉल्ट के भारतीय ऑफसेट भागीदार को स्वीकार करने का औचित्य क्या है, तो इसका मतलब है साफ है कि रक्षा मंत्रालय ने अपने ख़ुद की ख़रीद दिशानिर्देशों और ऑफसेट नीतियों का उल्लंघन किया। अगर कॉन्ट्रैक्ट नेगोशिएसन कमेटी ने वेंडर/ आपूर्तिकर्ता के साथ सौदा की क़ीमत पर बातचीत की, तो उन्हें वेंडर द्वारा प्रस्तुत ऑफसेट प्रस्ताव का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए था, और यह भी जानकारी होनी चाहिए थी कि इस वेंडर का भारतीय भागीदार कौन होगा। इसे प्रस्ताव में या बातचीत के दौरान प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। अन्यथा, यह डीपीपी और ऑफसेट नियमों का उल्लंघन था। डीपीपी में निर्धारित नियमों के अनुसार अगर डसॉल्ट ने इन विवरणों को कॉन्ट्रैक्ट नेगोशिएसन कमेटी को जमा नहीं किया था, तो ये कॉन्ट्रैक्ट पूरी तरह से रद्द करने के लिए यह पर्याप्त कारण है।

 

इसके अलावा, डीपीपी का पैरा 8.17 इस प्रकार है: "अधिग्रहण विंग पिछले वित्त वर्ष के दौरान हस्ताक्षरित ऑफसेट अनुबंधों के विवरण के संबंध में प्रत्येक वर्ष जून में डीएसी (डिफेंस एक्विज़िशन काउंसिल) को वार्षिक रिपोर्ट जमा करेगा। डीओएमडब्ल्यू पिछले वित्त वर्ष के दौरान सभी चालू ऑफसेट अनुबंधों के कार्यान्वयन की स्थिति के संबंध में प्रत्येक वर्ष जून में डीएसी को वार्षिक रिपोर्ट भी प्रस्तुत करेगा।"

अब, इस पैरा को 16 फरवरी, 2017 को रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इसमें उल्लेख है कि "रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (आरइन्फ्रा) ने डसॉल्ट एविएशन के साथ रिलायंस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड के संयुक्त उद्यम (जेवी) डसॉल्ट रिलायंस एयरोस्पेस लिमिटेड ( डीआरएएल) को आगे बढ़ाया और इसे शामिल कर लिया गया। 23सितंबर 2016 को भारत और फ्रांस ने लगभग 60,000 करोड़ रुपए के मूल्य के 36 रफ़ाल लड़ाकू विमानों की आपूर्ति के लिए एक ख़रीद समझौते पर हस्ताक्षर किया। इस अनुबंध में लगभग 30,000 करोड़ रुपए की क़ीमत पर 50% ऑफ़सेट दायित्व शामिल है जो भारत के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा ऑफसेट अनुबंध है। ऑफसेट दायित्वों के निष्पादन में डीआरएएल मुख्य भागीदार होगा।"चूंकि इस समझौते पर साल 2016 में हस्ताक्षर किया गया था, उपरोक्त पैरा 8.17 के अनुसार, डीआरएएल और ऑफसेट अनुबंध की यह जानकारी डीएसी को जमा की गयी होती। जून 2017 में डीएडब्ल्यू की वार्षिक रिपोर्ट में डीएसी को ये घटनाएं क्या नहीं दिखाई दी थी? सरकार का तर्क है कि उसे पता नहीं था कि रफ़ाल सौदे के लिए डसॉल्ट का भारतीय ऑफसेट पार्टनर कौन है जो हाल तक गंभीर जांच के लिए सहमत नहीं था।

केरावन पत्रिका (सितंबर 2018) के अनुसार, यह (23 सितंबर, 2016) वह तारीख़ भी थी जिसमें डसॉल्ट और आरएएल के बीच ऑफसेट अनुबंध पर हस्ताक्षर किए गए थे: इसी तारीख़ में दोनों अनुबंधों पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह भी पुष्टि करता है कि ऊपर उल्लिखित प्रक्रिया का पालन किया गया था, और इन दोनों अनुबंधों को कॉन्ट्रैक्ट नेगोशिएशन कमेटी और रक्षा मंत्रालय द्वारा डीपीपी के अनुसार प्रक्रियाबद्ध किया गया था, और वे ऑफसेट पार्टनर आरएएल के बारे में पूरी तरह से अवगत थे।

डसॉल्ट के साथ एचएएल के हस्ताक्षरित कार्य साझा समझौते को छोड़ने, खुली निविदा के माध्यम से क़रार किए गए मूल सौदे को रद्द करने, इस सौदे की घोषणा के लिए पीएम का एकपक्षीय निर्णय, ऑफसेट पार्टनर के बारे में जानकारी छुपाने, ओलांद का दावा कि अनिल अंबानी की रिलायंस भारत सरकार की पसंद थी- ये सभी मोदी सरकार द्वारा क़रार किए गए रक्षा सौदों के संबंध में गंभीर प्रश्न खड़े करते हैं। अगर बोफोर्स राजीव गांधी सरकार का वाटरलू था, तो रफ़ाल सौदे को "बड़ा घोटाला" कहा जाता है, ऐसा लगता है कि बीजेपी सरकार के लिए यही कहा जाना चाहिए।

रवि नायर ने रफ़ाल घोटाले की स्टोरी को उजागर किया था और वह इस विषय पर एक पुस्तक लिख रहे हैं। यह न्यूज़़क्लिक के लिए उनके एक्सक्लूसिव लेख का एक हिस्सा है।

(भाग 2 में, हम आरएएल द्वारा डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रोमोशन (डीआईपीपी) के नियमों के उल्लंघनों के बारे में चर्चा करेंगे)

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