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सरकार कैसे गिरा सकता है किसान आंदोलन... लेकिन ज़िंदा क़ौमें पांच साल इंतज़ार कैसे करें

देश के पढ़े लिखे लेकिन तथ्य, तर्क और विवेक से हटकर सोचने वाले मध्यवर्ग के बीच बेसिरपैर की कहानियां घूम रही हैं, वे नहीं समझ पा रहे कि इस आंदोलन का उद्देश्य सरकार के रास्ते को बदलना और नीतियों में परिवर्तन लाना है।
सरकार

इस देश के पढ़े लिखे लेकिन तथ्य, तर्क और विवेक से हटकर सोचने वाले मध्यवर्ग के बीच एक बेसिरपैर की कहानी तैर रही है। वो कहानी यह है कि दिल्ली की सीमा को घेरकर बैठे किसान मोदी सरकार को सड़क पर खुले आम बेइज्जत करना चाहते हैं और उसे गिराना चाहते हैं। दूसरी कहानी यह है कि अगर संसद से पारित इन कथित कृषि कानूनों को वापस ले लिया गया तो देश में कोई कानून मानेगा ही नहीं। कोई भी उठेगा और कानून पलटवाने लगेगा।

सरकार और उसके समर्थकों की मौजूदा मानसिकता को हम वैदिक युग में प्रभावशाली लेकिन पौराणिक युग में निरंतर कमजोर होते गए हिंदुओं के देवता इंद्र के बर्ताव से समझ सकते हैं। इंद्र युद्ध का देवता है। वह देवताओं का राजा भी है। वह हर समय युद्ध करता रहता है। लेकिन जैसे ही कोई और कठोर तप करता है या कोई बड़ा काम करने लगता है वैसे ही उसे यह भय होने लगता है कि वह उसका देवराज का पद छीन लेगा। इसलिए वह हर प्रकार के छल कपट से उसके काम को भंग करने की कोशिश करता है। इस काम के दौरान इंद्र का निरंतर पतन होता है और पौराणिक युग में त्रिदेवों का उदय होता है और इंद्र का महत्व समाप्त होता जाता है। यहां तक कि कृष्ण भी इंद्र और उनके युग्म देव वरुण के अभिमान को चकनाचूर करके गोकुलवासियों को गोवर्धन पर्वत के माध्यम से बचा लेते हैं। वह एक प्रकार से कृषक और गोपालक जातियों का घमंडी राजा के विरुद्ध एक विद्रोह और आंदोलन ही था।

लगभग उसी तरह की इंद्र ग्रंथि से मौजूदा सरकार भी ग्रसित है जो हर समय युद्ध छेड़े रहती है और अपने शत्रुओं का विनाश करने के लिए कहीं पश्चिम बंगाल, कहीं तमिलनाडु तो कहीं किसी राज्य में चुनावी जंग छेड़े रहती है। इस तरह सदैव युद्ध की मानसिकता में रहने वाले शासकों को या तो हमेशा यह भय रहता है कि उन्हें कभी भी सत्ता से हटाया जा सकता है या वे इस तरह का भय और भ्रम फैलाते रहना चाहते हैं।

इस समय लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी के पास 302 सांसद हैं उनके अलावा उसे 18 दलों का समर्थन हासिल है जिन्हें मिलाकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बना है। एनडीए के पास कुल 334 सदस्य हैं जो कि बहुमत के 272 के आंकड़े से काफी ज्यादा हैं। यानी मध्यावधि चुनाव की कोई संभावना नहीं है। देश के 14 राज्यों में भाजपा और उसके गठबंधन का शासन है। इनमें सात राज्य ऐसे हैं जहां पर भाजपा अपने बूते पर सत्ता में है और कहीं पर दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन से तो कहीं क्षेत्रीय पार्टियों को समर्थन देते हुए शासन कर रही है। ऐसी स्थिति में कोई बच्चा भी बता सकता है कि भाजपा या मोदी की सरकार न तो गिरेगी और न ही मौजूदा विपक्षी दलों के पास उसे गिराने का संख्या बल है। देश की सबसे पुरानी और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के पास लोकसभा में सिर्फ 52 सीटें हैं और वैचारिक रूप से दक्षिणपंथ के लिए सबसे गंभीर खतरा कही जाने वाली वामपंथी पार्टियों के पास सिर्फ 5 सीटें हैं। फिर अभी लोकसभा चुनाव बहुत दूर है। इसलिए यह आरोप एकदम निराधार है कि विपक्षी दल किसानों को उकसा कर मोदी को सत्ता से हटाना चाहते हैं या भाजपा की सरकार गिराना चाहते हैं। वैसे भी जो लोग मोदी की हिंदुत्व की विचारधारा से सहमत नहीं हैं वे भी जानते हैं कि देश की जनता में हिंदू एकता का छद्म आख्यान इतना जोर पकड़ चुका है कि उसे एकदम खारिज करके मोदी को अप्रासंगिक करना आसान काम नहीं है।

जो लोग यह कह रहे हैं कि यह लोग सरकार को बेइज्जत करना चाहते हैं और अमीर लोग हैं उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आखिर कौन अमीर इस कड़कड़ाते जाड़े में सड़क पर अपनी औरतों और बच्चों के साथ पचास दिन बिताएगा और जमीन पर बैठकर खाना खाएगा। इसे किसी को बेइज्जत करना नहीं अपने हक के लिए संघर्ष करना कहा जाता है।

फिर यह आंदोलन क्यों हो रहा है और लोकतंत्र में इस तरह के आंदोलनों का क्या महत्व है और इसकी जरूरत क्या है ? समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी डॉ. राममनोहर लोहिया ने आजाद भारत में भी आंदोलन बंद नहीं किया था। बल्कि वे जितनी बार गुलाम भारत में गिरफ्तार हुए उससे कहीं ज्यादा आजाद भारत में बंदी बनाए गए। उन्होंने उत्तर प्रदेश में आबपाशी यानी पानी पर कर लगाए जाने के विरुद्ध आंदोलन किया। इस आंदोलन के दौरान वे गिरफ्तार किए गए और उन्होंने अपना मुकदमा खुद लड़ा। लेकिन असली बात यह है कि इस आंदोलन के परिणामस्वरूप वह कानून वापस लिया गया।

आंदोलन के दौरान और उसके आगे पीछे डॉ. लोहिया को इन सवालों का बार बार सामना करना पड़ा कि जब राजकाज अपना ही है तो सत्याग्रह या आंदोलन की क्या जरूरत हैउन्होंने रीवा में 26 फरवरी 1950 को दिए भाषण में इसका स्पष्ट जवाब दिया है। उनका कहना था कि साधारण तौर पर सरकारों से भूल होती है। इसलिए अन्याय के विरोध में और भूल सुधार के लिए अपने ही राजकाज में सत्याग्रह उचित है। अगर विरोध नहीं किया जाएगा तो अन्याय और झूठ से कुछ भी हो सकता है। हालांकि वे सचेत करते हैं कि सत्याग्रह के इस रास्ते में हिंसक विरोध की कोई जगह नहीं है। बाद में छात्रों के आंदोलन के लिए परमार्थिक अनुशासनहीनता जैसे उपाय का सुझाव देते हैं। यानी अगर आपका उद्देश्य परमार्थ है तो एक हद तक अनुशासनहीनता की जा सकती है।

आंदोलन की आवश्यकता वे इसलिए महसूस करते हैं ताकि सरकार अपना रास्ता बदले, जनता की गरीबी और उसका कष्ट मिटे। वरना अगले चुनाव तक लोगों की स्थिति ज्यादा बदतर हो सकती है इसलिए जनता तब तक कैसे इंतजार करे। हो सकता है कि अगले चुनाव तक जनता की परेशानी और गरीबी असाध्य रोग बन जाए या फिर तमस इतना घेर ले कि जनता को विश्वास ही न रहे। जो लोग सरकार चलाने के लिए और तरक्की करने के लिए बार बार अमन चैन की दुहाई देते हैं उनके लिए डॉ. लोहिया कहते हैं कि अमन चैन दोनों साथ साथ चलते हैं। जहां चैन नहीं है वहां अमन तभी कायम रह सकता है जब जनता मुर्दा हो जाए।

जनता की परेशानी को अपने दिल से लगाए घूमने वाले डॉ. लोहिया ने कहा था कि छिटपुट विरोध पर लाठी गोली चलती है अमन टूट जाता है। गरीबी और मन की हीनता बढ़ सकती है। ऐसे में कौन चुनाव तक इंतजार करता है। लेकिन सरकार बदलना इन सत्याग्रही आंदोलनों का उद्देश्य नहीं होता। भले मौजूदा सरकार ही बनी रहे पर उसका रास्ता बदले। इसके लिए लोगों को प्रतिबद्ध होने को तैयार रहना चाहिए।

ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं

डॉ. लोहिया का मशहूर कथन है कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। उस समय भी जब लोहिया खेती और अन्न के सवाल को राजनीति से जोड़ते थे तो सत्ता और विपक्ष के लोग कहा करते थे कि अन्न और राजनीति को अलग रखो। इस तरह की नसीहतों पर उन्होंने कहा है कि यह बहुत ही गंदा और धोखेबाज विचार है, क्योंकि राजनीति का उद्देश्य तो अन्न है। गरीब देश में राजनीति का पहला उद्देश्य है लोगों का पेट भरना। अगर लोगों का पेट नहीं भरता तो फिर उस देश में राजनीति निकम्मी और असफल है। राजनीति को भोजन से अलग रखो ऐसा कहने वाले अज्ञानी हैं या बेईमान। डॉ. लोहिया की इसी बात को आज हम लोगों के रोजगार और खेती की उपज के वाजिब दाम यानी एमएसपी या स्वामीनाथन कमेटी की रपट से जोड़ सकते हैं। वे खेती की उपज के मूल्य को औद्योगिक उत्पादन के मूल्य के साथ साम्य बिठाना चाहते हैं। वे मानते हैं कि अगर टर्म आफ ट्रेड (term of trade) संतुलित रहेगा तो किसानों तथा शेष समाज के बीच का शोषण समाप्त हो जाएगा। लोहिया की साठ सत्तर साल पहले कही गई इन बातों से हम आज के लोकतांत्रिक आंदोलनों के औचित्य को सही साबित कर सकते हैं और यह समझ सकते हैं कि मौजूदा आंदोलन नीतियों में बदलाव के लिए ही है न कि सरकार का तख्ता पलटने के लिए।

इससे पहले भी जब राजीव गांधी की प्रचंड बहुमत वाली सरकार थी तो उसने प्रेस विधेयक लाने की तैयारी कर रखी थी और बिहार में उसे लागू कर दिया था। उसके विरोध में पूरे देश में आंदोलन हुआ और सरकार को विधेयक वापस लेना पड़ा।

लोकतंत्र में आंदोलन के औचित्य को डॉ. भीमराव आंबेडकर भी मसहूस करते हैं। हालांकि उन्होंने संविधान सभा में कहा था कि जब संविधान बन गया और कानून का राज लागू हो गया तो किसी प्रकार के सत्याग्रह और आंदोलन की जरूरत नहीं है। लेकिन तब उन्हें सरकार छोड़नी पड़ी और दलित समाज के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ा, यहां तक कि वे चुनाव भी हारे तब उन्होंने कहा कि यह संविधान अगर लोगों की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरा तो मैं इसे अपने हाथ से जलाऊंगा। यह सामाजिक न्याय के लिए सत्याग्रह का आह्वान ही था। यानी आंदोलन हम भारत के लोगों का चैन लौटाने का उपाय है और अगर उनका चैन बना रहेगा तो देश का अमन भी कायम रहेगा।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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