एनआरसी : सभी पीड़ित सनाउल्लाह की तरह सैनिक नहीं!
भारतीय सेना में तकरीबन तीन दशक तक अपनी सेवाएं देने वाले मोहम्मद सनाउल्लाह को 29 मई को फॉरेन ट्रिब्यूनल ने अवैध प्रवासी घोषित कर दिया था। बाद में सेना से जुड़े होने के कारण इस मसले पर बहुत अधिक बहस हुई। तीन दशक तक सेना की सेवाएं देने की वजह से जनदबाव बना। मामला हाईकोर्ट पहुंचा और 8 जून को गुवाहाटी हाईकोर्ट के आदेश पर मोहम्मद सनाउल्लाह को असम के डिटेंशन सेंटर से जमानत पर छोड़ दिया गया।
जनदबाव की वजह से जब इस मामले में फिर से जांच शुरू हुई तो चौंका देने वाले तथ्य सामने आए। मोहम्मद सनाउल्लाह की नागरिकता के खिलाफ बहुत पहले साल 2009 में फॉरेन ट्रिब्यूनल में केस दायर हुआ था। परिवार का कहना है कि उन्हें कभी इसकी जानकारी नहीं मिली। न ही अदालत की तरफ से कोई नोटिस आया। इसके बारें में उन्हें जानकारी साल 2017 में मिली जब नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन (एनआरसी) का पहला ड्राफ्ट जारी किया गया। इस पहले ड्राफ्ट में मोहम्मद सनाउल्लाह को अवैध प्रवासी के तौर पर घोषित किया गया था।
फॉरेन ट्रिब्यूनल इस निष्कर्ष तक कैसे पहुंचा? यह जानने के बाद यह साफ़ हो जाता है कि इतने गंभीर काम को फॉरेन ट्रिब्यूनल द्वारा कितने लापरवाही से किया जा रहा था। मोहम्मद सनाउल्लाह की नागरिकता की जांच करने करने के लिए असम बॉर्डर पुलिस गई थी। उस समय मोहम्मद सनाउल्लाह मणिपुर में आर्मी में तैनात थे। बिना किसी पूछताछ के असम बॉर्डर पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में फर्जी का अंगूठे का निशान दिखा दिया और मोहम्मद सनाउल्लाह को मजदूर घोषित कर दिया। इनकी नागरिकता की जांच के जिन तीन स्थानीय लोगों का जिक्र रिपोर्ट में किया गया है, उनका यह कहना है कि इस संबंध में कभी भी किसी अधिकारी ने उनसे बात नहीं की। यानी रिपोर्ट में दर्ज तीनों गवाह के हस्ताक्षर भी झूठे हैं। इस तरह से यह बात साफ है कि किसी की नागरिकता की जांच से जुड़ी जरूरी प्रक्रियाओं को सही तरह से अपनाया नहीं गया। प्रक्रियाओं में जानबूझकर लापरवाही की गयी। अब यहां इस मामले और संस्था की गंभीरता को भी समझना जरूरी है। संस्था यानी फॉरेन ट्रिब्यूनल एक अर्ध-न्यायिक संस्था है, जिसकी जिम्मेदारी यह है कि कानून के नियम को अपनाते हुए नागरिकता के सम्बन्ध में वैधता या अवैधता को तय करे। लेकिन फॉरेन ट्रिब्यूनल ने प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया। नियम-कानून को दरकिनार करते हुए एक नागरिक को अवैध नागरिक घोषित कर दिया।
शायद सनाउल्लाह के मामले में उनकी सैन्य पृष्ठभूमि उन्हें इंसाफ दिलवाने में सफल हुई। लेकिन पिछले कई सालों से पत्रकार यह रिपोर्ट कर रहे हैं कि एनआरसी के तहत नागरिकता की वैधता और अवैधता तय करने में बहुत अधिक धांधली हो रही है। इस तरह की प्रशासनिक गलतियां अपवाद होने की बजाए नियम की तरह अपनायी जा रही हैं। डिटेंशन सेंटर से छूटने के बाद मोहम्मद सनाउल्लाह ने मीडिया से बात करते हुए यह बात कही कि डिटेंशन सेंटर में ऐसे कई मामले हैं जिनके साथ इंसाफ नहीं हुआ है। कई लोग तो दस साल से अधिक समय से डिटेंशन सेण्टर में रह रहे हैं। इनके लिए बिना किसी मीडिया की छानबीन के कोई न्याय नहीं है। यह बताता है कि एनआरसी से जुड़ा नागरिकता का मामला किस तरह से अन्यायी ढंग से चल रहा है।
ऐतिहासिक और आर्थिक कारणों से असम में गैर-कानूनी अप्रवासन (illegal immigrant ) एक ज्वलंत मुद्दा रहा है। राज्य में मार्च 1971 के पहले से रह रहे लोगों को रजिस्टर में जगह मिली है, जबकि उसके बाद आए लोगों के नागरिकता दावों को संदिग्ध माना गया है। मोदी सरकार के मुताबिक इलाके में रहने वाले अवैध मुस्लिम आप्रवासियों को वापस भेजा जाए। लेकिन उन्हें वापस कहां भेजा जाए ये साफ़ नहीं है क्योंकि बांग्लादेश की तरफ़ से इस बारे में कोई संकेत नहीं मिला है कि वो भारत से आने वाले लोगों को लेने के लिए तैयार हैं। असम में रह रहे करीब 40 लाख लोगों का नाम एनआरसी की पहली सूची में शामिल नहीं था जिसके बाद उन्हें और दस्तावेज़ दाखिल करने के लिए वक्त दिया गया। असम की करीब सवा तीन करोड़ की जनसख्या में एक तिहाई मुसलमान हैं।
असम समझौते के मुताबिक 24 मार्च, 1971 के बाद असम में घुसने वाले लोगों को अवैध नागरिक माना जाएगा। नागरिकता निर्धारित करने के लिए दो प्रक्रियाएं समनांतर तौर पर काम करती हैं। पहला नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन और दूसरा फॉरेन ट्रिब्यूनल। एनआरसी की बुनियाद साल 1951 में रखी गयी थी और फॉरेन ट्रिब्यूनल की स्थापना संसद के जरिये साल 1964 के फॉरेन एक्ट से केवल असम के लिए की गयी थी। नेशनल सिटीजन ऑफ़ रजिस्टर (एनआरसी) में 12 पहचान पत्रों जैसे- वोटर आईडी, निवास प्रमाण पत्र, शैक्षिक सर्टिफिकेट आदि के आधार पर नागरिकता निर्धारित की जाती है। जबकि फॉरेन ट्रिब्यूनल में मामलों की सुनवाई करने के लिए रिटायर्ड जज होते हैं और पुलिस की मदद से अपना काम करते हैं। अब यहां समझने वाली बात यह है कि दोनों संस्थाएं नाम और औपचारिकता के आधार पर एक-दूसरे से पूरी तरह स्वतंत्र होने की बजाय ऐसे काम करती है जो एक-दूसरे के विरोधीभासी हैं। जो व्यक्ति फॉरेन ट्रिब्यूनल से विदेशी घोषित होता है वही व्यक्ति और उसका परिवार एनआरसी के तहत नागरिक घोषित हो जाता है और इसका उल्टा भी होता रहता है।
क़ानूनी विशेषज्ञ गौतम भाटिया द हिन्दू में लिखते हैं कि नागरिकता जैसे मूलभूत और महत्वपूर्ण विषय को सारी प्रक्रियाओं को अपनाते हुए बहुत ही सावधानी से सुलझाना चाहिए। इसका महत्व तब समझ में आएगा जब हम यह समझ पाएंगे कि नागरिकता छीने जाने का अर्थ क्या होता है? राज्य द्वारा मिले अधिकारों को खो देना, राज्य विहीन हो जाना, राज्य के भूगोल से बाहर कर डिटेंशन सेंटर में रहने के लिए मजबूर हो जाना जैसी भयावह परेशानियों से गुजरने के लिए बाध्य हो जाना। किसी भी व्यक्ति को ऐसी भयावह प्रताड़नाएं सहन करने से पहले यह जरूरी है कि एक सभ्य समाज कानून के नियम से पैदा होने वाले प्रक्रियाओं को बहुत ही सावधानी से पालन करे। बहुत सारे मामलों में प्रक्रियाओं का ढंग से पालन नहीं किया जाता जैसा कि मोहम्मद सनाउल्लाह के मामले में किया गया है। प्रक्रियाओं का गलत पालन कारने के बाद किसी व्यक्ति को विदेशी घोषित करने के आधार पर पूरे परिवार को विदेशी घोषित कर दिया जाता है। पहचान से संबधित डॉक्यूमेंट में क्लरिकल गलती होने के आधार पर किसी को विदेशी घोषित कर दिया जाता है। डॉक्यूमेंट में हुई स्पेलिंग की गलतियों, दो पहचान में पत्र में अलग़-अलग उम्र होने के आधार पर और ऐसे ही छोटी-छोटी भूलों के आधार पर फॉरेन ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित कर दिया जाता है। इन प्रक्रियाओं में की गई लापरवाही को देखकर ऐसा लगता है कि फॉरेन ट्रिब्यूनल विदेशी घोषित करने का आदि बन चुका है।
प्रक्रियाओं के इस तरह के उल्लंघन पर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिए। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट का ज़ोर एनआरसी अपडेशन को जल्दी पूरा करने पर है।
सुप्रीम कोर्ट यह भी कर सकता है कि स्वतः संज्ञान लेते हुए डिटेंशन सेंटर की अमानवीय स्थिति में सुधार का आदेश दे।
गौतम भाटिया लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट यह समझने में असफल रहा है कि जहां जीवन और मरण का सवाल हो, जहां पर एक छोटी सी गलती की वजह से किसी की पूरी जिंदगी ख़राब हो सकता है वहाँ गति मायने नहीं रखती कि एनआरसी का फाइनल ड्राफ्ट जल्दी से तैयार हो जाए बल्कि अधिकारों का संरक्षण मायने रखता है। लेकिन कोर्ट ऐसा नहीं कर रहा है। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी बहुत विचित्र तर्क रखा है कि किसी व्यक्ति के विदेशी घोषित हो जाने से तय है कि पूरा परिवार भी अवैध तरह से रह रहा है। यह पूरी तरह से ऐसी बात है जो संवैधानिक कोर्ट के खिलाफ जाती है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि मोहम्मद सनाउल्लाह के जरिये छिड़ी बहस बहुतों के लिए इंसाफ का दरवाजा खटखटा रही है। इसे निश्चित तौर पर सुना और समझा जाना चाहिए।
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