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कभी रोज़गार और कमाई के बिंदु से भी आज़ादी के बारे में सोचिए?

75 साल पहले ही गुलामी से आजादी मिल गई। लेकिन जिसे असली आजादी कहते हैं क्या उसका एहसास भारत के ज्यादातर लोगों ने किया है?
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दूसरे मुल्क की गुलामी की जंजीरों को तोड़ कर एक आजाद मुल्क के तौर पर भारत की यात्रा के 75 साल हो गए। 75 साल से भारत एक देश के तौर पर खुद ही अपनी नियति लिख रहा है। इसलिए यह बात तो बिल्कुल साफ है कि अगर एक देश के लिए आजादी का मतलब किसी दूसरे देश की गुलामी से मुक्ति हासिल कर लेना है तो भारत इस मामले में 75 साल पहले ही आजाद हो चुका था।

लेकिन एक लोकतांत्रिक देश के लिए अगर आजादी का मतलब केवल यहां तक सिमट रख दिया जाए कि उस पर वर्तमान में कोई दूसरा मुल्क राज नहीं करता है तो यह आजादी शब्द के साथ नाइंसाफी होगी। उन तमाम लोगों के जीवन के साथ नाइंसाफी होगी जो अभी भी कई तरह के बंधनों और जकड़नों में कैद है, जो अपनी इंसानी संभावनाओं को पूरी तरह से तराश नहीं पाते हैं और जिन सब से मिलकर देश बनता है।

तो बुनियादी तौर पर सबसे जरूरी सवाल तो यही बनता है कि 75 साल की जिंदगी जी चुके एक लोकतांत्रिक देश में आजादी का मतलब क्या होना चाहिए?

राजनीतिक दर्शन की दुनिया में इस पर खूब बहस हुई है कि आखिरकर आजादी या स्वतंत्रता का मतलब क्या होता है? इन सभी बहसों निचोड़ कर विद्वानों ने आजादी का जो मतलब बताया वह यह है कि स्वाधीनता या आजादी या स्वतंत्रता या मुक्ति का विचार तीन आयामों से मिलकर बनता है। पहला है चयन करना, दूसरा है चयन करने और उस पर अमल करने में आने वाली बाधाओं का अभाव और तीसरा है उन परिस्थितियों की मौजूदगी जो चयन करने के लिए प्रेरित करती है।

मसलन, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफीसर महेश व्यास रोजगार के मुद्दे पर कई अखबारों और मीडिया में लिखते बोलते रहते है। उनका कहना है कि भारत की कुल आबादी में हाल फिलहाल 40 करोड़ आबादी काम कर रही है। इसी 40 करोड़ आबादी की कमाई पर भारत की शेष आबादी का जीवन टिका हुआ है। इसमें से तकरीबन 15 करोड़ आबादी कृषि क्षेत्र में काम करती हैं। कृषि क्षेत्र में काम करने वाली आबादी ऐसी नहीं है कि सबके पास खेत हो। सभी खेत के मालिक हो। सभी किसान हों। इनमें से कुछ ही लोगों के पास खेत है। बाकी सब खेतिहर मजदूर हैं। जो दूसरे की जमीन पर काम करते हैं। जिन्हें हर रोज काम नहीं मिलता है। तभी काम मिलता है, जब खेत को मजदूरों की जरूरत होती है।

अब इस आबादी के लिए आजादी का मायने समझिए। इनमें से जो किसान हैं, उन्हें अपनी उपज की वाजिब कीमत सालों से नहीं मिल रही थी तो वह सड़कों पर आकर सरकार से लड़ रहे हैं। ठंडी गर्मी बरसात सब का सामना करते हुए सरकार से निवेदन कर रहे हैं कि उनकी उपज का कम से कम इतना मूल्य देने की गारंटी तो करवाएं जिससे उनका शोषण ना हो। उन्हें उनकी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने की कानूनी गारंटी तो मिले। लेकिन  सरकार इनको सुनने के लिए तैयार नहीं है। अगर किसानों की कमाई के लिहाज से बुरा हाल है तो खेतिहर मजदूरों का तो इनसे भी ज्यादा बुरा हाल होगा।

अब इनकी आजादी के बारे में सोचिए। क्या इनके पास चयन यानी चुनाव की आजादी है? क्या अपने कम कमाई से यह अपने परिवार को एक अच्छी जिंदगी देने का चुनाव कर सकते हैं? क्या इनके बच्चे अच्छी शिक्षा पा सकते हैं? क्या इनके बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, मैनेजर जैसा कुछ बनने का सपना देख सकते हैं? इन सारे सवालों का जवाब ना में मिलेगा। यानी किसानों के पास चुनाव की आजादी नहीं है। क्योंकि इनकी कमाई इतनी कम है कि वह किसी बेहतर चीज के बारे में सोचने या उसे चुनने से पहले उसके साथ आने वाली बाधाओं के बारे में सोच कर उसके बारे में सोचना बंद कर देते हैं। उनके जीवन का माहौल ऐसा है कि उनकी सोच की उड़ान उतनी नहीं हो सकती जितनी उनकी है जो महीने में लाख रुपए से अधिक की कमाई कर रहे है। इनके जीवन के बंधन वाले माहौल को बदलकर इन्हें आजाद सोचने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। लेकिन इस माहौल को बदलने की जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार सब कुछ जानकर भी इस माहौल को बदलना नहीं चाहती है। तो किसानों के जीवन को लेकर क्या कहा जाएगा? आप खुद ही सोच कर बताइए कि हमारे देश के किसान भारत के लोकतांत्रिक राज्य के भीतर गुलाम है या आजाद?

इसी तरह से भारत के पूरे कार्यबल के बारे में सोचिए। रोजगार और लोगों की कमाई के बारे में सोचिए। समय के साथ रोजगार की संख्या में बढ़ोतरी होनी चाहिए थी। लेकिन आंकड़े कहते हैं कि इसका उलटा हुआ है। आरबीआई की रिपोर्ट बताती है कि साल 1980 से लेकर 1990 तक सालाना रोजगार की वृद्धि दर 2% रही। साल 1990 से लेकर साल 2010 तक सलाना रोजगार की वृद्धि दर घटकर 1.7 फ़ीसदी रही। साल 2000 से लेकर साल 2010 तक रोजगार की वृद्धि दर घटकर 1.3 फ़ीसदी हो गई। साल 2010 से लेकर साल 2020 तक रोजगार की वृद्धि दर में और अधिक कमी आई और यह घटकर 0.2 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है। आजादी के बाद समय के साथ रोजगार की संख्या में बढ़ोतरी होनी चाहिए थी। लेकिन पिछले 40 साल का इतिहास बताता है कि रोजगार बढ़ने की दर बहुत अधिक कम हुई है।

लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था आकार के लिहाज से दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। अगर लोगों के पास रोजगार नहीं है तो यह बढ़ कैसे रही है?वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती लिखते है कि इसका भी यही जवाब है कि भारतीय लोकतांत्रिक राज्य के अंदर आगे बढ़ने की आजादी कमाई के लिहाज से ऊपर के 20 फ़ीसदी लोगों के पास ही है। वही अमीर से अमीर होते जा रहे हैं। उनकी अमीरी ही भारत की अर्थव्यवस्था को बड़ा बनकर बनाकर दिखाती है। जिनकी कमाई से रिसता हुआ भारत के मध्य वर्ग को मिल जाता है।

यानी वह सारी आबादी जिसकी जिंदगी दूसरे की कमाई पर निर्भर है वह अपनी आजादी का ढंग से इस्तेमाल नहीं कर सकती।दो फीसद से भी कम सरकारी नौकरी करने वालों को छोड़ दिया जाए तो भारत में जितने भी महीने में पगार पर काम करते हैं वह सब इस डर में काम करते हैं कि कहीं उनसे उनकी नौकरी ना चली जाए। यह चिंता भारत के हर नौकरी करने वाले व्यक्ति के सर माथे हमेशा रहती है। नौकरी को ध्यान में रखते हुए भारत के बहुतेरे लोग अपनी जिंदगी का हर फैसला करते हैं। अगर ऐसा है तो सवाल पूछना चाहिए की आजादी कहां है? ढेर सारे काम करने वाले लोग गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं या नहीं।

असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की हालत तो और अधिक खराब है। कोरोना महामारी के दौरान इनकी जिंदगी का रेशा - रेशा खुल गया। एक महामारी की वजह से कईयों के घर में खाने की किल्लत पड़ गई। अगर 75 साल की उन्नति के बाद हमारे समाज में एक बड़ा धड़ा ऐसा है जो महामारी जैसी मजबूरी में काम नहीं कर पाता है और अपनी जिंदगी जीने के लिए भोजन तक का जुगाड़ नहीं कर पाता है तो जरा सोचिए कि उसके लिए आजादी के क्या मायने होते होंगे?

जनवरी 2018 में भारत में बेरोजगारी दर तकरीबन 5 फीसदी थी। जनवरी 2019 में पता चला कि भारत में बेरोजगारी दर 6.9 फ़ीसदी के पास पहुंच गई है, जो भारत के 43 साल के इतिहास में सबसे अधिक थी। महामारी के दौरान अप्रैल 2020 में भारत की बेरोजगारी दर 24 फ़ीसदी के पास पहुंच गई। उसके बाद अब थोड़ा मामला ठीक हुआ है तो भारत की बेरोजगारी दर जुलाई 2021 में 7 फ़ीसदी के आसपास बचाई बताई जा रही है।

यानि आजादी के 75 साल बाद वह आयु वर्ग जो काम कर सकती है उसका 7 फ़ीसदी हिस्सा रोजगार की खोज में है लेकिन उसे रोजगार देने वाला कोई नहीं। जिसे रोजगार मिला है उस कार्यबल का 80 फ़ीसदी हिस्सा ₹10 हजार महीने से कम की आमदनी कम आता है। तकरीबन 90 अधिक हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करता है।जिसके लिए नौकरी का मतलब यह कहीं से नहीं है कि उसकी नौकरी आज है तो कल उसके पास ही होगी। वह कभी भी अपने नौकरी से बेदखल किया जा सकता है। यह आजाद भारत में रोजगार की तस्वीर है। उस रोजगार की तस्वीर जिससे कमाई होती है।

यकीनन किसी भी व्यक्ति के जीवन के आजादी के निर्धारक बिंदु के तौर पर जाति धर्म लिंग भाषा बहुत सारी चीजें भी काम करती हैं। लेकिन मौजूदा माहौल में इन सबके साथ व्यक्ति की कमाई ऐसी निर्धारित बिंदु है जो व्यक्ति के आजादी के दायरे को सबसे अधिक प्रभावित करता है। भारत में रोजगार और कमाई के बिंदु से आजादी के इस परिभाषा के बारे में सोचिए कि भारत में कितने लोगों के पास अपनी जिंदगी में चयन करने की आजादी है? कितने लोग किसी विषय का चयन करते समय उसके मद्देनजर आने वाली अड़चनों को सोचकर चयन ही नहीं करते? कितने लोगों के पास वह माहौल नहीं है कि वह कुछ भी चुनने और सोचने के लिए प्रेरित हो पाए? इस सवाल का जवाब मिलेगा कि भारत के 75 साल के इतिहास के बाद तकरीबन भारत की आबादी का बहुत बड़ा ज्यादा हिस्सा तो ऐसा होगा ही जो अभी भी आजादी का अहसास कर पाने से कोसों दूर है।

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