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आपातकाल के दौरान जेल की ज़िंदगी

लेखक, इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान जेएनयू के छात्र थे और मीसा के तहत जेल में बंद थे। राजनीतिक आपात स्थितियों का विरोध करने को लेकर लिखे गये एक लंबे आलेख से लिए गये इस अंश में 1975 में बितायी गयी उनकी जेल की ज़िंदगी की यादें हैं।
 emergency

तक़रीबन 65 से 70 एकड़ में फैली हुई तिहाड़ जेल एक बहुत बड़ी जेल थी। हर एक वार्ड में कम जगह वाले बैरक थे, सबके सब एक मंजिला थे, हर एक बैरक कुछ ख़ाली जगहों के साथ एक दूसरे से जुड़े हुए थे।दिन में जब कभी क़ैदियों को बाहर निकाला जाता था, तो सही मायने में हम क़ैदी जगह के लिए मारा-मारी नहीं किया करते थे। वार्ड 14 के हम क़ैदी अलग-अलग सेल में नहीं होते थे; इस वार्ड में दो बड़े बैरक थे, जिनमें से हर एक बैरक में क़रीब 20 लोग रहते थे और हर एक बैरक में एक बाथरूम था।

अलग-अलग वर्ग के क़ैदी थे।इन वर्गों में बी ('बेहतर वर्ग वाले क़ैदी'), और सी, या 'साधारण' वर्ग वाले क़ैदी थे। दिल्ली की जेलों में क़ैद सभी राजनीतिक क़ैदी इस 'बेहतर वर्ग' वाले समूह के थे। उत्तर प्रदेश की जेलों में वैसा नियम नहीं था,यह बात मुझे तब पता चली,जब मुझे मेरे मास्टर डिग्री के वाइवा को लेकर इलाहाबाद की नैनी जेल ले जाया गया। कुछ  ही क़ैदियों को 'बेहतर वर्ग' वाले क़ैदी वर्ग में रखा गया था। चूंकि भारत की जेलों में ख़ास तौर पर भोजन के लिहाज़ से इस तरह के अहम वर्ग भेद होते हैं, इस वजह से उत्तर प्रदेश में हिरासत में लिए गये राजनीतिक क़ैदियों के लिए एक बड़ा फ़र्क़ पड़ता था। तिहाड़ में बेहतर वर्ग का मतलब था कि हमें कुछ बेहतर खाना, जेल से कपड़े, दो कंबल और यहां तक कि सर्दियों में गर्म कपड़े भी मिलते थे; कुल मिलाकर वहां बेहतर सुविधायें थीं।  

तिहाड़ में हमें जेल के स्टोर से राशन मुहैया कराया जाता था, जिसे हम हर दिन इकट्ठा करते थे, और हमें ऐसे अपराधी भी आवंटित किये गये थे, जिन्हें सश्रम कारावास की सज़ा सुनायी गयी थी –वे हमारे लिए खाना पकाते थे। हमें उनके खाना पकाने की सिर्फ़ निगरानी करनी थी। हमारे बीच रसोई के काम को करने के लिए एक रोटा प्रणाली थी,यानी कि बारी-बारी से काम करने की सूची दी गयी थी, जिसमें बैरकों को सौंपे गये दोषी मज़दूरों के साथ दुकान से दिन का राशन लेने और खाना पकाने की निगरानी करना शामिल था। हमारे कुछ साथी क़ैदी खाना बनाना जानते थे, इसलिए ख़ासकर मेरे जैसे लोगों के लिए यह खाना बिल्कुल भी ख़राब नहीं था,क्योंकि हम लंबे समय तक हॉस्टल में खाना खाया करते थे ! मेरे मीसा वारंट जारी करने वाले अतिरिक्त मजिस्ट्रेट पी. घोष भी थोड़े समय के लिए तिहाड़ जेल की निगरानी कर रहे थे। उन्होंने जेल सुपरिटेंडेंट से मेरे साथ बैठक की व्यवस्था करने को कहा। हमारी बातचीत के दौरान उन्होंने जानना चाहा कि खाना कैसा है, और मैंने उनसे कहा कि यह जेएनयू के हॉस्टल के खाने से तो बेहतर है। मैं जो कुछ कहता रहा, उससे सुपरिटेंडेंट को ख़ुशी हुई या नहीं,मालूम नहीं,मगर यह तिहाड़ की तारीफ़ नहीं थी, बल्कि हमारे छात्रावास के भोजन पर एक टिप्पणी थी।

तिहाड़ वह जगह है, जहां मैंने खाना पकाने की कुछ शुरुआती समझ हासिल की थी, हालांकि मेरी यह समझ खाना पकाते हुए नहीं, बल्कि निगरानी करते हुए विकसित हो पायी थी कि आख़िर खाना पकाया कैसे जाता है। यह बाद की ज़िंदगी के लिए उपयोगी था, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि खाना बनाने को अंजाम देना महज़ उसके सिद्धांत को जान लेने से काफ़ी अलग होता है !

जिन लोगों को सश्रम कारावास की सज़ा सुनायी गयी थी, उनके लिए हमारे लिए खाना बनाना एक हल्का-फुल्का काम था, और वह हमारा खाना भी खाते थे। लेकिन,सच तो यही है कि दिल्ली की गर्मी में जेल की रसोई में बड़े पैमाने पर दो से तीन हज़ार लोगों के लिए खाना बनाने की ड्यूटी वास्तव में बहुत मुश्किल थी। इसके अलावा, वह खाना भी इसलिए ख़राब होता था, क्योंकि 'सी क्लास' के क़ैदियों के लिए जारी किया गया राशन बहुत ही घटिया होता था। मैंने भी वही खाना खाया था जो, आम क़ैदियों को कुछ दिनों के लिए मिलता था, मुझे पता था कि यह कितना ख़राब था। चावल और गेहूं में कंकड़ होते थे और उनकी गंध साफ़ तौर पर सड़ांध या बासी होती थी। फिर से सवाल उसी क्लास का था,जो कि जेल में भी था।

जेल में सश्रम कारावास और साधारण जेल की सज़ा पाने वाले या अंडर-ट्रायल काम करने वाले क़ैदियों के बीच फ़र्क़ था। लेकिन, यहां फिर वही क्लास का फ़र्क़ था। भले ही आपको दोषी ठहराया गया हो, लेकिन आपकी हैसियत के कारण आपके साथ जेल में 'बेहतर श्रेणी' वाले क़ैदी की तरह बर्ताव किया जाता था। अगर कोई ग्रेजुएट था या आयकर का भुगतान किया करता था, तो उसे कठिन परिश्रम नहीं करना होता था। एक नेत्र चिकित्सक डॉ एन एस जैन का मशहूर मामला था।उस डॉक्टर ने अपनी पत्नी को मारने के लिए दूसरों के साथ साजिश रची थी। उसे दोषी ठहराया गया था और जेल की ड्यूटी भी सौंपी गयी थी। लेकिन, उनका काम, या जेल में सौंपी गयी ड्यूटी जो थी,वह थी- जेल की लाइब्रेरी की देखभाल करना।

बाद के दिनों में जब मुझे आगरा ले जाया गया, तो मुझे बिहार के एक अन्य युवा छात्र-कार्यकर्ता के साथ मांसाहारी खाना पकाने की निगरानी करनी पड़ी। हम में से कोई भी खाना बनाना नहीं जानता था, और इसके लिए न ही हमें दोषी कामगार दिया गया था। यह तब था, जब हमें शून्य से शुरू करना था और कोशिश करके (और ज़्यादतर ग़लती करते हुए) खाना बनाना था। शुरू में ऐसा खाना बना,जिसे खा पाना मुश्किल था। यहां तक कि उस खाने को हमारे दोषी कामगार ने भी खाने से मना कर दिया था।हालांकि, बाद में जाकर हमारा बनाया भोजन खाने लायक़ हो गया था; यह एक बड़ी तरक़्क़ी थी !

वार्ड संख्या 14 में दो बैरकों को राजनीतिक रूप से अलग किया गया था। ऐसा जेलरों की ओर से आवंटित किये जाने के बनिस्पत स्वैच्छिक कार्रवाई कहीं ज़्यादा थी। एक बैरक था- आरएसएस-जनसंघ बैरक (हां, जनसंघ में ऐसे लोग भी थे,जिनमें से कुछ की पहचान आरएसएस से जुड़े होने वालों के रूप में नहीं थी), और दूसरा बहुत मिले-जुले ऐसे लोगों वाला बैरक था,जिनमें से हर एक का जुड़ाव आरएसएस-जनसंघ से बिल्कुल नहीं था। इस तरह के बैरक में जमात-ए-इस्लामी, वामपंथियों के अलग-अलग जमात वाले लोग शामिल थे, जिनमें समाजवादी भी शामिल थे, और वे लोग भी थे, जिनका कोई ख़ास राजनीतिक जुड़ाव नहीं था, लेकिन जिन्हें पुलिस के जाल में फ़ांस लिया गया था। ऐसे लोगों में कनॉट प्लेस के एक समाचार पत्र विक्रेता माम चंद भी शामिल थे, जिनके पास आरएसएस के मुखपत्र- ऑर्गनाइज़र और सीपीआई (एम) के साप्ताहिक-पीपुल्स डेमोक्रेसी दोनों के स्टॉक थे। मज़े की बात तो यह है कि जिस अख़बार को रखने के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया था, वह इन 'विध्वंसक' पत्रों में से नहीं था, बल्कि पीलू मोदी का अंग्रेज़ी साप्ताहिक- मार्च ऑफ़ द नेशन था, जिसे शायद ही विध्वंसक कहा जा सकता था।

शाह आयोग की रिपोर्ट में माम चंद की कहानी का ज़िक़्र इस तरह है कि वह नौ बच्चों का पालन-पोषण करने वाले परिवार का एकमात्र कमाऊ व्यक्ति थे, जिन्हें दिल्ली स्थित एक नगरपालिका पार्षद और संजय गांधी के चापलूसों में से एक अर्जुन दास की शिकायत के चलते गिरफ़्तार कर लिया गया था। अफ़सरों ने यह स्वीकार किया था कि उन्होंने उनके स्टाल में पाये गये 'विध्वंसक' साहित्य को नहीं पढ़ा था, बल्कि 'पीएम हाउस' के निर्देशों के तहत उनके ख़िलाफ़ मीसा का आदेश जारी कर दिया गया था। किसी अख़बार बेचने वाले को सलाखों के पीछे रखना संभवतः दूसरों के लिए एक चेतावनी थी कि वे सरकार की आलोचना करने वाले किसी भी अख़बार या पत्रिका को अपने पास न रखें।

वार्ड नम्बर 14 के कुछ अहम क़ैदियों में थे: नानाजी देशमुख, कंवर लाल गुप्ता, अरुण जेटली और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह। बाद में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष डीपी त्रिपाठी भी हमारे साथ इसी वार्ड में आ गये थे। एक प्रमुख आरएसएस पदाधिकारी नानाजी, जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन की कमान में दूसरी पंक्ति के बड़े नेता थे,यह एक ऐसा पद था, जिसे जेपी ने 25 जून 1975 की राम लीला मैदान रैली में आधिकारिक रूप से बनाया था, जिसमें उन्होंने नानाजी को लोक संघर्ष समिति का सचिव घोषित किया था। यह वही रैली थी, जिसमें जेपी ने सरकारी अधिकारियों और सेना को सरकार के 'अवैध और अनैतिक आदेशों' का पालन नहीं करने के लिए कहा था, जिससे श्रीमती गांधी को यह कहने का मौक़ा मिल गया था कि वह खुले तौर पर देशद्रोह को बढ़ावा दे रही हैं।

यह जेपी आंदोलन की प्रकृति ही थी कि इसमें कोई मूल भरोसा तो नहीं था, लेकिन कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार को लेकर प्रतिक्रिया की लहर पर यह आंदोलन सवार था,इस आंदोलन की लहर को तूफ़ान बनने में श्रीमती गांधी की अधिनायक वाले रवैये की ओर झुकाव से हवा मिली थी। यह दौर संजय गांधी के एक नाकाम कार निर्माता से अपनी मां की छत्रछाया में एक कामयाब राजनीतिक उद्यमी के रूप में उभरने का भी था। संजय के कारोबार को श्रीमती गांधी की सरकार का खुला समर्थन न सिर्फ़ कानूनों और सरकारी नियमों के उल्लंघन की कहानी था,बल्कि बंसी लाल जैसे संजय के दोस्तों की ओर से भी इसका खुला समर्थन था, बल्कि जयराम रमेश की लिखी किताब- “इंटरट्वाइंड लाइव्स: पी.एन. हक्सर एंड इंदिरा गांधी” के मुताबिक़ श्रीमती गांधी और उनके कभी निजी सचिव रहे पीएन हक्सर के बीच के कलह की भी कहानी थी।  

प्रशासन में सक्रिय संजय गिरोह ने 15 जुलाई 1975 को पंडित ब्रदर्स पर छापा मारकर हक्सर के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई कर दी। हक्सर के चाचा के स्वामित्व वाले पंडित ब्रदर्स का चांदनी चौक में एक ऐतिहासिक दुकान वाला शोरूम था और दूसरी दुकान कनॉट प्लेस में थी। आधिकारिक तौर पर उन दुकानों के उस मालिक के ख़िलाफ़ मारे गये छापे और उसके बाद की कार्रवाई उचित मूल्य टैग नहीं दर्शाये जाने के नतीजे थे। 81 साल के बुज़ुर्ग चाचा और 72 साल के बहनोई केपी मुशरान को गिरफ़्तार कर लिया गया, हालांकि शाम तक उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। यह छापेमारी मुख्य सचिव की अगुवाई में एक विशेष दस्ते ने की थी।इसमें भारत रक्षा नियमों के तहत आरोप तय किये गये थे। ज़ाहिर है, आपातकाल के दौरान भारत की सुरक्षा दुकानों में उचित मूल्य वाले टैग पर टिकी हुई थी !

वार्ड संख्या 1 बड़ा था और उसमें राजनीति रूप से मिले-जुले लोग थे। इसमें ज़्यादातर आरएसएस-जनसंघ के लोग और समाजवादी थे। दिल्ली में आरएसएस-जनसंघ कांग्रेस का प्रमुख विरोधी था और उसकी संख्या सबसे ज़्यादा थी। इसके अलावे, इसमें मीसा में क़ैद किये गये अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा से जुड़े लोग थे, जिसमें सुंदर सिंह भंडारी (जनसंघ महासचिव), दिल्ली के पूर्व मेयर हंसराज गुप्ता, भावी मेयर प्रेम सागर और राम नाथ विज जैसे आरएसएस-जनसंघ परिवार से जुड़े क़ैदी शामिल थे; जबकि समाजवादियों में सुरेंद्र मोहन, राजकुमार जैन और विजय प्रताप शामिल थे, और प्रसिद्ध वामपंथी हिंदी लेखक हंसराज रहबर थे। श्रीलता स्वामीनाथन और महारानी गायत्री देवी महिला वार्ड में थीं, और हालांकि उनके पास ख़ुद के लिए एक छोटा कमरा था, यह कोई राजनीतिक क़ैदियों वाला वार्ड नहीं था। साप्ताहिक दौरे के दौरान होने वाली मुलाक़ात में ही मेरी मुलाक़ात श्रीलता से कुछ देर के लिए हुआ करती थी, लेकिन बाद में मुंबई में 2004 में हुए वर्ल्ड सोशल फ़ोरम के आयोजन के दौरान ही उन्हें बेहतर तरीक़े से जान पाया था।

जिस समय डीपी त्रिपाठी (डीपीटी) को गिरफ़्तार किया गया था,उस समय तक मुझे जेल में रहते हुए तक़रीबन एक महीने हो गया था। इसका मतलब यह था कि मेरे एक साथी की स्थिति मेरे ही जैसी थी। इस मौक़े पर हमने जेल के भीतर किसी न किसी तरह सीपीआई (एम) की आवाज़ के तौर पर कार्य किया। हमारे अलग-अलग मुलाक़ातों से हमें कई तरह की जानकारी मिल जाती थी, यही वजह है कि जो कुछ चल रहा था, उसे लेकर हमें अपेक्षाकृत अच्छी-ख़ासी जानकारी होती थी।

कंवर लाल गुप्ता दिल्ली से पूर्व सांसद थे। वह मिलनसार और सामाजिक क़िस्म के आदमी थी। वह और अरुण जेटली हमारे साथ,यानी कि मुरली बाबू, डीपीटी और मेरे साथ बैठते और राजनीति सहित कई विषयों पर हमारी बातचीत होती थी। बातचीत का मुद्दा ज़्यादातर आपातकाल ही होता था। चूंकि हम ख़बरों के भूखे थे, इसलिए हम हफ़्ते में एक बार होने वाली मुलाक़ात से अपनी जानकारी जुटाते थे। बेशक, इन ख़बरों में गपशप और अफ़वाह की एक निरापद खुराक भी होती थी, जो कि सेंसर किये गये समाज का मुख्य आधार होता है।

पहली नज़र में ऐसा लग सकता है कि वार्ड संख्या 14 के दो बैरकों को राजनीतिक रूप से तैयार किया गया था। लेकिन, मुझे जल्द ही पता चल गया कि इस विभाजन का एक गहरा कारण था।हालांकि, हमारे बैरक राजनीतिक रूप से मिश्रित थे,लेकिन उन बैरकों की एक आम ख़ासियत थी। एक बैरक मांसाहारी रसोई वालों का था, जबकि दूसरा बैरक शाकाहारी रसोई वालों का था। इसका सीधा मतलब था कि हमारे बैरक में शाकाहारी और मांसाहारी,दोनों ही तरह के खाने पकाये जाते थे, जबकि दूसरे बैरक की रसोई में मांस और अंडे सख़्ती से वर्जित थे। वर्जनायें राजनीति से कहीं ज़्यादा खाने के लिहाज़ से गहरी होती हैं: यही वजह है कि वे राजनीति में खाने के विभाजनकारी इस्तेमाल को लेकर बहुत ही आसानी से ख़ुद को आगे बढ़ लेते हैं, जैसा कि इस समय हम देख रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह तरीक़ा नया है, क्योंकि आरएसएस और कई दूसरे संगठन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के गौ-संरक्षण आंदोलनों के बाद से भोजन, ख़ास तौर पर गोजातीय-गाय और भैंस के मांस का राजनीतिकरण करने की कोशिश कर रहे हैं।

दूसरे बैरक में रखे गये लोगों में आरएसएस-जनसंघ के लोग पूरी तरह शाकाहारी थे। आरएसएस-जनसंघ के कुछ लोग मांसाहारी भी थे और वे हमारे साथ खाना खाने आ जाते थे। लेकिन, मुलाक़ात के दौरान जो खाना आता था,जी, मुलाक़ात का मतलब था कि परिवार बंदियों के लिए खाना ला सकते थे,उनके लिए एक समस्या साबित हुई। जब जमात के क़ैदियों के परिवार वालों से मुलाक़ात होती थी, तो हमें वास्तव में लज़ीज़ भोजन मिलता था।इस खाने में मुंह में पानी ला देने वाली बिरयानी, पसंदा, कबाब और कोफ़्ता होते थे। मुझे नहीं लगता कि मैंने अपने ज़िंदगी में कभी भी उस तरह की लज़ीज़ खाने का स्वाद लिया हो, जो कि उन मुलाक़ातों के दौरान लिया था। इनमें से कई चीज़ें उस ‘बड़ा’ से बनी होती थीं, जिसका मतलब बीफ़ या बफ़ होता है। बामपंथ से जुड़े ज़्यादतर लोगों को गोमांस खाने या गोमांस खाने वालों के साथ खाना खाने में कोई दिक़्क़त नहीं थी। लेकिन, हमारे आरएसएस-जनसंघ के मांसाहारी साथियों को एक समस्या थी। जैसा कि उनमें से एक ने बताया था: "वो बड़े वाला जो है ना, वो हम से चलेगा नहीं।" वे बेदिली से गोमांस खाने वालों के साथ खाने के बजाय शाकाहारी बन गये थे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

The Emergency Then: Life in Jail

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