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एनआरसी पर पीपुल्स ट्रिब्यूनल ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर उठाए सवाल

पूर्व न्यायधीशों और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के समूह ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले ने एनआरसी प्रक्रिया को शुरू किया वह असत्यापित और अप्रमाणित डाटा पर आधारित था।
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नई दिल्ली: 'मेरे माता और पिता सरकारी नौकरी में हैं। मेरे दादा सरकारी नौकरी में थे। मेरे परिवार के सभी सदस्यों का नाम एनआरसी में है लेकिन मेरा नाम उसमें शामिल नहीं है। यदि मेरे जैसे लोग जिसे एनआरसी से जुड़ी सारी सूचनाएं और कानूनी पहलुओं की जानकारी है, उसका नाम एनआरसी की सूची में नहीं आया है तो आप सोच सकते हैं कि अनपढ़ और गरीब लोगों का क्या हाल होगा।'

ये कहना था असम के लखीमपुर की रहने वाली 25 साल की सामाजिक कार्यकर्ता मासूमा बेगम का। मासूमा गुवाहाटी में रहती हैं और एनआरसी के लिए जागरूक करने वाले एक सामाजिक संगठन से जुड़ी हैं।

कुछ ऐसा ही कहना कवि और सामाजिक कार्यकर्ता शाहजाद अली अहमद का भी था। उन्होंने बताया, 'मेरी फैमिली ट्री में कुल 33 लोग हैं, सिर्फ तीन का नाम एनआरसी की सूची में शामिल है बाकी को बाहर रखा है। मेरे पास जरूरी दस्तावेज हैं। दस्तावेज में स्पेलिंग मिस्टेक भी नहीं है लेकिन इसके बावजूद हमारा नाम सूची में नहीं है। अब हमें अपने ही देश में विदेशी नागरिक बताया जा रहा है, यह बहुत दुखद है। हमारे यहां राज्य प्रशासन ही चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों को राज्य विहीन बनाया जाय।'

शाहजाद और मासूमा की तरह बहुतों की यही कहानी है। इनमें से कई लोग दिल्ली के इंडियन सोसाइटी आफ इंटरनेशनल लॉ में आयोजित दो दिवसीय पीपुल्स ट्रिब्यूनल में भाग लेने आए थे। इस पीपुल्स ट्रिब्यूनल का आयोजन नागरिक समाज के समूहों ने शनिवार और रविवार को किया था।

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पीपुल्स ट्रिब्यूनल की ज्यूरी में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी. लोकुर और कुरियन जोसेफ और दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह के अलावा नलसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति प्रो. फैजान मुस्तफा, इंडियन राइटर्स फोरम की संस्थापक-सदस्य गीता हरिहरन, योजना आयोग की पूर्व सदस्य सैयदा हामिद, बांग्लादेश में पूर्व राजदूत देब मुखर्जी और जामिया मिलिया इस्लामिया में सेंटर फॉर नॉर्थ ईस्ट स्टडीज एंड पॉलिसी रिसर्च के अध्यक्ष प्रोफेसर मोनिरुल हुसैन शामिल थे।

आपको बता दें कि पीपुल्स ट्रिब्यूनल जनसुनवाई की एक ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें संवैधानिक प्रक्रियाओं और मानवाधिकारों पर सुनवाई के लिए नागरिक समाज के लोगों को ज्यूरी में शामिल किया जाता है।

इन दो दिनों में ज्यूरी ने असम के लोगों की व्यक्तिगत गवाही और उन कानूनी विशेषज्ञों को सुना जिन्होंने एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया में भाग लिया था। इसमें अधिवक्ता अमन वदूद, गौतम भाटिया, वृंदा ग्रोवर, मुस्तफा खद्दाम हुसैन, मिहिर देसाई, पत्रकार संजय हजारिका समेत तमाम लोग शामिल थे।

इस दौरान ज्यूरी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले ने एनआरसी प्रक्रिया को शुरू किया वह असत्यापित और अप्रमाणित डाटा पर आधारित था। यही कारण था कि अदालत ने प्रवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया और उनके स्वतंत्रता एवं सम्मान के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन किया।

ज्यूरी ने आगे कहा, ‘इतने बड़े पैमाने पर चलाए गए अभियान के बावजूद न्यायपालिका की समय सीमा तय करने की जिद ने प्रक्रिया और इसमें शामिल लोगों दोनों पर दबाव बढ़ा दिया।’ ज्यूरी ने जोर देकर कहा कि नागरिकता अधिकारों के होने का अधिकार है और यह आधुनिक समाज में सबसे बुनियादी, मौलिक मानवाधिकारों में से एक है।

इस दौरान ज्यूरी ने यह भी कहा, ‘एनआरसी से बाहर किए जाने, विदेशी घोषित किए जाने और अंत में हिरासत केंद्र में भेजे जाने के डर ने कमजोर समुदायों, विशेषकर बंगाल मूल के असमिया मुस्लिम और असम राज्य में रहने वाले बंगाली हिंदुओं के बीच स्थायी दुख की स्थिति पैदा हो गई है।’

दो दिन चली चर्चा के दौरान न्यायाधिकरण ने चार सवालों पर फोकस किया- क्या एनआरसी की प्रक्रिया संविधान के अनुरूप है? संवैधानिक प्रक्रियाओं और नैतिकता को बनाए रखने में न्यायपालिका की क्या भूमिका है? मानवीय संकट क्या हैं और एनआरसी को देश के बाकी हिस्सों में लागू करने के नतीजे क्या होंगे?

समापन सत्र के दौरान फॉरेन ट्रिब्यूनल्स की स्वायत्तता के संबंध अपनी टिप्पणी में पूर्व न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर ने कहा, 'असम के लोग सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। ट्रिब्यूनल्स अनियंत्रित तरीके से काम कर रहे हैं। वे अपनी प्रक्रियाओं और कामकाज को अपने दम पर विकसित कर रहे हैं। इनमें किसी भी तरह की एकरूपता नहीं है। यही कारण है कि दो-तिहाई आदेश एकपक्षीय हुए हैं क्योंकि उनके कामकाज में एकरूपता नहीं है। मामूली वर्तनी त्रुटियों का भारी प्रभाव पड़ा है। नामों की वर्तनी में मामूली त्रुटियों ने हजारों लोगों को नागरिकता की अंतिम सूची से बाहर कर दिया है। यह एक महत्वपूर्ण मामला है। यदि कोई नागरिकता खो देता है, तो वह अपना सब कुछ खो देता है- यहां तक कि अपने मौलिक अधिकार भी। इसलिए इन मामलों को गंभीरता से देखने की जरूरत है।'

आपको बता दें कि फॉरेन ट्रिब्यूनल्स के सदस्यों की नियुक्तियों और उनके वेतन और भत्ते के संदर्भ में प्रत्यक्ष तौर पर सरकार के नियंत्रण में हैं।

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उन्होंने इस बात पर भी आश्चर्य जताया कि यदि असम के किसी व्यक्ति ने एनआरसी में शामिल होने के लिए आवेदन नहीं किया, तो वह एक राज्य से तो बेदख़ल हो सकता है, लेकिन वह देश के बाकी हिस्सों में भारत का नागरिक हो सकता है।
 
पूर्व न्यायाधीश ने डिटेंशन पर सवाल उठाते हुए कहा कि डिटेंशन पहला विकल्प क्यों बन गया है और बड़ी संख्या में लोग डिटेंशन के नाम पर वर्षों से सलाखों के पीछे पड़े हुए हैं। उन्होंने कहा, 'डिटेंशन और जेल पहले विकल्पों में से एक बन गए हैं जबकि न्यायशास्त्र का कहना है कि जमानत पहला विकल्प होना चाहिए। ये क्यों हो रहा है? यह ऐसे व्यक्ति के लिए मानवाधिकारों का प्रश्न है कि उसे स्वतंत्रता से वंचित किया गया हो और उसे हिरासत में रखा जाए।'

उन्होंने अपने कर्तव्यों को निभाने में विफल होने के लिए राज्य और केंद्र सरकारों के कानूनी सहायता अधिकारियों की भी आलोचना की। लोकुर ने कहा, 'वे लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करने में पूरी तरह से विफल रहे हैं।'

वहीं, अपनी टिप्पणी में पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने कहा कि लोग यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि वे इस देश के भाई-बहन हैं।

उन्होंने कहा, 'असम के लाखों लोग इस देश के भाई-बहन कहलाने की मानवीय और संवैधानिक गरिमा को महसूस करने की स्थिति में नहीं हैं। यदि जो एनआरसी में शामिल नहीं हैं, उन्हें गरिमा के साथ रहने की अनुमति नहीं है, तो अनुच्छेद 21 के तहत उनके अधिकार प्रभावित होते हैं।'

न्यायमूर्ति कुरियन ने अपना खर्च वहन कर पाने में असमर्थ लोगों को राज्य द्वारा कानूनी सहायता दिए जाने का मुद्दा भी उठाया। उन्होंने कहा, 'उचित कानूनी सहायता का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, जिसमें गरिमा का अधिकार भी शामिल है और इसे सुनिश्चित किया जाना चाहिए।'

नलसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति प्रो. फैजान मुस्तफा ने अपनी टिप्पणी में एनआरसी में लोगों द्वारा चुकाई जा रही कीमत पर चर्चा की। उन्होंने कहा,' यहां पर इतने लोगों की व्यक्तिगत गवाही सुनने के बाद अब संविधान को पढ़ाना मुश्किल हो गया है क्योंकि बड़ी संख्या में साथी नागरिकों को इसके अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। अगर हम वसुधैव कुटुम्बकम के बारे में बात करते हैं, तो हम अपने साथी भारतीयों के लिए इतने अमानवीय कैसे हो सकते हैं।'

उन्होंने आगे कहा कि न्यायपालिका को अपना न्यायिक कर्तव्य निभाना चाहिए। हम राष्ट्र को विभाजित कर रहे हैं और कई राष्ट्र बना रहे हैं। यह सही समय है कि राष्ट्र राज्य को नए सिरे से सोचा जाना चाहिए। औपनिवेशिक कानूनों से लोगों की नागरिकता का निर्धारण नहीं करना चाहिए।

इंडियन राइटर्स फोरम की संस्थापक-सदस्य गीता हरिहरन ने अपनी टिप्पणी में कहा कि बड़ी संख्या में एनआरसी से बाहर किए गए लोग आजीविका के मामले में अनिश्चित जीवन जीते हैं, इसमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। उन्होंने कहा कि यह बहुत ख़राब और बुरी तरीके से क्रियान्वित प्रक्रिया है जो लोगों की वास्तविक कठिनाईयों को नहीं देखता है।

उन्होंने कहा कि अगर हम लोगों को विभाजित करते हैं तो विविधता के सिद्धांत और वास्तविकता का क्या होगा, चाहे वह भाषा का हो, भाषा के भीतर, जाति, समुदाय आदि का हो? उन्होंने कहा कि प्रवासन को बाहरी आक्रमण से जोड़ना समानता के मूल सिद्धांत को आधारहीन बनाता है।

आपको बता दें कि एनआरसी की अंतिम सूची में 19 लाख से अधिक लोग बाहर हो गए हैं।एनआरसी में शामिल होने के लिए 3.30 करोड़ से अधिक लोगों ने आवेदन किया था।

 

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